शहर के अज़ाब, गांव की मासूमियत और ज़िंदगी की वास्तविकताओं को सशक्त ज़ुबान देने वाले शायर ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे ख़ुशनसीब शायर हैं जिसने फ़िराक़ गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, मजाज़ लखनवी और जिगर मुरादाबादी जैसे शायरों से अपने कलाम के लिए दाद वसूल की है। सिर्फ़ 22 साल की उम्र में उन्होंने मुशायरे में फ़िराक़ साहब के सामने ग़ज़ल पढ़ी थी-
मयक़दा सबका है सब हैं प्यासे यहाँ
मय बराबर बटे चारसू दोस्तो
मय बराबर बटे चारसू दोस्तो
चंद लोगों की ख़ातिर जो मख़सूस हों
तोड़ दो ऐसे जामो-सुबू दोस्तो
तोड़ दो ऐसे जामो-सुबू दोस्तो
इसे सुनकर फ़िराक़ साहब ने सरे-आम ऐलान किया था कि ये नौजवान बड़ा शायर बनेगा। उस दौर में ज़फ़र गोरखपुरी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हुए थे और उनकी शायरी से शोले बरस रहे थे। फ़िराक़ साहब ने उन्हें समझाया- सच्चे फ़नकारों का कोई संगठन नहीं होता। वे किसी संगठन में फिट ही नहीं हो सकते। अब विज्ञान, तकनीक और दर्शन का युग है। इन्हें पढ़ना होगा। शिक्षितों के युग में कबीर नहीं पैदा हो सकता। वाहवाही से बाहर निकलो।
फ़िराक़ साहब की नसीहत का ज़फ़र गोरखपुरी पर गहरा असर हुआ। वे संजीदगी से शायरी में जुट गए। वह वक़्त भी आया जब उर्दू की जदीद शायरी के सबसे बड़े आलोचक पद्मश्री डॉ.शमशुर्रहमान फ़ारूक़ी ने लिखा - ‘ज़फ़र गोरखपुरी की बदौलत उर्दू ग़ज़ल में पिछली कई दहाइयों से एक हलकी ठंडी ताज़ा हवा बह रही है। इसके लिए हमें उनका शुक्रिया और ख़ुदा का शुक्र अदा करना चाहिए।’
ज़फ़र गोरखपुरी बहुमुखी प्रतिभा वाले ऐसे महत्वपूर्ण शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया। उनकी शायरी में विविधरंगी शहरी जीवन के साथ-साथ लोक संस्कृति की महक और गांव के सामाजिक जीवन की मनोरम झांकी है । इसी ताज़गी ने उनकी ग़ज़लों को आम आदमी के बीच लोकप्रिय बनाया । उनकी विविधतापूर्ण शायरी ने एक नई काव्य परम्परा को जन्म दिया । उर्दू के फ्रेम में हिंदी की कविता को उन्होंने बहुत कलात्मक अंदाज में पेश किया।
फ़िराक़ साहब की नसीहत का ज़फ़र गोरखपुरी पर गहरा असर हुआ। वे संजीदगी से शायरी में जुट गए। वह वक़्त भी आया जब उर्दू की जदीद शायरी के सबसे बड़े आलोचक पद्मश्री डॉ.शमशुर्रहमान फ़ारूक़ी ने लिखा - ‘ज़फ़र गोरखपुरी की बदौलत उर्दू ग़ज़ल में पिछली कई दहाइयों से एक हलकी ठंडी ताज़ा हवा बह रही है। इसके लिए हमें उनका शुक्रिया और ख़ुदा का शुक्र अदा करना चाहिए।’
ज़फ़र गोरखपुरी बहुमुखी प्रतिभा वाले ऐसे महत्वपूर्ण शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया। उनकी शायरी में विविधरंगी शहरी जीवन के साथ-साथ लोक संस्कृति की महक और गांव के सामाजिक जीवन की मनोरम झांकी है । इसी ताज़गी ने उनकी ग़ज़लों को आम आदमी के बीच लोकप्रिय बनाया । उनकी विविधतापूर्ण शायरी ने एक नई काव्य परम्परा को जन्म दिया । उर्दू के फ्रेम में हिंदी की कविता को उन्होंने बहुत कलात्मक अंदाज में पेश किया।
ज़फ़र गोरखपुरी ने बालसाहित्य के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया। परियों के काल्पनिक और भूत प्रेतों के डरावने संसार से बाहर निकालकर उन्होंने बालसाहित्य को सच्चाई के धरातल पर खड़ा करके उसे जीवंत,मानवीय और वैज्ञानिक बना दिया ।पिछले 40 सालों से उनकी रचनाएं महराष्ट्र के शैक्षिक पाठ्यक्रम में पहली से लेकर बी.ए.तक के कोर्स में पढाई जाती हैं। अपनी रचनात्मक उपलब्धियों के कारण उन्हें अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान और प्रशंसा मिली।
ज़फ़र गोरखपुरी का जन्म गोरखपुर ज़िले की बासगांव तहसील के बेदौली बाबू गांव में 5 मई 1935 को हुआ । प्रारंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त करने के बाद उन्होंने मुंबई को अपना कर्मक्षेत्र बनाया । सन 1952 में उनकी शायरी की शुरुआत हुई। उर्दू में ज़फ़र गोरखपुरी के अब तक पांच संकलन प्रकाशित हो चुके हैं – (1) तेशा (1962), (2) वादिए-संग (1975), (3) गोखरु के फूल (1986), (4) चिराग़े-चश्मे-तर (1987), (5) हलकी ठंडी ताज़ा हवा(2009)। बच्चों के लिए भी उनकी दो किताबें आ चुकी हैं–‘नाच री गुड़िया’ ( कविताएं 1978 ) तथा ‘सच्चाइयां’ (कहानियां 1979)। हिंदी में उनकी ग़ज़लों का संकलन आर-पार का मंज़र (1997) नाम से प्रकाशित हो चुका है।
