मंगलवार, 15 जून 2010

मौसम की पहली बारिश : देवमणि पांडेय


मौसम की पहली बारिश
कल सुबह मुम्बई में मौसम की पहली बारिश हुई। रात में ही बारिश की पाजेब से छम-छम की आवाज़ें आनी शुरु हो गईं थीं। आज सुबह खिड़की से बाहर झाँका तो इमारतों के धुले हुए चेहरे बहुत सुंदर लग रहे थे। मेरे परिसर के पेड़ों पर जमी हुई धूल और धुँए की परत साफ़ हो गई है। तन पर हरियाली की शाल ओढ़े हुए वे मस्ती में झूम रहे हैं । हवाओं को छूने के लिए मचल रहे हैं । दो-तीन फीट पानी में डूबी हुई सड़क के सीने पर तेज़ रफ़्तार में झरना बह रहा है। सामने की खिड़कियों में फूल जैसे चेहरे मुस्करा रहे हैं। पानी को चीरकर आगे बढ़ती हुईं गाड़ियाँ मन में उल्लास जगा रहीं हैं। घर से बाहर क़दम रखा तो दिखाई पड़ा कि कॉलोनी के पार्क में गुलमोहर के पेड़ों के नीचे सुर्ख़ फूलों की चादर बिछी हुई है। परवीन शाकिर का शेर याद आ गया-

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए
मौसम के हाथ भीगकर शफ्फ़ाक हो गए


अगर आपका रिश्ता गाँव से है और आपने बरसात की रातों में जुगनुओं की बारातें देखीं हैं तो आपको इस ग़ज़ल का दूसरा शेर भी याद आ सकता है-

जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए


अपना लिखा हुआ एक गीत याद आ रहा है- ‘मौसम की पहली बारिश’। मित्र नीरज गोस्वामी ने बहुत कलात्मक तरीके से इसे अपने ब्लॉग पर परोसा है। साहित्य शिल्पी और हिंदी मीडिया जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं ने भी शानदार तरीके से इसे अपने पाठकों तक पहुँचाया। आइए हम आप भी मिलकर इसे गुनगुनाएं।


मौसम की पहली बारिश


छ्म छम छम दहलीज़ पे आई मौसम की पहली बारिश
गूंज उठी जैसे शहनाई मौसम की पहली बारिश

वर्षा का आंचल लहराया
सारी दुनिया चहक उठी
बूंदों ने की सरगोशी तो
सोंधी मिट्टी महक उठी

मस्ती बनकर दिल में छाई मौसम की पहली बारिश

रौनक़ तुझसे बाज़ारों में
चहल पहल है गलियों में
फूलों में मुस्कान है तुझसे
और तबस्सुम कलियों में

झूम रही तुझसे पुरवाई मौसम की पहली बारिश

पेड़-परिन्दें, सड़कें, राही
गर्मी से बेहाल थे कल
सबके ऊपर मेहरबान हैं
आज घटाएं और बादल

राहत की बौछारें लाई मौसम की पहली बारिश

बारिश के पानी में मिलकर
बच्चे नाव चलाते हैं
छत से पानी टपक रहा है
फिर भी सब मुस्काते हैं

हरी भरी सौग़ातें लाई मौसम की पहली बारिश

सरक गया जब रात का घूंघट
चांद अचानक मुस्काया
उस पल हमदम तेरा चेहरा
याद बहुत हमको आया

कसक उठी बनकर तनहाई मौसम की पहली बारिश


आपका-
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 

गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126 

बुधवार, 9 जून 2010

शायर हसन कमाल को जीवंती गौरव सम्मान

जीवंती फाउंडेशन के मुशायरे में (बाएं से) : माया गोविन्द, देवमणि पाण्डेय, अब्दुल अहद साज़,
ज़फ़र गोरखपुरी, हैदर नजमी, सईद राही , नक़्श लायल पुरी और हसन कमाल
नक़्श लायलपुरी की सदारत में मुशायरा

जीवंती फाउंडेशन, मुम्बई ने भवंस कल्चरल सेंटर, अंधेरी के सहयोग से शनिवार 5 जून 2010 को एस.पी.जैन सभागार में शायर हसन कमाल को ‘जीवंती गौरव सम्मान’ से सम्मानित किया। सम्मानस्वरूप वरिष्ठ पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल ने उन्हें प्रशस्तिपत्र और स्मृतिचिन्ह भेंट किया। समारोह संचालक आलोक भट्टाचार्य ने शायर हसन कमाल का ऐसा आला तवारूफ़ कराया कि उसे सुनकर सामईन परेशान और शायर पशेमान हो गया। जवाबी कार्रवाई हुए शायर हसन कमाल ने कहा- एक पल को मुझे लगा कि कहीं मैं अल्लाह को प्यारा तो नहीं हो गया…क्योंकि ज़िंदा आदमी की इतनी तारीफ़ तो कोई नहीं करता। बहरहाल इतना बता दें कि साप्ताहिक उर्दू ब्लिट्ज़ के पूर्व सम्पादक होने के साथ ही शायर हसन कमाल इन दिनों उर्दू दैनिक ‘सहाफत’ के सम्पादक हैं। ग़ालिब अवार्ड से सम्मानित लखनऊ के मूल निवासी इस शायर ने कई फ़िल्मों के गीत भी लिखे जिनमें ‘निकाह’, ‘तवायफ़’, ‘आज की आवाज़’ आदि फ़िल्मों के गीत काफ़ी लोकप्रिय हुए। बी.आर.चोपड़ा के कई धारावाहिकों की पटकथा में भी उनका अच्छा योगदान रहा।

संस्था अध्यक्ष श्रीमती माया गोविंद के स्वागत वक्तव्य के बाद वरिष्ठ शायर नक़्श लायलपुरी की सदारत में मुशायरा का आयोजन हुआ। मुशायरे का आग़ाज़ करने आए शायर सईद राही ने असरदार तरन्नुम में ग़ज़ल सुनाकर रंग जमाया-

अब कहाँ ख़त का आना जाना है 
ये तो आवाज़ का ज़माना है
लोग उड़ते हैं आसमानों में 

घर पे होना तो इक बहाना है

सूफ़ियाना अलबम रूबरू से चर्चित हुए युवा शायर हैदर नजमी ने भी तरन्नुम में ग़ज़ल पढ़कर दाद वसूल की-

कभी यूँ भी मेरे क़रीब आ मेरा इश्क़ मुझको ख़ुदा लगे
मेरी रूह में तू उतर ज़रा कि मुझे कुछ अपना पता लगे
न तू फूल है न तू चाँद है न तू रंग है न तू आईना
तुझे कैसे कोई मैं नाम दूँ तू ज़माने भर से जुदा लगे


जीवंती गौरव सम्मान में-(बाएं से दाएं) : अब्दुल अहद साज़, राम गोविन्द, माया गोविन्द, ज़फ़र गोरखपुरी, हसन कमाल, नंदकिशोर नौटियाल, नक़्श लायलपुरी, देवमणि पाण्डेय और सईद राही
शायर देवमणि पांडेय ने अपने ख़ास अंदाज़ में ग़ज़ल सुनाई जो सामईन को काफ़ी को पसंद आई-

इश्क़ जब करिए किसी से दिल में ये जज़्बा भी हो
लाख हों रुसवाइयाँ पर आशिक़ी बाक़ी रहे
दिल में मेरे पल रही है यह तमन्ना आज भी
इक समंदर पी चुकूँ और तिश्नगी बाक़ी रहे


मुशायरे के नाज़िम अब्दुल अहद साज़ ने रोमांटिक ग़ज़ल सुनाकर मोहब्बत की ख़ुशबू बिखेरी-

इस तरह जाए न मुझसे रूठकर कहना उसे
घेर लेगी राह में मेरी नज़र कहना उसे
मैं हूँ उसके ग़म की दुनिया वो मेरी दुनिया का ग़म
जी न पाएगा वो मुझको छोड़कर कहना उसे


कई फ़िल्मों और धारावाहिकों के पटकथा-संवाद लेखन से जुड़े वरिष्ठ फ़िल्म लेखक राम गोविंद यहाँ शायर राम अतहर के रूप में सामने आए और कामयाब हुए-

कारनामे दूसरे के सर रहे / हम तो यारो नींव के पत्थर रहे
हम लिखा लाए परिंदों का नसीब / उम्र भर घर में रहे बेघर रहे


मुहावरे की भाषा में कहें तो वरिष्ठ शायर ज़फ़र गोरखपुरी ने अपनी बेहतरीन शायरी से मुशायरा लूट लिया। उनकी ग़ज़ल का तेवर देखिए-

मर के जी उट्ठूँ किसी दिन सनसनी तारी करूँ
तेरी आँखों के हवाले से ख़बर जारी करूँ
वो कभी मिल जाए मुझको अपनी साँसों के क़रीब
होंठ भी हिलने न दूँ और गुफ़्तगू सारी करूँ

और इस शेर पर तो हंगामा बरपा हो गया-

इत्तिफ़ाकन बेवक़ूफ़ों के क़बीले में ज़फ़र
मैं ही एक चालाक हूँ फिर क्यों न सरदारी करूँ


श्रीमती माया गोविंद ने तरन्नुम में वो ग़ज़ल पढ़ी जो उन्होंने सोलह साल की उम्र में लाल क़िले पर सुनाई थी। श्रोताओं की फ़रमाइश पर ब्रजभाषा के कुछ रसीले छंद सुनाकर उन्होंने अपना असली रंग जमा दिया। शायर हसन कमाल ने अपनी एक चर्चित नज़्म सुनाई- ‘गर हो सके तो प्यार के दो बोल भेज दो / मुमकिन होअगर हो गाँव का माहौल भेज दो’। फिर उन्होंने अपनी एक लोकप्रिय ग़ज़ल सुनाकर समाँ बाँध दिया-

कल ख़्वाब में देखा सखी मैंने पिया का गाँव रे
काँटा वहाँ का फूल था और धूप जैसे छाँव रे
सबसे सरल भाषा वही सबसे मधुर बोली वही
बोलें जो नैना बावरे समझें जो सैंया सांवरे

सद्रे मुशायरा नक़्श लायलपुरी अपने धीमे लहजे में शेर सुनाकर सामईन के दिल में उतर गए-

चुभें आँख़ों में भी और रुह में भी दर्द की किरचें
मेरा दिल इस तरह तोड़ो के आईना बधाई दे
खनक उट्ठें न पलकों पर कहीं जलते हुए आँसू
तुम इतना याद मत आओ कि सन्नाटा दुहाई दे


और इस शेर ने तो सबको भिगो दिया-

रहेगा बन के बीनाई वो मुरझाई सी आँख़ों में
जो बूढ़े बाप के हाथों में मेहनत की कमाई दे


मुम्बई का भवंस कल्चरल सेंटर एक ऐसा मर्कज़ है जहाँ मुशायरा सुनने के लिए बा-ज़ौक़ सामईन तशरीफ़ लाते हैं। इस मुशायरे में भी वरिष्ठ फ़िल्म एवं नाट्य लेखक जावेद सिद्दीक़ी, वरिष्ठ रंगकर्मी ललित शाह, शास्त्रीय गायिका सोमा घोष, ग़ज़ल गायिका सीमा सहगल, संगीतज्ञ ललित वर्मा, अभिनेता राजेंद्र गुप्ता, अभिनेता विष्णु शर्मा, कवि डॉ.बोधिसत्व, कवि कुमार शैलेंद्र, शायर हस्तीमल हस्ती, शायर खन्ना मुजफ़्फ़रपुरी, शायरा देवी नागरानी , कवयित्री आभा बोधिसत्व, कथाकार संतोष श्रीवास्तव, प्रमिला वर्मा, सम्पादक राजम नटराजन पिल्लै, सम्पादक अनंत कुमार साहू, हिंदी सेवी डॉ.रत्ना झा और सरोजिनी जैन आदि मौजूद थे। अंत में व्यंग्यकार अनंत श्रीमाली ने आभार व्यक्त किया।



आपका-
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126 

मंगलवार, 8 जून 2010

मेरा यकी़न हौसला : देवमणि पांडेय की ग़ज़ल


देवमणि पांडेय की ग़ज़ल

मेरा यकी़न,हौसला,किरदार देखकर
मंज़िल क़रीब आ गई,रफ़्तार देखकर

जब फ़ासले हुए हैं तो रोई है माँ बहुत
बेटों के दिल के दरमियां दीवार देखकर

हर इक ख़बर का जिस्म लहू में है तरबतर
मैं डर गया हूँ आज का अख़बार देखकर

बरसों के बाद ख़त्म हुआ बेघरी का दर्द
दिल खु़श हुआ है दोस्तो! घरबार देखकर                           

दरिया तो चाहता था कि सबकी बुझादे प्यास
घबरा गया वो इतने तलबगार देखकर

वो कौन था जो शाम को रस्ते में मिल गया
वो दे गया है रतजगा इक बार देखकर

चेहरे से आपके भी झलकने लगा है इश्क़
जी ख़ुश हुआ है आपको बीमार देखकर

कवि देवमणि पाण्डेय का सम्मान करते हुए कवयित्री माया गोविंद
आपका-
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126 

मंगलवार, 1 जून 2010

कथाकार आबिद सुरती उर्फ़ ढब्बूजी पचहत्तर के हुए

देवमणि पाण्डेय, आर.के.पालीवाल, आबिद सुरती, दिनकर जोशी, साजिद रशीद, प्रतिमा जोशी, सुधा अरोड़ा


आबिद सुरती का सम्मान समारोह 

नमक-काली मिर्च जैसे खिचड़ी बाल, बेतरतीब दाढ़ी, आदिदास या नाइकी छाप एक 'हेप' टीशर्ट या टॉप, कमर पर कसी चौड़ी बेल्ट में अटका सनग्लास का वॉलेट, घिसी फेडेड जीन्स और एक खूबसूरत सा झोला लिए पीठ बिल्कुल सीधी रखकर अठारह साल के लड़के के अंदाज़ में झूमता हुआ चलता सत्तर पार का एक लहीम सहीम, कोई हरफनमौला शख्स नज़र आ जाए तो समझ लें कि वह आबिद सुरती है जिनके भीतर का ढब्बू जी हमेशा उनके साथ साथ इतराता चलता है। आबिदजी का यह हुलिया बयान किया कथाकर सुधा अरोड़ा ने। आबिद सुरती के 75 वें जन्म दिन के अवसर पर आबिद सुरती का सम्मान समारोह और उन्हीं पर केंद्रित शब्दयोग के विशेषांक का लोकार्पण हिन्दुस्तानी प्रचार सभा मुम्बई के सभागार में 28 मई 2010 को आयोजित हुआ। इस अवसर पर समाज सेवी संस्था ‘योगदान’ के सचिव आर.के.अग्रवाल ने आबिद सुरती की पानी बचाओ मुहिम के लिये दस हजार रुपये का चेक भेंट किया। सम्मान स्वरूप उन्हें शाल और श्रीफल के बजाय उनके व्यक्तित्व के अनुरूप कैपरीन (बरमूडा) और रंगीन टी शर्ट भेंट किया गया। आबिद ने पूछा- इसे पहनाएगा कौन ? तो श्रोता मुक्त भाव से हँस पड़े। संचालक देवमणि पांडेय ने जवाब दिया- बच्चे बड़े हो जाते हैं तो अपने कपड़े ख़ुद पहनते हैं ! सभागार में ठहाका फूट पड़ा।

कार्यक्रम की शुरुआत में आर.के.पालीवाल की आबिद सुरती पर लिखी लम्बी कविता ‘आबिद और मैं’ का पाठ फिल्म अभिनेत्री एडीना वाडीवाला ने किया। बीस-बाईस साल की दिखने वाली इस अभिनेत्री ने जब 75 साल के आबिद को ‘आबिद भाई’ कहकर सम्बोधित किया तो श्रोताओं में हँसी फूट पड़ी। एडीना की टूटी-फूटी हिंदी में ऐसी मासूमियत घुली थी कि सुनने वालों को काफ़ी मज़ा आया। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी की एक चर्चित रचना ‘मैं, आबिद और ब्लैक आउट’ का पाठ उनकी सुपुत्री एवं सुपरिचित अभिनेत्री नेहा शरद ने स्वर्गीय शरद जोशी के अंदाज़ में प्रस्तुत करके हास्य-व्यंग्य का अदभुत महौल रच दिया।


आर.के.पालीवाल और आबिद सुरती

संचालक देवमणि पांडेय ने आबिद सुरती को घुमक्कड़, फक्कड़ और हरफ़नमौला रचनाकार बताते हुए निदा फ़ाज़ली के एक शेर के हवाले से उनकी शख़्सियत को रेखांकित किया-

हर आदमी मे होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना


समाज सेवी संस्था ‘योगदान’ की त्रैमासिक पत्रिका शब्दयोग के इस विषेशांक का परिचय कराते हुए इस अंक के संयोजक प्रतिष्ठित कथाकार आर. के. पालीवाल ने कहा कि आबिद सुरती बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। कथाकार और व्यंग्यकार होने के साथ ही उन्होंने कार्टून विधा में महारत हासिल की है, पेंटिंग मे नाम कमाया है, फिल्म लेखन किया है और ग़ज़ल विधा में भी हाथ आजमाये हैं। ‘धर्मयुग’ जैसी कालजयी पत्रिका में 30 साल तक लगातार ‘कार्टून कोना ढब्बूजी’ पेश करके रिकार्ड बनाया है। इसीलिये इस अंक का संयोजन करने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ी है क्योंकि आबिद सुरती को समग्रता मे प्रस्तुत करने के लिये उनके सभी पक्षों का समायोजन करना ज़रूरी था।

आबिद सुरती से सवाल पूछते हुए वरिष्ठ गुजराती साहित्यकार दिनकर जोशी

हिंदी साहित्यकार श्रीमती सुधा अरोड़ा ने आबिद सुरती से जुड़े कुछ रोचक संस्मरण सुनाये। उन्होंने ‘हंस’ में छपी आबिद जी की चर्चित एवम् विवादास्पद कहानी ‘कोरा कैनवास’ की आलोचना करते हुए कहा कि आबिद जैसी नेक शख़्सियत से ऐसी घटिया कहानी की उम्मीद नही थी। उर्दू साहित्यकार साजिद रशीद और मराठी साहित्यकार श्रीमती प्रतिमा जोशी ने भी आबिद जी की शख़्सियत पर प्रकाश डाला। वरिष्ठ गुजराती साहित्यकार दिनकर जोशी ने आबिद सुरती के साथ बिताये लम्बे साहित्य सहवास को याद करते हुए कहा कि आबिद पिछले कई सालों से अपने निराले अंदाज में लेखन मे सक्रिय हैं। यही उनके स्वास्थ्य एवम बच्चों जैसी चंचलता और सक्रियता का भी राज़ है।
श्रोताओं के प्रश्नों का उत्तर देते हुए आबिद सुरती


श्रोताओं के प्रश्नों का उत्तर देते हुए आबिद सुरती ने कहा कि मेरे सामने हमेशा एक सवाल रहता है कि मुझे पढ़ने के बाद पाठक क्या हासिल करेंगे। इसलिए मैं संदेश और उपदेश नहीं देता। आजकल मैं केवल प्रकाशक के लिए किताब नहीं लिखता और महज बेचने के लिए चित्र नहीं बनाता। मेरी पेंटिंग और मेरा लेखन मेरे आत्मसंतोष के लिए है। भविष्य में जो लिखूंगा अपनी प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) के साथ लिखूंगा। श्रोताओं की फरमाइश पर आबिद जी ने अपनी एक ग़ज़ल का पाठ किया-

साथ तेरे है वक़्त भी तो ग़म नहीं
दिन कभी तो रात मेरी जेब में है
है न रोटी दो वक़्त की आबिद मगर
जहां सारा आज तेरी जेब में है


सुनकर सभागार में सन्नाटा छा गया। न कोई वाह हुई और न कोई आह हुई। इस सन्नाटे को तोड़ते हुए संचालक देवमणि पांडेय ने कहा कि आबिद जी की ग़ज़ल सुनकर मुनव्वर राना का शेर याद आ गया –

ग़ज़ल तो फूल से बच्चों की मीठी मुस्कराहट है
ग़ज़ल के साथ इतनी रुस्तमी अच्छी नहीं होती


और सन्नाटा ठहाकों की गूँज में खो गया।
इस आयोजन में आबिद सुरती के बहुत से पाठकों एवम् प्रशंसकों के साथ मुंबई के साहित्य जगत से कथाकार ऊषा भटनागर, कथाकार कमलेश बख्शी, कथाकार सूरज प्रकाश , कवि ह्रदयेश मयंक, कवि रमेश यादव, कवि बसंत आर्य, हिंदी सेवी जितेंद्र जैन (जर्मनी), डॉ.रत्ना झा, ए.एम.अत्तार और चित्रकार जैन कमल मौजूद थे। प्रदीप पंडित (संपादक: शुक्रवार), डॉ. सुशील गुप्ता (संपादक: हिंदुस्तानी ज़बान), मनहर चौहान (संपादक: दमख़म), डॉ. राजम नटराजन पिल्लै (संपादक: क़ुतुबनुमा), दिव्या जैन (संपादक: अंतरंग संगिनी), मीनू जैन (सह संपादक: डिग्निटी डाइजेस्ट) ने भी अपनी उपस्थिति से कार्यक्रम की गरिमा बढ़ाई ।


आपका-

देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126 

शुक्रवार, 21 मई 2010

मेरी पहचान है शेर ओ सुख़न से : नक्श लायलपुरी


कवि देवमणि पाण्डेय ,समाजसेवी रामनारायण सराफ, शायर निदा फ़ाज़ली और शायर नक़्श लायलपुरी (मुम्बई 2005)

नक़्श से मिलके तुमको चलेगा पता

नक्श लायलपुरी की शायरी में ज़बान की मिठास, एहसास की शिद्दत और इज़हार का दिलकश अंदाज़ मिलता है । उनकी ग़ज़ल का चेहरा दर्द के शोले में लिपटे हुए शबनमी एहसास की लज़्ज़त से तरबतर है। शायरी के इस समंदर में एक तरफ़ फ़िक्र की ऊँची-ऊँची लहरें हैं तो दूसरी तरफ़ इंसानी जज़्बात की ऐसी गहराई है जिसमें डूब जाने को मन करता है । नक़्श साहब की शायरी में पंजाब की मिट्टी की महक, लखनऊ की नफ़ासत और मुंबई के समंदर का धीमा-धीमा संगीत है-

मेरी पहचान है शेरो-सुख़न से
मैं अपनी क़द्रो क़ीमत जानता हूं

ज़िंदगी के तजुरबात ने उनके लफ़्ज़ों को निखारा संवारा और शायरी के धागे में इस सलीक़े से पिरो दिया कि उनके शेर ग़ज़ल की आबरु बन गए । फ़िल्मी नग़मों में भी जब उनके लफ़्ज़ गुनगुनाए गए तो उनमें भी अदब बोलता और रस घोलता दिखाई दिया -

· रस्मे-उल्फ़त को निभाएं तो निभाएं कैसे-
· मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूँगा सदा-
· यह मुलाक़ात इक बहाना है-
· उल्फ़त में ज़माने की हर रस्म को ठुकराओ-
· माना तेरी नज़र में तेरा प्यार हम नहीं-
· तुम्हें देखती हूँ तो लगता है ऐसे-
· तुम्हें हो न हो पर मुझे तो यकीं है-
· कई सदियों से,कई जनमों से,तेरे प्यार को तरसे मेरा मन-
· न जाने क्या हुआ,जो तूने छू लिया,खिला गुलाब की तरह मेरा बदन-
· चाँदनी रात में इक बार तुझे देखा है,ख़ुद पे इतराते हुए,ख़ुद से शरमाते हुए-

नक़्श साहब का जन्म 24 फरवरी 1928 को लायलपुर (अब पाकिस्तान का फैसलबाद) में हुआ।उनके वालिद मोहतरम जगन्नाथ ने उनका नाम जसवंत राय तजवीज़ किया।शायर बनने के बाद उन्होंने अपना नाम तब्दील किया।अब उनके अशआर इस क़दर दिलों पर नक़्श हो चुके हैं कि ज़माना उन्हें नक़्श लायलपुरी के नाम से जानता है -

नक़्श से मिलके तुमको चलेगा पता
जुर्म है किस क़दर सादगी दोस्तो

नक़्श लायलपुरी 1947 में जब बेवतन हुए तो लायलपुर से पैदल चलकर हिंदुस्तान आए और लखनऊ को अपना आशियाना बनाया।पान खाने और मुस्कराने की आदत उनको यहीं से मिली।उनकी शख़्सियत में वही नफ़ासत और तहज़ीब है जो लखनऊ वालों में होती है।लखनऊ की अदा और तबस्सुम उनकी इल्मी और फ़िल्मी शायरी में मौजूद है-

कई बार चाँद चमके तेरी नर्म आहटों के
कई बार जगमगाए दरो-बाम बेख़ुदी में

नक़्श लायलपुरी 1951 में रोज़गार की तलाश में मुम्बई आए और यहीं के होकर रह गए।लाहौर में तरक़्क़ीपसंद तहरीक का जो जज़्बा पैदा हुआ था उसे मुम्बई में एक माहौल मिला-

हमने क्या पा लिया हिंदू या मुसलमां होकर
क्यों न इंसां से मुहब्बत करें इंसां होकर

सिने जगत ने उन्हें बेशक़ दौलत,शोहरत और इज़्ज़त दी मगर उनकी सादगी को यहाँ की चमक-दमक और रंगीनियां रास नहीं आईं-

ये अंजुमन,ये क़हक़हे,ये महवशों की भीड़
फिर भी उदास,फिर भी अकेली है ज़िंदगी


फ़िल्म राइटर्स एसोसिएसन,मुम्बई के मुशायरे में स्व.गणेश बिहारी तर्ज़,
 क़मर जलालाबादी, शायर नक़्श लायलपुरी और कवि देवमणि पाण्डेय (1999)


छात्र जीवन में हम कुछ दोस्त अक्सर फ़िल्म ‘चेतना’ का यह गीत मिलकर गाया करते थे- ‘मैं तो हर मोड़ पर / तुझको दूँगा सदा / मेरी आवाज़ को / दर्द के साज़ को / तू सुने ना सुने ! तब मैंने कहा था- अगर मैं कभी मुम्बई गया तो इसके गीतकार से ज़रूर मिलूँगा। एक मुशायरे में मैंने नक़्श साहब की सदारत में कविता पाठ किया।उन्होंने बताया- पाँच टुकड़े में बंटी हुई इस धुन पर गीत लिखने में उन्हें सिर्फ़ 10 मिनट लगे थ। वे मुझे फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन में लाए। उम्र के फ़ासले को भूलकर हमेशा दोस्ताना लहजे में बात की। उनका मन बच्चे की तरह निर्मल और शख़्सियत आइने की तरह साफ़ है। 22 अप्रैल 2004 को अपना काव्यसंकलन ‘तेरी गली की तरफ़’ भेंट करते हुए उन्होंने कहा- अगले महीने मेरे एक दोस्त इस किताब का रिलीज़ फंकशन आयोजित कर रहे हैं। अगले महीने उनके दोस्त गुज़र गए।‘तेरी गली की तरफ़’ का लोकार्पण आज तक नहीं हुआ।


नक़्श लायलपुरी की ग़ज़लें


(1)
कोई झंकार है, नग़मा है, सदा है क्या है ?
तू किरन है, के कली है, के सबा है, क्या है ?

तेरी आँख़ों में कई रंग झलकते देख़े
सादगी है, के झिझक है, के हया है, क्या है ?

रुह की प्यास बुझा दी है तेरी क़ुरबत ने
तू कोई झील है, झरना है, घटा है, क्या है ?

नाम होटों पे तेरा आए तो राहत सी मिले
तू तसल्ली है, दिलासा है, दुआ है, क्या है ?

होश में लाके मेरे होश उड़ाने वाले
ये तेरा नाज़ है, शोख़ी है, अदा है, क्या है ?

दिल ख़तावार, नज़र पारसा, तस्वीरे अना
वो बशर है, के फ़रिश्ता है, के ख़ुदा है, क्या है ?

बन गई नक़्श जो सुर्ख़ी तेरे अफ़साने की
वो शफ़क है, के धनक है, के हिना है, क्या है ?

(2)
जब दर्द मुहब्बत का मेरे पास नहीं था
मैं कौन हूँ, क्या हूँ, मुझे एहसास नहीं था

टूटा मेरा हर ख़्वाब, हुआ जबसे जुदा वो
इतना तो कभी दिल मेरा बेआस नहीं था

आया जो मेरे पास मेरे होंट भिगोने
वो रेत का दरिया था, मेरी प्यास नहीं था

बैठा हूँ मैं तनहाई को सीने से लगा के
इस हाल में जीना तो मुझे रास नहीं था

कब जान सका दर्द मेरा देखने वाला
चेहरा मेरे हालात का अक्कास नहीं था

क्यों ज़हर बना उसका तबस्सुम मेरे ह़क में
ऐ ‘नक़्श’ वो इक दोस्त था अलमास नहीं था

(3)
मैं दुनिया की हक़ीकत जानता हूँ
किसे मिलती है शोहरत जानता हूँ

मेरी पहचान है शेरो सुख़न से
मैं अपनी कद्रो क़ीमत जानता हूँ

तेरी यादें हैं , शब बेदारियाँ हैं
है आँखों को शिकायत जानता हूं

मैं रुसवा हो गया हूँ शहर भर में
मगर ! किसकी बदौलत जानता हूँ

ग़ज़ल फ़ूलों सी, दिल सेहराओं जैसा
मैं अहले फ़न की हालत जानता हूँ

तड़प कर और तड़पाएगी मुझको
शबे-ग़म तेरी फ़ितरत जानता हूँ

सहर होने को है ऐसा लगे है
मैं सूरज की सियासत जानता हूँ

दिया है ‘नक़्श’ जो ग़म ज़िंदगी ने
उसे मै अपनी दौलत जानता हूँ

(4)
पलट कर देख़ लेना जब सदा दिल की सुनाई दे
मेरी आवाज़ में शायद मेरा चेहरा दिख़ाई दे

मुहब्बत रौशनी का एक लमहा है मगर चुप है
किसे शमए- तमन्ना दे किसे दाग़े जुदाई दे

चुभें आँख़ों में भी और रुह में भी दर्द की किरचें
मेरा दिल इस तरह तोड़ो के आईना बधाई दे

खनक उठें न पलकों पर कहीं जलते हुए आँसू
तुम इतना याद मत आओ के सन्नाटा दुहाई दे

रहेगा बन के बीनाई वो मुरझाई सी आँख़ों में
जो बूढ़े बाप के हाथों में मेहनत की कमाई दे

मेरे दामन को बुसअत दी है तूने दश्तो दरिया की
मैं ख़ुश हूँ देने वाले, तू मुझे कतरा के राई दे

किसी को मख़मलीं बिस्तर पे भी मुश्किल से नींद आए
किसी को नक़्श दिल का चैन टूटी चारपाई दे
(5)एक आँसू गिरा सोचते सोचते
याद क्या आ गया सोचते सोचते

कौन था, क्या था वो, याद आता नहीं
याद आ जाएगा सोचते सोचते

जैसे तसवीर लटकी हो दीवार से
हाल ये हो गया सोचते सोचते

सोचने के लिए कोई रस्ता नहीं
मैं कहाँ आ गया सोचते सोचते
3
मैं भी रसमन तअल्लुक़ निभाता रहा
वो भी अक्सर मिला सोचते सोचते

फ़ैसले के लिए एक पल था बहुत
एक मौसम गया सोचते सोचते

‘नक़्श’ को फ़िक्र रातें जगाती रहीं
आज वो सो गया सोचते सोचते



आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126 

बुधवार, 12 मई 2010

तुमको देखा तो ये ख़याल आया : जावेद अख़्तर


हमको ज़हीन लोग हमेशा अज़ीज़ थे : जावेद अख़्तर 

जब इंसान की शोहरत की बुलंदियों को छूने लगती है तब उसके बारे में कई क़िस्से कहानियां चल पड़ते हैं। एक रियल्टी शो में शायर जावेद अख़्तर से सवाल पूछा गया- क्या आप और शबाना आज़मी में कभी लड़ाई-झगड़ा भी होता है ? जावेद बोले - दरअसल हमारे पास झगड़े के लिए वक़्त ही नहीं हैं। महीने में 20 दिन शबाना बाहर रहती हैं। महीने में 10 दिन मैं बाहर रहता हूँ। संयोगवश कभी कभार एयरपोर्ट पर आमना सामना हो जाता है तो हलो-हाय कर लेते हैं। जब साथ होंगे ही नहीं तो झगड़े कब होंगे।

ख़ुश शक्ल भी है वो ये अलग बात है मगर
हमको ज़हीन लोग हमेशा अज़ीज़ थे

मुंबई के पांच सितारा होटल सहारा स्टार में मुनव्वर राना की किताब 'नए मौसम के फूल' का लोकार्पण सहारा समय के न्यूज डायरेक्टर उपेंद्र राय ने आयोजित किया था। संचालन की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गई थी। समारोह में भरोसा न्यास इंदौर के संयोजक अरविंद मंडलोई मौजूद थे। उन्होंने मुझसे निवेदन किया कि इंदौर में चार केंद्रीय मंत्रियों की मौजूदगी में जावेद अख़्तर को भरोसा अवार्ड से नवाज़ा जाएगा। आप इस कार्यक्रम का संचालन कर दीजिए।

जावेद अख़्तर को भरोसा आवार्ड


इंदौर के शांतिमंडप में बड़े घराने की शादियां सम्पन्न होती हैं। 11 फरवरी 2010 को दोपहर 12 बजे वहां सचमुच शादी जैसा माहौल था। चाट, चायनीज़, और इटालियन पास्ता से लेकर रजवाड़ी भोजन तक के स्टाल सजे हुए थे। जावेद अख़्तर की रचनात्मक उपलब्धियों पर केंद्रित पुस्तक ‘जैसे जलता दिया’ का यह लोकार्पण समारोह था। बतौर संचालक मैंने माइक संभाला। मंच पर बैठे राजनेता बलराम जाखड़, जस्टिस जे.एस .वर्मा, शायर मुनव्वर राणा, संस्थाध्याक्ष शरद डोशी और सत्कार मूर्ति जावेद अख़्तर मंडप की रंगीनियां और ख़ुशलिबास भीड़ देखकर मुस्करा कर रहे थे। यह पता लगाना मुश्किल था कि सामने जो लोग बरातियों की तरह सजधज कर आए हैं उन्हें शायरी से ्मुहब्बत है या स्वादिस्ट व्यंजनों से लगाव है। मौक़े की नज़ाकत देखते हुए मैंने भूमिका बांधी। इस वक़्त मुंबई में गगनचुम्बी इमारतें बन रही हैं। हम इस ऊँचाई पर गर्व कर सकते हैं। मगर ऐसी चीजों के साइड इफेक्ट भी होते हैं। इस मौज़ू पर बीस साल पहले ही जावेद अख़्तर ने एक शेर कहकर हमें आगाह कर दिया था -

ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गये

यह शेर सुनकर लोगों ने तालियां बजाईं। शाम को अभय प्रशाल स्टेडियम में लगभग दस हज़ार लोगों की भीड़ थी। मैंने फिर भूमिका बांधी कि कैसे एक शायर अपने समय से आगे होता है और इंदौर शहर के भौतिक विकास का ज़िक्र करते हुए मैंने जावेद अख़्तर का एक शेर कोट कर दिया -

इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं
होठों पे लतीफे हैं, आवाज़ में छाले हैं

तालियां बज गईं। मंच पर पद्मश्री गोपलदास नीरज और पदमश्री बेकल उत्साही के साथ ही चार केंद्रीय मंत्री भी मौजूद थे- बलराम जाखड़, फ़ारूक़ अब्दुल्ला, सलमान ख़ुर्शीद और श्रीप्रकाश जायसवाल। जावेद अख़्तर को एक लाख रुपये के भरोसा आवार्ड से सम्मानित किया गया। जावेद अख़्तर ने ‘ये वक़्त क्या है’ नज़्म सुनाकर श्रोताओं से भरपूर दाद वसूल की।

दर्द के फूल खिलते हैं बिखर जाते हैं
ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं

जावेद अख़्तर के टाक शो में तसलीमा नसरीन


अगले दिन 12 फरवरी 2010 को इंदौर के रवींद्र नाट्यगृह में एक टॉक शो का आयोजन था। जावेद अख़्तर ने ऐलान कर दिया कि सभागार में मौजूद कोई भी आदमी कोई भी सवाल पूछ सकता है। सफेद कुर्ते-पाज़ामे में सजधज कर आए जावेद तेज़ रोशनी में काफ़ी चमक रहे थे। एक मोटे आदमी ने पहला सवाल किया- आप इतने तरो-ताज़ा कैसे रहते हैं ? सवाल सुनकर लोग हंसने लगे। जावेद ने जवाब दिया- अगर आप मेरी तरह रात में देर से सोएं, सुबह देर से उठें और जो भी अंट-शंट मिले खाएं तो आप भी मेरी तरह तरो-ताज़ा दिखने लगेंगे। ज़ाहिर है फिर से ठहाका लगा।

हमसे दिलचस्प कभी सच्चे नहीं होते हैं
अच्छे लगते हैं मगर अच्छे नहीं होते हैं

एक पत्रकार ने सवाल किया- आपको भी सरकारी सुरक्षा क्यों दी गई थी। जावेद ने बताया- यह सुरक्षा न तो मुझे बाल ठाकरे के कारण मिली थी और न ही राज ठाकरे के कारण। दरअसल यह सुरक्षा मुझे अपने ही मुस्लिम भाइयों के कारण मिली। हुआ यह कि मुंबई के एक मुस्लिम संगठन ने फतवा जारी कर दिया कि अगर तसलीमा नसरीन मुंबई आएंगी तो उनका सर काट दिया जाएगा। यह फतवा पढ़कर मैंने ख़ासतौर से तसलीमा को मुंबई बुलवाया। एक अदबी समारोह में उनका सम्मान और भाषण हुआ। वे सकुशल वापस गईं। हमारे मुस्लिम भाइयों की नाराज़गी को देखते हुए सरकार ने मुझे छ: महीने तक सरकारी सुरक्षा मुहैया कराई।

अपनी वजहे-बरबादी सुनिए तो मज़े की है
ज़िंदगी से यूँ खेले, जैसे दूसरे की है

उर्दू भाषा पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में जावेद अख़्तर ने ज़ोर देकर कहा कि उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है। यह नार्थ इंडिया की भाषा है और इसमें वहां का कल्चर समाया हुआ है। अगर इसे मुसलमानों तक सीमित किया गया तो यह नार्थ इंडिया के कल्चर से महरुम हो जाएगी।

फ़िल्म जगत में साम्प्रदायिकता के सवाल पर जावेद अख़्तर ने कहा कि बॉलीवुड का वर्क कल्चर साम्प्रदायिकता से बहुत ऊपर है। आप एक फ़िल्म में एक गाना देखते हैं तो उसके पीछे गीतकार, संगीतकार और गायक से लेकर कम से कम दस लोगों की मेहनत होती है। हर आदमी इसी भावना से काम करता है कि गीत को कामयाबी मिले। एक ही लक्ष्य होने के कारण दिल में साम्प्रदायिकता की भावना आती ही नहीं। अगर हमारे देश के सारे नेता देश की कामयाबी को ही अपना लक्ष्य बना लें तो हमारे देश से साम्प्रदायिकता ख़त्म हो जाएगी।

समूचे शहर को जामू सुगंध कर दूंगा


मेरे पास जावेद अख़्तर का जो काव्य संकलन ‘तरकश’ है उस पर उनके हस्ताक्षर के नीचे 1-1-1996 तारीख़ है। उस दौरान जावेद को कविता पाठ के लिए काफी जगहों पर बुलाया गया और वे गए। आईडीबीआई बैंक, कफ परेड, मुंबई के एक कवि सम्मेलन में शिरकत करके हम लोग वापस लौट रहे थे। जावेद की कार में मैं और कवि सूर्यभानु गुप्त भी थे। चर्चगेट में इरोस सिनेमा पर फ़िल्म की जो होर्डिंग लगी थी उस पर नीचे लिखा था- दिग्दर्शक जामू सुगंध। जावेद ने कहा- यार ये नाम बहुत अच्छा है। इसके साथ क़ाफ़िया क्या लगेगा ? सूर्यभानु जी बोले- चंद, बंद, छंद चल जाएगा। मसलन- शराफ़त मैं बंद करा दूंगा। जावेद बोल पड़े-

बस आज से ही शराफ़त मैं बंद कर दूंगा
समूचे शहर को जामू सुगंध कर दूंगा

जावेद की मां सफ़िया अख़्तर ने अपनी किताब ‘ज़ेरे-लब’ में ज़िक्र किया है कि जावेद ने 5 साल की उम्र से ही तुकबंदी शुरु कर दी थी। अब तो वे बात बात में अपना यह हुनर दिखा देते हैं। एक दिन मैं उनसे मिलने जुहू उनके घर गया। मिलते ही उन्होंने पूछा- और निदा साहब के क्या हाल हैं! मैंने बताया- रविवार को ‘जनसत्ता सबरंग’ में उनकी एक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है -

कहीं कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है

जावेद अख़्तर ने दूसरा मिसरा सुनाने का मौक़ा मुझे नहीं दिया। झट से दूसरा मिसरा लगा दिया-

ऐसी ग़ज़लें छपवाने में पैसा लगता है

सन् 1996 में अपने काव्य संग्रह 'तरकश' को जावेद अख़्तर ने अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड करके ऑडियो बुक बनवाई। चर्चगेट मुम्बई के एसएनडीटी कॉलेज में उनका कविता पाठ था। उन्होंने हाल के बाहर अपनी किताब के पोस्टर लगवाए। बुक और ऑडियोबुक का स्टाल लगवाया। कविता पाठ के समय कहा- विदेशों में लोग घर का सामान ख़रीदने की लिस्ट बनाते हैं तो उसमें उन किताबों के नाम भी शामिल कर लेते हैं जिन्हें ख़रीदना होता है। मैं चाहता हूं कि हिंदुस्तान में भी राशन की दुकान पर किताबों की बिक्री हो तो बेहतर होगा।

जावेद अख़्तर के फ़िल्मी कैरियर से आप सब भलीभांति वाक़िफ़ हैं। बतौर गीतकार उनकी पहली फ़िल्म थी 'साथ साथ' मगर 'सिलसिला' पहले रिलीज़ हो गई। फ़िल्म साथ साथ  में कुलदीप सिंह का संगीत था। फ़िल्म के सारे गीत पसंद किए गए। "तुमको देखा तो ये ख़याल आया" गीत बहुत मशहूर हुआ। निर्देशक रमन कुमार की फ़िल्म 'साथ साथ' (1985) के समय जावेद हिंदी सिनेमा के स्टार राइटर थे। कुलदीप सिंह नए संगीतकार थे। उन्होंने कुलदीप सिंह का क्लास ले लिया। उन्हें एक नज़्म दी- "ये तेरा घर ये मेरा घर"।  कहा- पापा जी, इसे कम्पोज़ करके लाइए फिर देखता हूं आगे क्या करना है। कुलदीप सिंह की बनाई धुन जावेद को पसंद आई। उन्होंने फ़िल्म के सभी गाने लिखे।

फ़िल्म 'सिलसिला' में शिव हरि का संगीत है। शीर्षक गीत की धुन के अनुसार म्यूज़िक ट्रैक इतना ही था- "देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले"। जावेद अख़्तर ने संगीतकार शिव हरि से म्यूजिक ट्रैक ज़रा सा तब्दील करने की गुज़ारिश की। संगीतकार उनकी बात मान गए तो ये गीत बना-

देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए 
दूर तक निगाह में हैं गुल खिले हुए 

करण जौहर ने फ़िल्म 'कुछ कुछ होता है' के गीत लिखने के लिए जावेद साहब को संपर्क किया। जावेद साहब को फ़िल्म का नाम बहुत बुरा लगा। उन्होंने साफ़-साफ़ लिखने से मना तो नहीं किया लेकिन प्यार से करण को समझाया कि इस समय मैं बहुत व्यस्त हूं। यह फ़िल्म बना लो। आगे फिर कभी साथ में काम करेंगे।

जावेद अख़्तर संगीतकारों के साथ सहयोग बनाए रखते हैं। ऐसे मौक़े कई बार आए हैं जब उन्होंने संगीतकार के कहने पर अपने लिखे गीतों में तब्दीलियां की हैं। फ़िलहाल फ़िल्म जगत का मौसम बदल गया है। अजीब तरह की फ़िल्में बन रही हैं। उनमें अजीब तरह के गीत आ रहे हैं। ऐसे माहौल में अब जावेद अख़्तर जैसे जहीन और हुनरमंद गीतकार की ज़रूरत कभी-कभी ही महसूस की जाती है।

जावेद अख़्तर की शायरी


ग़म होते हैं जहां ज़हानत होती है
दुनिया में हर शय की क़ीमत होती है
अकसर वो कहते हैं वो बस मेरे हैं
अकसर क्यूं कहते हैं हैरत होती है

ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब
सबकी ख़ातिर हैं यहां सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है
जो चाहा था दुनिया में कम होता है
ज़ख़्म तो हमने इन आँखों से देखे हैं
लोगों से सुनते हैं मरहम होता है

जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता
मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता


आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126

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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए : ज़फ़र गोरखपुरी

ज़फ़र गोरखपुरी की ग़ज़लें

शहर के अज़ाब, गांव की मासूमियत और ज़िंदगी की वास्तविकताओं को सशक्त ज़ुबान देने वाले शायर ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे ख़ुशनसीब शायर हैं जिसने फ़िराक़ गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, मजाज़ लखनवी और जिगर मुरादाबादी जैसे शायरों से अपने कलाम के लिए दाद वसूल की है। सिर्फ़ 22 साल की उम्र में उन्होंने मुशायरे में फ़िराक़ साहब के सामने ग़ज़ल पढ़ी थी-

मयक़दा सबका है सब हैं प्यासे यहाँ 
मय बराबर बटे चारसू दोस्तो
चंद लोगों की ख़ातिर जो मख़सूस हों 
तोड़ दो ऐसे जामो-सुबू दोस्तो

इसे सुनकर फ़िराक़ साहब ने सरे-आम ऐलान किया था कि ये नौजवान बड़ा शायर बनेगा। उस दौर में ज़फ़र गोरखपुरी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हुए थे और उनकी शायरी से शोले बरस रहे थे। फ़िराक़ साहब ने उन्हें समझाया- सच्चे फ़नकारों का कोई संगठन नहीं होता। वे किसी संगठन में फिट ही नहीं हो सकते। अब विज्ञान, तकनीक और दर्शन का युग है। इन्हें पढ़ना होगा। शिक्षितों के युग में कबीर नहीं पैदा हो सकता। वाहवाही से बाहर निकलो।

फ़िराक़ साहब की नसीहत का ज़फ़र गोरखपुरी पर गहरा असर हुआ। वे संजीदगी से शायरी में जुट गए। वह वक़्त भी आया जब उर्दू की जदीद शायरी के सबसे बड़े आलोचक पद्मश्री डॉ.शमशुर्रहमान फ़ारूक़ी ने लिखा - ‘ज़फ़र गोरखपुरी की बदौलत उर्दू ग़ज़ल में पिछली कई दहाइयों से एक हलकी ठंडी ताज़ा हवा बह रही है। इसके लिए हमें उनका शुक्रिया और ख़ुदा का शुक्र अदा करना चाहिए।’


ज़फ़र गोरखपुरी बहुमुखी प्रतिभा वाले ऐसे महत्वपूर्ण शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया। उनकी शायरी में विविधरंगी शहरी जीवन के साथ-साथ लोक संस्कृति की महक और गांव के सामाजिक जीवन की मनोरम झांकी है । इसी ताज़गी ने उनकी ग़ज़लों को आम आदमी के बीच लोकप्रिय बनाया । उनकी विविधतापूर्ण शायरी ने एक नई काव्य परम्परा को जन्म दिया । उर्दू के फ्रेम में हिंदी की कविता को उन्होंने बहुत कलात्मक अंदाज में पेश किया।


गायक राजकुमार रिज़वी, कवि देवमणि पाण्डेय और शायर ज़फ़र गोरखपुरी


ज़फ़र गोरखपुरी ने बालसाहित्य के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया। परियों के काल्पनिक और भूत प्रेतों के डरावने संसार से बाहर निकालकर उन्होंने बालसाहित्य को सच्चाई के धरातल पर खड़ा करके उसे जीवंत,मानवीय और वैज्ञानिक बना दिया ।पिछले 40 सालों से उनकी रचनाएं महराष्ट्र के शैक्षिक पाठ्यक्रम में पहली से लेकर बी.ए.तक के कोर्स में पढाई जाती हैं। अपनी रचनात्मक उपलब्धियों के कारण उन्हें अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान और प्रशंसा मिली।

ज़फ़र गोरखपुरी का जन्म गोरखपुर ज़िले की बासगांव तहसील के बेदौली बाबू गांव में 5 मई 1935 को हुआ । प्रारंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त करने के बाद उन्होंने मुंबई को अपना कर्मक्षेत्र बनाया । सन 1952 में उनकी शायरी की शुरुआत हुई। उर्दू में ज़फ़र गोरखपुरी के अब तक पांच संकलन प्रकाशित हो चुके हैं – (1) तेशा (1962), (2) वादिए-संग (1975), (3) गोखरु के फूल (1986), (4) चिराग़े-चश्मे-तर (1987), (5) हलकी ठंडी ताज़ा हवा(2009)। बच्चों के लिए भी उनकी दो किताबें आ चुकी हैं–‘नाच री गुड़िया’ ( कविताएं 1978 ) तथा ‘सच्चाइयां’ (कहानियां 1979)। हिंदी में उनकी ग़ज़लों का संकलन आर-पार का मंज़र (1997) नाम से प्रकाशित हो चुका है।

गुज़िश्ता 50 सालों से ज़फ़र गोरखपुरी की कई रचनाएं महाराष्ट्र सरकार के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल हैं जिन्हें लाखों बच्चे रोज़ाना पढ़ते हैं। रचनात्मक उपलब्धियों के लिए ज़फ़र गोरखपुरी को महाराष्ट्र उर्दू आकादमी का राज्य पुरस्कार (1993 ), इम्तियाज़े मीर अवार्ड (लखनऊ ) और युवा-चेतना गोरखपुर द्वारा फ़िराक़ सम्मान (1996) प्राप्त हो चुका है। उन्होंने 1997 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की और वहां कई अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व किया ।

सम्पर्क : ज़फ़र गोरखपुरी : ए-302, फ्लोरिडा, शास्त्री नगर, अंधेरी (पश्चिम), मुम्बई – 400 053

ज़फ़र गोरखपुरी की ग़ज़लें


(1)
बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूंगा
मै सूरज बनके इक दिन अपनी पेशानी से निकलूंगा

मुझे आंखों में तुम जां के सफ़र की मत इजाज़त दो
अगर उतरा लहू में फिर न आसानी से निकलूंगा

नज़र आ जाऊंगा मैं आंसुओं में जब भी रोओगे
मुझे मिट्टी किया तुमने तो मैं पानी से निकलूंगा

मैं ऐसा ख़ूबसूरत रंग हूँ दीवार का अपनी
अगर निकला तो घरवालों की नादानी से निकलूंगा

ज़मीरे-वक़्त में पैवस्त हूं मैं फांस की सूरत
ज़माना क्या समझता है कि आसानी से निकालूंगा

यही इक शै है जो तनहा कभी होने नहीं देती
ज़फ़र मर जाऊंगा जिस दिन परेशानी से निकलूंगा

(2)

मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझको पाने के लिए
बन गई है मसअला सारे ज़माने के लिए

रेत मेरी उम्र, मैं बच्चा, निराले मेरे खेल
मैंने दीवारें उठाई हैं गिराने के लिए

वक़्त होठों से मेरे वो भी खुरचकर ले गया
एक तबस्सुम जो था दुनिया को दिखाने के लिए

देर तक हंसता रहा उन पर हमारा बचपना
तजरुबे आए थे संजीदा बनाने के लिए

यूं बज़ाहिर हम से हम तक फ़ासला कुछ भी न था
लग गई एक उम्र अपने पास आने के लिए

मैं ज़फ़र ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घरवाली को एक कंगन दिलाने के लिए

(3)

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे

अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे

नेज़े पे रखके और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे

दिल में तेरे ख़याल की बनती है एक धनक
सूरज सा आइने से गुज़रता दिखाई दे

चल ज़िंदगी की जोत जगाएं, अजब नहीं
लाशों के दरमियां कोई रस्ता दिखाई दे

हर शै मेरे बदन की ज़फ़र क़त्ल हो चुकी
एक दर्द की किरन है कि ज़िंदा दिखाई दे

(4)

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
दिए को ज़िंदा रखती है हव़ा, ऐसा भी होता है

उदासी गीत गाती है मज़े लेती है वीरानी
हमारे घर में साहब रतजगा ऐसा भी होता है

अजब है रब्त की दुनिया ख़बर के दायरे में है
नहीं मिलता कभी अपना पता ऐसा भी होता है

किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ
तो शायद ये समझ पाओ, ख़ुदा ऐसा भी होता है

ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है

तुम्हारे ही तसव्वुर की किसी सरशार मंज़िल में
तुम्हारा साथ लगता है बुरा, ऐसा भी होता है

1.मोजज़ा = चमत्कार



आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126