देवमणि पांडेय की ग़ज़ल
वक़्त के साँचे में ढलकर हम लचीले हो गए
रफ़्ता-रफ़्ता ज़िंदगी के पेंच ढीले हो गए
इस तरक़्क़ी से भला क्या फ़ायदा हमको हुआ
प्यास तो कुछ बुझ न पाई होंठ गीले हो गए
जी हुज़ूरी की सभी को इस क़दर आदत पड़ी
जो थे परबत कल तलक वो आज टीले हो गए
क्या हुआ क्यूँ घर किसी का आ गया फुटपाथ पर
शायद उनकी लाडली के
हाथ पीले हो गए
आपके बर्ताव में थी सादगी पहले बहुत
जब ज़रा शोहरत मिली तेवर नुकीले हो गए
हक़ बयानी की हमें क़ीमत अदा करनी पड़ी
हमने जब सच कह दिया वो लाल-पीले हो गए
हो मुख़ालिफ़ वक़्त तो मिट जाता है नामो-निशां
इक महाभारत में गुम कितने क़बीले हो गए
सम्पर्क : : 98210-8212
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें