जनतंत्र में आम आदमी : तीन गीत
गणतंत्र दिवस के बारे में सोचते हुए कवि सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ की पंक्तियाँ याद आती हैं। उन्होंने लिखा था-क्या आज़ादी तीन थके हुए रंगों का नाम है /जिन्हें एक पहिया ढोता है / या इसका कोई ख़ास मतलब होता है।दुष्यंत कुमार भी कह गए हैं- कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए / कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए किसान शायर रामनाथ सिंह उर्फ़ अदम गोण्डवी ने लिखा- सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है / दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है। सवाल यह है कि हम आज़ादी का जश्न कैसे मनाएं ! मैंने जैसा महसूस किया उसे ही तीन गीतों के माध्यम से आप तक पहुँचा रहा हूँ ।
(1)
हर दिन सूरज उम्मीदों का नया सवेरा लाता है
हर आँगन में दीप ख़ुशी का मगर कहाँ जल पाता है
बरसों बीते फिर भी बस्ती अँधकार में डूबी है
कभी-कभी लगता है जैसे यह आज़ादी झूठी है
आँखों का हर ख़्वाब अचानक अश्कों में ढल जाता है
हर आँगन में दीप ख़ुशी का मगर कहाँ जल पाता है
हाथ बँधे है अब नेकी के सच के मुँह पर ताला है
मक्कारों का डंका बजता चारों तरफ़ घोटाला है
खरा दुखी है खोटा लेकिन हर सिक्का चल जाता है
हर आँगन में दीप ख़ुशी का मगर कहाँ जल पाता है
देश की ख़ुशहाली में शामिल आख़िर ख़ून सभी का है
मगर है लाठी हाथ में जिसके हर क़ानून उसी का है
वही करें मंजूर सभी जो ताक़तवर फरमाता है
हर आँगन में दीप ख़ुशी का मगर कहाँ जल पाता है
(2)
रोज़ सुबह उगता है सूरज शाम ढले छुप जाता है
हर इक घर में चूल्हा लेकिन रोज़ कहाँ जल पाता है
दर-दर ठोकर खाए जवानी कोई काम नहीं मिलता
आज भी मेहनत-मज़दूरी का पूरा दाम नहीं मिलता
कौन हवस का मारा है जो हक़ सबका खा जाता है
हर इक घर में चूल्हा लेकिन रोज़ कहाँ जल पाता है
क्या बतलाएं स्वप्न सुहाने जैसे कोई लूट गया
मँहगाई के बोझ से दबकर हर इक इन्सां टूट गया
रोज़ ग़रीबी-बदहाली का साया बढ़ता जाता है
हर इक घर में चूल्हा लेकिन रोज़ कहाँ जल पाता है
किसे पता कब देश में अपने ऐसा भी दिन आएगा
काम मिलेगा जब हाथों को हर चेहरा मुस्काएगा
आज तो ये आलम है बचपन भूखा ही सो जाता है
हर इक घर में चूल्हा लेकिन रोज़ कहाँ जल पाता है
(3)
दुनिया बदली मगर अभी तक बैठे हैं अँधियारों में
जाने कब सूरज आएगा बस्ती के गलियारों में
हर ऊँची दहलीज़ के भीतर छुपा हुआ है धन काला
घूम रहे बेख़ौफ़ सभी वो करते हैं जो घोटाला
कर्णधार समझे हम जिनको शामिल हैं बटमारों में
जाने कब सूरज आएगा बस्ती के गलियारों में
जो सच्चे हैं वो चुनाव में टिकट तलक न पाते हैं
मगर इलेक्शन जीत के झूठे मंत्री तक बन जाते हैं
जिन पर हमको नाज़ था वो भी खड़े हुए लाचारों में
जाने कब सूरज आएगा बस्ती के गलियारों में
जिनके मन काले हैं उनके तन पर है उजली खादी
भ्रष्टाचार में डूब गए जो बोल रहे हैं जय गाँधी
ऐसे ही चेहरे दिखते हैं रोज सुबह अख़बारों में
जाने कब सूरज आएगा बस्ती के गलियारों में
आपका-
देवमणिपांडेय
सम्पर्क
: बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या
पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड,
गोरेगांव
पूर्व, मुम्बई-400063, 98210-82126
3 टिप्पणियां:
nice
देवमणि जी तीनो ही रचनाएँ बेजोड़ हैं...आपकी लेखनी का जवाब नहीं...बहुत ज्वलंत प्रश्न उठाये हैं आपने....लेकिन उत्तर कहाँ खोजें?
नीरज
बहुत ही अच्छी रचनायें जीवन के यथार्थ को उजागर करती हुईं..बधाई उम्दा रचना के लिए!
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