मंगलवार, 30 नवंबर 2021

खटराग : केपी सक्सेना 'दूसरे' का काव्य संग्रह



नहीं सिधाई की बहुत, इस युग में दरकार


कवि, लेखक, व्यंग्यकार के.पी. सक्सेना 'दूसरे' के नए काव्य संग्रह का नाम है खटराग। उनके इस खटराग में कई काव्य विधाएं शामिल हैं। अपनी बात में उन्होंने लिखा है- "काव्य लेखन मेरे लिए न तो शब्दों की जादूगरी है और न ही वैचारिक जुगाली। यह आंसुओं का अनुवाद है जो अमूमन व्यंग्यात्मक शैली में दोहा, मुक्तक, क्षणिका या अतुकांत कविता के रूप में काग़ज़ पर अवतरित होने के लिए आतुर हो उठता है। कविता वक़्त के साथ अपना रंग बदलती है। जब हम ख़ुश होते हैं तो कविता झूमने लगती है और जब हम उदास होते हैं तो सर टिकाने के लिए एक कांधे की तरह हाज़िर हो जाती है।"


अपनी अनुभूतियों के रूपांतरण के लिए कवि केपी सक्सेना ने बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल किया है। इसलिए उनकी अभिव्यक्ति सहजता से पाठकों तक पहुंच जाती है। किसी भी विधा में बात कहते समय वे यथार्थ का दामन कभी नहीं छोड़ते। उनके दोहे 'गागर में सागर' युक्ति को चरितार्थ करते हैं। उनका कहना है-


लघुकथा से बात बन जाए अगर,

क्यों पुलिंदों में मगज़मारी करें l 

सार जीवन का छुपा दो लाइनों में 

हम तो दोहों की तरफ़दारी करें II


केपी सक्सेना की दोहावली में अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों शामिल हैं। उनकी अभिव्यक्ति के प्लेटफार्म पर त्रेता, द्वापर, नीति, अनीति, प्रेम, प्रकृति, चुनाव, राजनीति, धर्म, संस्कृति आदि विविध विषय दिखाई देते हैं। मिसाल के लिए उनके चंद दोहे देखिए- 


युग कोई भी हो रहा, दगा न पूजा जाय। 

नाम विभीषण आज भी, कुल में रखा न जाय II


वह भी मां स्तुत्य है, जो दे सुत को श्राप। 

कैकेई कारण बनी, रावण मरा ना आप II 


छल से जब एकलव्य का, लिया अंगूठा दान। तब ही से जग में घटा, गुरुओं का सम्मान II


नहीं सिधाई की बहुत, इस युग में दरकार।

सभी काटते छांट कर, पहले सीधी डार II


जो धमकी से ना सधे, वो साधे मुस्कान। 

झरना देखो प्रेम से, रेत रहा चट्टान II


सदा काम आवे नहीं, कोरा पुस्तक ज्ञान। 

जीवन से जो सीख ले, होय सफल इंसान II


'काना' कहकर क्यों करें, काने का अपमान।

'समदर्शी' कह देखिए, करे निछावर जान II


रचनात्मकता को धार देने के लिए व्यंग्य का लहजा असरदार साबित होता है। अपने युग के यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए केपी सक्सेना इस लहजे का भी बढ़िया इस्तेमाल करते हैं-


ना कालिख, ना गालियां, ना जूतम-पैज़ार। 

आख़िर दिनभर मीडिया, कैसे करे प्रचार II 


उनकी महिमा आज तक, सका न कोई भेद।

बालों को काला करें, धन को करें सफ़ेद II


केपी सक्सेना के खटराग में 63 मुक्तक भी शामिल हैं। इन मुक्तकों में भी उन्होंने अपने समय और समाज के सच को बयान करने में कोई कोताही नहीं की है। सीधी साधी भाषा में और सहज सरल लहजे में वे जो कुछ भी कहना चाहते हैं वह आसानी से पाठकों तक पहुंच जाता है-


बंदिशें कुछ तो ढील दे मौला, 

ख़्वाहिशों को ज़मीन दे मौला। 

देख दिन की नमाज़ भी पढ़ ली, 

अब तो शामें हसीन दे मौला II


10 मार्च 1947 में सतना, मध्य प्रदेश में जन्मे केपी सक्सेना कृषि विज्ञान तथा हिंदी में स्नातकोत्तर हैं। उन्होंने क़ानून की उपाधि भी प्राप्त की है। 35 सालों तक भारतीय खाद्य निगम में सेवा के पश्चात उन्होंने सन् 2004 में ऐच्छिक सेवानिवृत्त ले ली और स्वतंत्र लेखन करने लगे। केपी सक्सेना एक दृष्टि संपन्न रचनाकार हैं। अपने आसपास की घटनाओं, माहौल और जीवन पर उनकी हमेशा नज़र रहती है। इसलिए वे अपनी रचनाओं में समय के सच को बयान करते हैं। अभिव्यक्ति की यही ईमानदारी उन्हें एक उम्दा क़लमकार के रूप में स्थापित करती है। हमारी मंगल कामना है कि उनकी यह लेखनी इसी तरह हमेशा सक्रिय रहे। वे साहित्य के गुलशन में विविध रंगी फूल खिलाते रहें और जीवन की बग़िया को महकाते रहें। 


बीएफसी पब्लिकेशन, गोमती नगर, लखनऊ से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य है 200 रुपए। आप मोबाइल नंबर 95840 25175 और 95944 80055 पर कवि के.पी. सक्सेना 'दूसरे' से संपर्क कर सकते हैं।



आपका-

देवमणि पांडेय 


सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 मो : 98210 82126


कोई टिप्पणी नहीं: