शायर अजय सहाब का पहला शेरी मज्मूआ 'उम्मीद' सन् 2015 में शाया हुआ था और ख़ूब मक़बूल रहा। हाल ही में उनका दूसरा शेरी मज्मूआ 'मैं उर्दू बोलूं' मंज़रे आम पर आया है। इसके ज़रिए भी उन्होंने अपनी रचनात्मकता के फ़न और हुनर का जलवा दिखाया है। क्लासिकल ग़ज़ल की जो विरासत हमें मीर ओ ग़ालिब से हासिल हुई है उसे बड़ी ख़ूबसूरती से अजय सहाब ने आगे बढ़ाया है-
वो तअल्लुक़ तेरा मेरा, था कोई बुत मोम का
फ़ुरक़तों की आग में, अपना वो रिश्ता जल गया
हम गए थे उनसे करने अपनी हालत का गिला
उनके चश्मे पुरशरर से सारा शिकवा जल गया
साहिर उनके प्रिय शायर हैं। साहिर की तरह सहाब के पास भी अपने तजुर्बात के इज़हार के लिए धारदार तेवर है। एहसास की गहराई है। बोलती हुई मीठी ज़बान है। इसलिए सहाब की ग़ज़लें और नज़्में सीधे दिल के दरवाजे पर दस्तक देती हैं और हमारी भावनाओं के साथ एक अंतरंग रिश्ते में ढल जाती हैं।
मग़रिब से आ गई यहां तहज़ीबे बरहना
मशरिक तेरी रिवायती पाकीज़गी की ख़ैर
अंधे परख रहे यहां मेयारे रोशनी
दीदावरे हुनर तेरी, दीदावरी की ख़ैर
सहाब के पास शायरी का जो सरमाया है वह रिवायती भी है और जदीद भी है। उनकी सोच का कैनवास बहुत वसीह है। इसमें मुहब्बत की धड़कन है। सोच की लहरें हैं। फ़िक्र के उफ़क़ पर ज़िन्दगी की सतरंगी धनक है-
तेज तूफ़ान में उड़ते हुए पत्ते जैसा
ज़िन्दगी तेरा मुक़द्दर भी है तिनके जैसा
तुमको फ़ुर्सत ही नहीं उसको पहनके देखो
अपना रिश्ता है जो उतरे हुए गहने जैसा
सहाब दौरे हाज़िर के मसाइल और सवालात को अल्फ़ाज़ में ढालने का हुनर जानते हैं। यही वजह है कि उनकी शायरी को हर तरह के पाठक और सामयीन पसंद करते हैं। सहाब के पास साफ़ नज़रिया है। लफ़्ज़ों को बरतने का सलीक़ा है। बिना किसी अवरोध के उनके सोच की कश्ती जज़्बात की झील में तैरती हुई नज़र आती है-
या तो सच कहने पर सुक़रात को मारे न कोई
या तू संसार से सच्चाई को वापस ले ले
और कितनों के सफ़ीने यहां डूबेंगे ख़ुदा
इस समंदर से तू गहराई को वापस ले ले
सहाब एक ऐसे मोतबर शायर हैं जिनकी शायरी अदबी रिसालों में शाया होती है। संगीत की स्वर लहरियों में गूंजती है। मुशायरों के मंच पर अवाम से गुफ़्तगू करती है। सहाब को उर्दू से बेइंतहा मुहब्बत है। उनकी उर्दू इतनी नफ़ीस है कि उससे बड़े-बड़े शायरों को रश्क हो सकता है।
लिखा है आज कोई शेर मैंने उर्दू में
ये मेरा लफ़्ज़ भी इतरा के चल रहा होगा
"अल्फ़ाज़ और आवाज़" स्टेज कार्यक्रम के ज़रिए भी अजय सहाब देश विदेश में उर्दू ज़बान और उर्दू अदब का परचम लहराते हैं। यूट्यूब पर उनके इस कार्यक्रम के करोड़ों दर्शक हैं।
जैसे पुराना हार था रिश्ता तेरा मेरा
अच्छा किया जो रख दिया तूने उतार के
दिल में हज़ार दर्द हों, आंसू छुपा के रख
कोई तो कारोबार हो, बिन इश्तेहार के
फ़िक्र की आंच, एहसास की शिद्दत और सोच की गहराई के ज़रिए सहाब ने अपने शायराना सफ़र को एक खूबसूरत मुक़ाम तक पहुंचाया है। हमारी दुआ है कि उनकी तख़लीक़ का यह सफ़र मुसलसल इसी तरह कामयाबी की नई मंज़िलें तय करता रहे। रायपुर छ.ग. में अजय साहब एक सरकारी महकमे में उच्च अधिकारी हैं। हमें उनकी इस ख़्वाहिश का एहतराम करना चाहिए-
मेरे ओहदे से, न क़द से, न बदन से जाने
मुझको दुनिया मेरे मेयार ए सुख़न से जाने
प्रकाशक : विजया बुक्स, 1/10753 सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली 110032
क़ीमत 295/- रूपये
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आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 मो : 98210 82126
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