शनिवार, 5 मार्च 2022

वीथियों के बीच : अभिषेक सिंह का ग़ज़ल संग्रह



भेल में वरिष्ठ अभियंता के रूप में कार्यरत बिहार के युवा ग़ज़लकार अभिषेक कुमार सिंह के ग़ज़ल संग्रह का नाम है 'वीथियों के बीच'। अभिषेक हिंदी ग़ज़ल की उस परंपरा के हमराही हैं जो हमें सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, शमशेर बहादुर सिंह, और महाकवि निराला से हासिल हुई है। हिंदी ग़ज़ल की इस शाहराह पर दुष्यंत कुमार मील के पत्थर हैं। दुष्यंत ने हमें भाषा, कथ्य, और अभिव्यक्ति का नया मुहावरा दिया। उनके यहां प्रतिरोध की एक बुलंद आवाज़ है। ग़ज़ल के इस रचनात्मक सफ़र से अभिषेक अपना रिश्ता इस तरह जोड़ लेते हैं- 


लोग जो उतरे अभी हैं चमचमाती कार से

भूख पर चर्चा करेंगे बैठकर विस्तार से


सांस लेने की नई शर्तें हैं लागू अब यहां

धड़कनें भी लिंक होंगी आपके आधार से


जन समर्थित चेतना को रौंदा डाला जाएगा 

आपकी संवेदना को रौंद डाला जाएगा 


बाढ़ से पहले बनेंगे काग़ज़ों पर पुल नए 

और ज़मीं पर योजना को रौंद डाला जाएगा


अपने वक़्त के यथार्थ के साथ-साथ चलते हुए अभिषेक अपनी अभिव्यक्ति को आधुनिक सोच और शब्दावली की ऐसी पोशाक पहना देते हैं कि पढ़ने सुनने वाले आश्चर्यचकित हो जाते हैं। उनके ऐसे ही चार मिसरे मैं अक्सर उद्धरित करता हूं-


ओला न मिल सके तो उबर से निकल चलें

आओ उदासियों के शहर से निकल चलें


ख़तरों की बारिशों का तो मौसम ही तय नहीं

हिम्मत का रेनकोट लें घर से निकल चलें


अभिषेक का ये कहना सच है कि "इंग्लिश भी शामिल है अपनी हिंदी में, हिंदी भी अब इंग्लिश का इक हिस्सा है।" वे अपनी ग़ज़लों में अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से करते हैं। मगर उनकी अभिव्यक्ति में सहजता है। कहीं भी उनका ऐसे प्रयोग अटपटे नहीं लगते- 


टीआरपी की झाड़ से आती है उतर कर 

सो न्यूज़ भी अख़बार पर पूरी नहीं उतरी


चीख़ सिसकी बढ़ गई है शोषितों के हाय की

वेंटिलेटर पर पड़ी है लाश बेबस न्याय की


अभिषेक के पास चीज़ों को महसूस करने का हुनर और देखने का नज़रिया है। वे अपने आसपास की दुनिया को अपनी तरह से देखते हैं। जो मंज़र सामने है उसे वे ग़ज़ल के फ्रेम में तस्वीर की तरह जड़ देते हैं। ये तस्वीरें कभी-कभी देखने वाले को सुकून पहुंचाती हैं और कभी कभी विचलित कर देती हैं। क़ाफ़ियों के बढ़िया इस्तेमाल से वे अपने कथ्य में जादुई असर पैदा करते हैं-


कितनी धोती होगी गांधी को मयस्सर 

फ़ैसला इस देश में नाथू करेंगे 


कितने भोलाराम के हैं जीव अटके 

जाने इनको मुक्त कब बाबू करेंगे


गिरने को तो पल भर में गिर जाते हैं

बरसों लगते हैं किरदार उठाने में


अभिषेक के पास हिंदी की विपुल शब्द संपदा है। वे तत्सम शब्दों के इस्तेमाल से अपनी अभिव्यक्ति को आकर्षक बना देते हैं। ख़ास बात यह भी है कि ऐसे प्रयोगों से कहीं भी ग़ज़ल की लय बाधित नहीं होती है। इस तरह उन्होंने जाने अनजाने हिंदी ग़ज़ल की परम्परा को समृद्ध करने का सराहनीय कार्य किया है।


इस ग़ज़ल संग्रह में 110 ग़ज़लें शामिल हैं। अधिकतर ग़ज़लों में वर्तमान समय और समाज के ज्वलंत सवाल हैं। व्यवस्था का मुखर विरोध है। निजी सुख दुख और विविधरंगी भावनाओं की अभिव्यक्ति कम है। जन समाज के प्रति प्रतिबद्धता अपनी जगह है लेकिन अभिषेक को उन भावनाओं की तरफ़ भी ध्यान देना चाहिए जो हमारी ज़िन्दगी को ख़ूबसूरत बनाते हैं। मुझे लगता है कि ग़ज़ल में वर्तमान समय के खुरदरे यथार्थ के चित्रण के साथ ही गुज़रे जमाने की मधुर-तिक्त स्मृतियां और भविष्य के सपनों की अनुगूंज भी शामिल होनी चाहिए।


कुल मिलाकर अभिषेक ने जो लिखा है बहुत अच्छा लिखा है। उनका यह ग़ज़ल संग्रह वर्तमान परिदृश्य में नई संभावनाओं का संकेत देता है। मेरी हार्दिक कामना है कि वे इसी तरह अपनी रचनात्मकता का सफ़र तय करते रहें। मुझे उम्मीद है कि ग़ज़ल की दुनिया में उनके इस नए संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। 


लिटिल वर्ल्ड पब्लिकेशंस नई दिल्ली से प्रकाशित गजल संग्रह का मूल्य 250 रूपये है।


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आपका-

देवमणि पांडेय 

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126

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