सोमवार, 29 सितंबर 2025

उजालों के आसपास : ग़ज़ल संग्रह


उजालों के आसपास:अभिषेक सिंह का ग़ज़ल संग्रह 

हिंदी काव्य साहित्य की लोकप्रिय विधा ग़ज़ल एक लंबा सफ़र तय कर चुकी है। अब इसमें प्रेम, प्रकृति, प्रतिरोध और पर्यावरण से लेकर वे तमाम चिंताएं शामिल हैं जो मौजूद समय और समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं। अभिषेक कुमार सिंह की ग़ज़लों में भी यही विषय वैविध्य दिखाई पड़ता है। अपने प्रथम ग़ज़ल संग्रह “वीथियों के बीच” से अभिषेक ने बेहतर संभावनाओं का संकेत दिया था। हाल ही में श्वेत वर्णा प्रकाशन (नोएडा) से उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह आया है- “उजालों के आसपास।” अपने प्रथम संग्रह से उन्होंने जो उम्मीदें जगाई थीं उसे उन्होंने दूसरे संग्रह में भी क़ायम रखा है। 


अभिषेक जन सरोकार के कवि हैं। आज के कठिन दौर में हम जिन सामाजिक-आर्थिक सवालों, वैश्विक चुनौतियों, वैचारिक संक्रीणताओं, धार्मिक उन्माद और प्रकृति के प्रकोप का सामना कर रहे हैं उनका प्रतिबिंब अभिषेक की ग़ज़लों में दिखाई देता है। 


अजीब घोड़े हैं चाबुक की मार सहकर भी 

सलाम करते हैं मालिक को हिनहिनाते हुए 


संगठित जो भीड़ है बलवाइयों के वेश में 

साथ मेरे चल रही है राहियों के वेश में 


दिहाड़ी भीड़ तो छँट जाएगी इक दिन इशारे से

हटाने कौन आएगा मगर अंजाम का पत्थर 


जैसे ही धर्म मुद्दा बना इक विवाद का 

बोतल से जिन्न आया निकल लव जिहाद का 


कथ्य की यही समृद्धि उन्हें अपने समकालीनों में विशिष्ट बनाती है। अभिषेक बड़ी से बड़ी बात कहने के लिए ग़ज़ल के रूप में सुगम रास्ता ढूंढ़ लेते हैं। उनकी अभिव्यक्ति में इतनी सहजता है कि वे बिना किसी उलझन के अपनी बात कहने में कामयाब होते हैं। 


है मनाही तर्क के टीले पर चढ़ने की 

इस जगह से सच का सिग्नल रीच होता है 


स्वर्ग का राजा भी आकर जोड़ता है हाथ 

जब तपस्वी में कोई दाधीच होता है 


हमारे आसपास क्या घटित हो रहा है एक सजग शायर उस पर अपनी निगाह रखता है। अभिषेक भी यह काम बख़ूबी करते हैं- “दौड़ रहे सब धन के पीछे/ जैसे राम हिरन के पीछे।” कभी-कभी वे अपने आसपास का कोई दृश्य इस सलीक़े से सामने रख देते हैं कि देखने वाला विस्मित हो जाता है- 


सुस्ता रहे हैं धूप की डोली के सब कहार 

सड़कों पे बिछ गया है बिछौना पलाश का 


अभिषेक की ग़ज़लों में अनुभव और भावनाओं की असरदार अभिव्यक्ति है। वे ज़िंदगी के सूक्ष्म अनुभवों को भी बड़ी संजीदगी और कलात्मकता से रचनात्मकता के दायरे में लाते हैं। समय और समाज के ज़रूरी मुद्दों को सांकेतिक शैली में पेश करना उनकी ख़ासियत है। वे धर्म और राजनीति पर बेबाक टिप्पणी करते हैं। उनकी ग़ज़लों में आज के समाज की सोच और आम आदमी की पीड़ा शामिल है। कभी-कभी अपनी अभिव्यक्ति में वे व्यंग्य की धारदार शैली का भी बढ़िया इस्तेमाल करते हैं। वे अपने पास उपलब्ध रंगों से विविधरंगी छवियां बनाते हैं। इन छवियों में समाज के सुख-दुख भी हैं और ज़िंदगी की धूप छांव भी है। यह कारण है कि उनकी ग़ज़लें पाठकों की हमसफ़र बन जाती हैं। 


लज़ीज़ व्यंजनों में घुल चुके नमक की तरह 

ग़ज़ल है जीस्त की मिट्टी में उर्वरक की तरह


इस नये ग़ज़ल संग्रह के लिए मैं अभिषेक को दिल से बधाई देता हूं और उम्मीद करता हूं कि वे रचनात्मकता के नए आयाम रचते हुए ग़ज़ल के इसी राजमार्ग पर गतिशील रहेंगे।

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आपका : देवमणि पांडेय

सम्पर्क : 98210 82126 

मोलियर के प्रसिद्ध नाटक कंजूस का मंचन

  मोलियर के प्रसिद्ध नाटक कंजूस का मंचन

हंसी ठहाकों के बीच चित्रनगरी संवाद मंच मुंबई में मोलियर के मशहूर नाटक 'कंजूस' का मंचन हुआ। बारिश की आशंका के बावजूद 'कंजूस' के कारनामों पर ठहाका लगाने के लिए अच्छी तादाद में दर्शक पधारे और उन्होंने इस कॉमेडी नाटक का जमकर लुत्फ़ उठाया। ख़ुशी की बात यह है कि दशकों में कुछ बच्चे भी मौजूद थे और उन्हें भी इस प्रस्तुति में भरपूर आनंद आया। केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट गोरेगांव के मृणालताई हाल में मंचित इस नाटक में रंगगर्मी विजय कुमार और उनके साथी कलाकारों का अभिनय ज़बरदस्त रहा। 


'कंजूस' की कहानी मिर्ज़ा शखावत बेग़ (विजय कुमार) नामक एक अमीर, लेकिन अत्यंत लालची बुज़ुर्ग के इर्द-गिर्द घूमती है। वह अपने पैसे से बहुत प्यार करता है। उसका लालच इतना बढ़ जाता है कि वह अपने बच्चों की ख़ुशी, प्यार और भविष्य की भी परवाह नहीं करता। वह अपने बेटे फारूक़ की प्रेमिका मरियम से ख़ुद शादी करना चाहता है और अपनी बेटी अज़रा का विवाह एक अमीर लेकिन बुज़ुर्ग व्यक्ति से कराना चाहता है।


कहानी में तब अद्भुत मोड़ आता है जब मिर्ज़ा बेग़ का छुपा हुआ धन चोरी हो जाता है, जिससे वह पागलों की तरह व्यवहार करने लगता है। बी.एम. शाह द्वारा निर्देशित कंजूसी और लालच जैसे गंभीर विषय पर आधारित इस क्लासिक कॉमेडी को रंगकर्मी विजय कुमार ने हास्य के माध्यम से जिस पुरलुत्फ़ तरीक़े से पेश किया है वह बेहद क़ाबिले तारीफ़ है। मिर्ज़ा बेग़ के चरित्र की सनक, उनके संवाद और ख़ासकर नौकरों के साथ उनकी नोंक-झोंक दर्शकों को ख़ूब हँसाती है। 


मिर्ज़ा बेग़ (कंजूस) का चरित्र सबसे मज़ेदार और चुनौतीपूर्ण है जो दर्शकों को बाँधे रखता है। विजय कुमार ने इसके लिए बॉडी लैंग्वेज़ का ज़बरदस्त इस्तेमाल किया है। कई बार उनकी देह भाषा दर्शकों से ताली बजवाती है। नाटक के बाक़ी सभी पात्रों ने अपनी अपनी भूमिका को सराहनीय ढंग से अंजाम तक पहुंचाया है। 

कुल मिलाकर, 'कंजूस' फ्रांसीसी नाटककार मोलियर के कालजयी नाटक का एक सफल हिंदी रूपांतरण है। कहा जाता है कि सन् 1963 में हज़रत आवारा ने इसका हिंदी रूपांतरण किया था। यह नाटक आज भी हास्य और व्यंग्य के माध्यम से लोभ-लालच के बुरे प्रभावों पर प्रकाश डालता है। मनोरंजक प्रस्तुति के कारण दर्शकों ने इसे ख़ूब पसंद किया। नाटक के अंत में विजय कुमार ने श्रोताओं से संवाद किया और अपना 'मन बसिया' गीत भी सुनाया। 


28 सितंबर स्वर कोकिला लता मंगेशकर का जन्मदिन है। दशकों ने उन्हें आदर के साथ याद किया। गायिका नाज़नीन ने उनकी पावन स्मृति में उनकी गाई हुई एक ग़ज़ल सुनाई जिसे मजरुह सुलतानपुरी ने लिखा है। अंत में डॉ मधुबाला शुक्ल ने आभार व्यक्त किया। 


इस अवसर पर दर्शकों में कई प्रतिष्ठित रंगकर्मी मौजूद थे। इनमें जयंत जी, हरीश जी, राजेश जादव, प्रमोद सचान, सोनू पाहूजा, राजकुमार कनौजिया और शाइस्ता ख़ान शामिल थे। रचनाकार जगत से आभा बोधिसत्व, अंबिका झा, मंजू शर्मा, अनिल गौड़, हेमंत शर्मा, राजू मिश्र कविरा और अनुज वर्मा उपस्थित थे। 


आपका : देवमणि पांडेयस

सम्पर्क : 98210 82126 

बुधवार, 25 दिसंबर 2024

लखनऊ यात्रा की मधुर यादें

 

(1) सुख़नवरी साझा ग़ज़ल संग्रह 

रचनात्मकता को नया आयाम देने वाले कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो वक़्त का शिलालेख बन जाते हैं। ‘महकते जज़्बात परिवार’ की ख़ूबसूरत पेशकश ‘सुख़नवरी’ एक ऐसा ही अहम दस्तावेज़ है। ‘महकते जज़्बात परिवार’ के संस्थापक अध्यक्ष शायर मंजुल मंज़र लखनवी द्वारा सम्पादित इस सामूहिक ग़ज़ल संग्रह में देश के 51 महत्वपूर्ण ग़ज़लकार शामिल हैं। अपने अंदर सभी रंगों को समेटे हुए यह संग्रह सृजनात्मकता के क्षितिज पर इंद्रधनुष की तरह उपस्थित है। यह संग्रह इन ग़ज़लकारों को एक ऐसा प्लेटफार्म उपलब्ध कराता है जहां से उनकी पहचान को एक नया आसमान मिलता है। मंजुल मंज़र लखनवी की पारखी नज़रों ने कमाल का संपादन किया है। ग़ज़लों के इस ख़ूबसूरत गुलदस्ते में ज़िंदगी की विविधरंगी तस्वीरें हैं। इनमें जदीदियत का हुस्न है तो रिवायात की दिलकशी भी है। इन ग़ज़लों में एहसासात और जज़्बात के साथ देश एवं समाज के हालात और वक़्त के सवालात शामिल हैं। कुल मिलाकर आज के दौर को जानने समझने के लिए और ग़ज़ल की परवाज़ को देखने के लिए यह संग्रह बेहद महत्वपूर्ण है। उर्दू अकादमी लखनऊ के लोकार्पण-समारोह एवं मुशायरे में शनिवार 7 दिसंबर 2024 को इस साझा ग़ज़ल संग्रह का लोकार्पण हुआ।  ‘सुख़नवरी’ में शामिल सभी ग़ज़लकारों को मैं दिल से बधाई देता हूं और उम्मीद करता हूं कि ग़ज़ल प्रेमियों की दुनिया में इस गुलदस्ते का भरपूर स्वागत होगा। 

(2) अलका त्रिपाठी का ग़ज़ल संग्रह 

उर्दू अकादमी लखनऊ के लोकार्पण-समारोह में सम्वेदनशील कवयित्री अलका त्रिपाठी ने मुझे अपने दो ग़ज़ल संग्रह भेंट किए - 'लफ़्ज़ों से परे' और 'हमसफ़र'। दोनों से गुज़रते हुए यह महसूस हुआ कि अलका त्रिपाठी की ग़ज़लें इस तथ्य को रेखांकित करती हैं कि ग़ज़ल कोमल भावनाओं की नाज़ुक अभिव्यक्ति है। सरल सहज भाषा में कही गईं ये दिलकश ग़ज़लें भावनाओं की झील पर किसी कश्ती की मानिंद गुज़रती हैं।

तुम सा सुंदर यहाँ का नज़ारा नहीं
तुमको जी भर अभी तो निहारा नहीं
संग ले के सनम तुमको डूबेंगे हम
चाहतों के भंवर में किनारा नहीं

यह भी अच्छी बात है कि अलका जी की अभिव्यक्ति में कहीं कोई गति अवरोधक नहीं है। बिना किसी लाग लपेट के वे अपनी बात साफ़ साफ़ कह देतीं हैं। इन ग़ज़लों में गेयता है। संगीत की लयात्मकता है। ये ग़ज़लें दिल से निकली हैं और दिल तक पहुंचती हैं।

धड़कनों की लय पे हमने गीत गाए हैं सदा
अश्क जब मोती हुए तो मुस्कराए हैं सदा

अलका त्रिपाठी की अभिव्यक्ति में ऐसी सादगी और आत्मीयता है कि ये ग़ज़लें पाठकों को अपने दिल के बहुत क़रीब महसूस होंगी। वस्तुतः यही उनकी रचनात्मक उपलब्धि है। मुझे उम्मीद है कि इन दिलकश ग़ज़लों के ज़रिए वे रचनाकार जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बनाएंगी। निरंतर प्रगति की शुभकामनाएं।

(3) डॉ इंदु अग्रवाल का ग़ज़ल संग्रह 

उर्दू अकादमी लखनऊ के भव्य समारोह में शनिवार 7 दिसम्बर 2024 को देहरादून की वरिष्ठ कवयित्री डॉ इंदु अग्रवाल के ग़ज़ल संग्रह 'दीवान-ए-इंदु' का लोकार्पण हुआ। बेहद आकर्षक साज-सज्जा के साथ प्रकाशित यह ग़ज़ल संग्रह ख़ुद में एक नायाब तोहफ़ा है। दीवान प्रकाशित कराना आसान काम नहीं है। वर्णमाला के सभी अक्षरों को रदीफ़ में शामिल करके ग़ज़लें कहनी पड़तीं हैं। इंदु जी ने इस परम्परा का पालन सराहनीय ढंग से किया है। उनका दीवान बेहतरीन ग़ज़लों का ख़ूबसूरत गुलदस्ता है। तकनीकी ज़रूरतों को पूरा करने के साथ ही उन्होंने सरल सहज भाषा में ज़िंदगी के जो रंग, जज़्बात और एहसासात ग़ज़लों में पिरोए हैं वे दिल के तार झंकृत कर देते हैं-

बेटा-बेटी सब प्यारे
दोनों में लें किसका पक्ष
आज सभी के घर में हो
दादा-दादी का भी कक्ष

देखती रात भर रहीं आँखें
ख़्वाब जो भी मिले विरासत में

गाँव के गाँव ख़ाली हुए
मुर्दनी झाँकती हर तरफ़

जब बुलंदी न हो उसकी क़िस्मत में तो
चाहिए आदमी सब्र से काम ले

ग़ज़ल में लफ़्ज़ों को बरतने का सलीक़ा और भावनाओं के इज़हार का तरीक़ा देखने के लिए ख़ुद में यह कृति एक दस्तावेज़ है। इस रचनात्मक उपलब्धि के लिए डॉ इंदु अग्रवाल को बहुत-बहुत बधाई। मेरी दिली कामना है कि वे इसी तरह अपनी सोच और सरोकार से रचनात्मकता के गुलशन को आबाद करती रहें। ढेर सारी शुभकामनाएं।

(4) लखनऊ के फोनिक्स प्लासियो मॉल में कॉफ़ी

कवयित्री नीतू सिंह ने मुझे गोमती नगर, लखनऊ के फोनिक्स प्लासियो मॉल में कॉफ़ी के लिए आमंत्रित दिया। उनके साथ गपशप में आनंद आया। प्लासियो मॉल बहुत भव्य और शानदार है। यह माल इतना बड़ा है कि चारों दिशाओं में इसके प्रवेश द्वार हैं।

कवयित्री नीतू सिंह गोमती नगर के पुलिस मुख्यालय में सब इंस्पेक्टर हैं। वे बेहतरीन गायिकी हैं। उन्होंने संगीत विशारद किया है। सन् 2012 में मेरे ग़ज़ल संग्रह 'अपना तो मिले कोई' का लोकार्पण हज़रतगंज, लखनऊ में हुआ था। उस आयोजन में नीतू सिंह ने मेरी एक ग़ज़ल गाई थी' "जो मिल गया है उससे भी बेहतर तलाश कर / क़तरे में भी छुपा है समंदर तलाश कर"। उनके गायन की काफ़ी तारीफ़ हुई थी। नीतू सिंह के जीवनसाथी परमदेव पेशे से शिक्षक हैं।। उनसे मिलकर अच्छा लगा। नीतू की 6 साल की बेटी प्रक्षालिका भी बहुत प्यारी है। शाम को नीतू सिंह ने मेरे साथ निराला नगर में आयोजित काव्य संध्या में शिरकत की। कुल मिलाकर लखनऊ की यात्रा बहुत सुखद और यादगार रही।
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आपका : देवमणि पांडेय मुम्बई 





 

सोमवार, 29 जुलाई 2024

मुकेश जयंती पर मुम्बई में संगीत समारोह


 
मुकेश जयंती पर मुम्बई में संगीत समारोह 


बेमिसाल गायक मुकेश ने वक़्त के कैनवास पर अपनी आवाज़ के रंगों से कामयाबी की एक ऐसी इबारत लिखी जिसकी चमक आज भी बरकरार है। वे लफ़्ज़ों की रोशनाई में अपने दिल की सम्वेदना घोल देते थे। इसलिए उनके गीत आज भी श्रोताओं की धड़कनों के साथ एक आत्मीय रिश्ता क़ायम कर लेते हैं। 


आज भी गायक मुकेश की रूहानी आवाज़ उदासियों के अंधेरों में रोशनी की लकीर खींच देती है। हालांकि उन्होंने उमंग और उल्लास के भी कई गीत गाए, लेकिन उनकी इमोशनल आवाज़ दर्द  की जागीर बन गई है। उनके ऐसे गीतों ने प्यार करने वालों की कई-कई बेचैन पीढ़ियों को सुकून अता किया है। कहा जाता है कि मुकेश ने अपने 35 साल के कैरियर में 525 हिन्दी फ़िल्मों में 900 गीत ही गाये मगर मुकेश के गीतों की लोकप्रियता इतनी ज़्यादा रही कि अक्सर लोग यही समझते हैं कि मुकेश ने भी हज़ारों गीत गाये होंगे। उन्होंने अपने दौर के सभी प्रमुख अभिनेताओं के लिए गाया। राज कपूर उन्हें अपनी आवाज़ कहते थे। 



दक्षिण मुंबई में जहां नेपियन सी रोड और भूलाभाई देसाई रोड का मिलन होता है उसका नाम है मुकेश चौक। इसी मोहल्ले की सरकारी कॉलोनी हैदराबाद इस्टेट में मैं तेरह साल तक रहा। थोड़ी ही दूर पर कमला नेहरू पार्क यानी हैंगिंग गार्डन है। फ़िल्म पत्रिका माधुरी के संपादक अरविंद कुमार जी ने बताया था कि इस पार्क में रोज़ सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए गायक मुकेश आते थे। कोई भी उनसे मुलाक़ात कर सकता था। बात कर सकता था। मगर अब समय बदल गया है। हैदराबाद इस्टेट के सामने प्रियदर्शनी पार्क है। एक दिन शाम को इसी पार्क में घूमते हुए मुकेश जी के पौत्र नील नितिन मुकेश से सामना हो गया। उनके दाएं बाएं दो बॉडीगार्ड थे। एक नौकर तौलिया लेकर पीछे पीछे चल रहा था। यानी उनसे संवाद का कोई रास्ता नहीं था। 



दिल्ली के मुकेशचंद्र माथुर का जन्म 22 जुलाई 1923 को हुआ। उन्होंने दसवीं तक पढ़ाई करके सार्वजनिक निर्माण विभाग में नौकरी शुरू की लेकिन क़िस्मत ने उन्हें दिल्ली से मुंबई पहुंचा दिया। इसका श्रेय अभिनेता मोतीलाल को दिया जाता है। फ़िल्म 'निर्दोष' (1941) में मुकेश को गाने और अभिनय का काम मिला। बतौर पार्श्व गायक सन् 1945 में फ़िल्म 'पहली नज़र' से पहचान मिली। गीत था - "दिल जलता है तो जलने दे "। मुकेश के आदर्श गायक कुंदनलाल सहगल का प्रभाव इस पर स्पष्ट दिखाई देता है। संगीतकार नौशाद के साथ मुकेश ने अपनी पार्श्व गायन शैली विकसित की। 



चालीस के दशक में दिलीप कुमार के लिए सबसे ज़्यादा गीत गाने वाले मुकेश को पचास के दशक में एक नयी पहचान मिली। उन्हें राज कपूर की आवाज़ कहा जाने लगा। ख़ुद राज कपूर ने स्वीकार किया - "मैं तो बस शरीर हूँ मेरी आत्मा तो मुकेश है।" बतौर पार्श्व गायक लोकप्रियता हासिल करने के बाद एक दिन मुकेश फ़िल्म निर्माता बन गये। सन् 1951 में फ़िल्म ‘मल्हार’ और 1956 में ‘अनुराग’ निर्मित की। दोनों फ़िल्में फ्लॉप रहीं। कहा जाता है कि मुकेश को बचपन से ही अभिनय का शौक था। फ़िल्म ‘अनुराग’ और ‘माशूक़ा’ में वे हीरो बनकर आये। लेकिन जनता ने उन्हें पसंद नहीं किया। वे फिर से गायिकी की दुनिया में लौट आये। यहूदी, मधुमती, अनाड़ी और जिस देश में गंगा बहती है जैसी फ़िल्मों ने उनकी गायकी को एक नयी पहचान दी। 



▪️गायक मुकेश को अपनी बेमिसाल गायिकी के लिए चार बार फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला।▪️ 


(1) सन् 1959 में अनाड़ी  फ़िल्म के गीत ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’ के लिए। ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म 'अनाड़ी' में मुकेश के जिगरी दोस्त राज कपूर को भी पहला फ़िल्म फेयर अवॉर्ड मिला। 


(2) सन् 1970 में मनोज कुमार की फ़िल्म 'पहचान' के गीत "सबसे बड़ा नादान" के लिए। 


(3) सन् 1972 में मनोज कुमार की ही फ़िल्म 'बेईमान' के गीत "जय बोलो बेईमान की" के लिए। 


(उपरोक्त तीनों फ़िल्मों के संगीतकार शंकर जयकिशन थे) 


(4) सन् 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म ''कभी कभी  के शीर्षक गीत के लिए मुकेश को चौथा फ़िल्म फेयर अवॉर्ड मिला। (संगीतकार ख़य्याम) 


साल 1974 में फ़िल्म ''रजनीगंधा'' के गाने "कई बार यूं भी देखा है" के लिए मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 


सत्तर के दशक में धरम करम, आनन्द, अमर अकबर अ‍ॅन्थनी आदि फिल्मों में मुकेश ने सुपरहिट गाने दिये। मुकेश ने अपने कैरियर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फ़िल्म सत्यम शिवम् सुंदरम के लिए गाया- “चंचल शीतल निर्मल कोमल”। लेकिन 1978 में इस फ़िल्म के रिलीज होने से दो साल पहले ही 27 अगस्त 1976 को मुकेश ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। 


मुकेश का परिवार : 

घर वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अपने जन्मदिन 22 जुलाई 1946 को गुजराती लड़की सरल त्रिवेदी से मुकेश ने प्रेम विवाह किया था। वे तीन बच्चों के पिता बने। बेटे का नाम नितिन मुकेश और बेटियों का रीटा और नलिनी है। 


मुकेश के बेटे गायक नितिन मुकेश ने भी कई फ़िल्मों में अपनी आवाज़ दी है। नितिन मुकेश के बेटे यानी मुकेश के पौत्र नील नितिन मुकेश बॉलीवुड के चर्चित अभिनेता हैं। 


गीतकार हरिश्चंद्र दास गायक मुकेश के परम भक्त हैं। वे पिछले सैंतीस सालों से गायक मुकेश के जन्मदिन पर मुकेश जयंती समारोह आयोजित करते हैं। इस बार यह संगीत समारोह 27 जुलाई 2024 को कांदिवली, मुम्बई के निर्वाण सभागृह में आयोजित किया गया जिसमें कई बेहतरीन गायकों ने शिरकत की। इनमें सुधाकर स्नेह, सुरेशानंद, नारायण आहूजा, संजीव झा, कमल धमाली, दामोदर राव, श्रीरंजनी अय्यर, दर्शना कदम, श्रुति झा, रेखा राव, ममता राव और स्वयं हरिश्चंद्र दास शामिल थे। इस संगीत संध्या के संचालन में मुझे भी भरपूर आनंद आया। मेरे दोस्तों- पुष्पा वर्मा, अर्चना जौहरी, रतिका जौहरी, प्रतिमा सिन्हा, क़मर हाजीपुरी और ताज मोहम्मद सिद्दीकी ने अपनी मौजूदगी से आयोजन की गरिमा बढ़ाई।


हिंदी सिनेमा के महान गायक मुकेश की जयंती पर उनकी स्मृतियों को सादर नमन ! आइए हम भी मुकेश की आवाज में गुनगुनाएं .... 


किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार 

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार 

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार 

जीना इसी का नाम है ... 


रिश्ता दिल से दिल के ऐतबार का 

ज़िन्दा है हमीं से नाम प्यार का

कि मर के भी किसी को याद आयेंगे 

किसी के आँसुओं में मुस्कुरायेंगे 

कहेगा फूल हर कली से बार बार 

जीना इसी का नाम है... 


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आपका - देवमणि_पांडेय

सम्पर्क : 98210 82126