गुज़िश्ता 50 सालों से ज़फ़र गोरखपुरी की कई रचनाएं महाराष्ट्र सरकार के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल हैं जिन्हें लाखों बच्चे रोज़ाना पढ़ते हैं। रचनात्मक उपलब्धियों के लिए ज़फ़र गोरखपुरी को महाराष्ट्र उर्दू आकादमी का राज्य पुरस्कार (1993 ), इम्तियाज़े मीर अवार्ड (लखनऊ ) और युवा-चेतना गोरखपुर द्वारा फ़िराक़ सम्मान (1996) प्राप्त हो चुका है। उन्होंने 1997 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की और वहां कई अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व किया ।
सम्पर्क : ज़फ़र गोरखपुरी : ए-302, फ्लोरिडा, शास्त्री नगर, अंधेरी (पश्चिम), मुम्बई – 400 053
ज़फ़र गोरखपुरी का जन्म गोरखपुर ज़िले की बासगांव तहसील के बेदौली बाबू गांव में 5 मई 1935 को हुआ । प्रारंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त करने के बाद उन्होंने मुंबई को अपना कर्मक्षेत्र बनाया । सन 1952 में उनकी शायरी की शुरुआत हुई। उर्दू में ज़फ़र गोरखपुरी के अब तक पांच संकलन प्रकाशित हो चुके हैं – (1) तेशा (1962), (2) वादिए-संग (1975), (3) गोखरु के फूल (1986), (4) चिराग़े-चश्मे-तर (1987), (5) हलकी ठंडी ताज़ा हवा(2009)। बच्चों के लिए भी उनकी दो किताबें आ चुकी हैं–‘नाच री गुड़िया’ ( कविताएं 1978 ) तथा ‘सच्चाइयां’ (कहानियां 1979)। हिंदी में उनकी ग़ज़लों का संकलन आर-पार का मंज़र (1997) नाम से प्रकाशित हो चुका है।
गुज़िश्ता 50 सालों से ज़फ़र गोरखपुरी की कई रचनाएं महाराष्ट्र सरकार के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल हैं जिन्हें लाखों बच्चे रोज़ाना पढ़ते हैं। रचनात्मक उपलब्धियों के लिए ज़फ़र गोरखपुरी को महाराष्ट्र उर्दू आकादमी का राज्य पुरस्कार (1993 ), इम्तियाज़े मीर अवार्ड (लखनऊ ) और युवा-चेतना गोरखपुर द्वारा फ़िराक़ सम्मान (1996) प्राप्त हो चुका है। उन्होंने 1997 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की और वहां कई अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व किया ।
सम्पर्क : ज़फ़र गोरखपुरी : ए-302, फ्लोरिडा, शास्त्री नगर, अंधेरी (पश्चिम), मुम्बई – 400 053
ज़फ़र गोरखपुरी की ग़ज़लें
(1)
बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूंगा
मै सूरज बनके इक दिन अपनी पेशानी से निकलूंगा
मुझे आंखों में तुम जां के सफ़र की मत इजाज़त दो
अगर उतरा लहू में फिर न आसानी से निकलूंगा
नज़र आ जाऊंगा मैं आंसुओं में जब भी रोओगे
मुझे मिट्टी किया तुमने तो मैं पानी से निकलूंगा
मैं ऐसा ख़ूबसूरत रंग हूँ दीवार का अपनी
अगर निकला तो घरवालों की नादानी से निकलूंगा
ज़मीरे-वक़्त में पैवस्त हूं मैं फांस की सूरत
ज़माना क्या समझता है कि आसानी से निकालूंगा
यही इक शै है जो तनहा कभी होने नहीं देती
ज़फ़र मर जाऊंगा जिस दिन परेशानी से निकलूंगा
(2)
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझको पाने के लिए
बन गई है मसअला सारे ज़माने के लिए
रेत मेरी उम्र, मैं बच्चा, निराले मेरे खेल
मैंने दीवारें उठाई हैं गिराने के लिए
वक़्त होठों से मेरे वो भी खुरचकर ले गया
एक तबस्सुम जो था दुनिया को दिखाने के लिए
देर तक हंसता रहा उन पर हमारा बचपना
तजरुबे आए थे संजीदा बनाने के लिए
यूं बज़ाहिर हम से हम तक फ़ासला कुछ भी न था
लग गई एक उम्र अपने पास आने के लिए
मैं ज़फ़र ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घरवाली को एक कंगन दिलाने के लिए
(3)
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे
अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे
नेज़े पे रखके और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे
दिल में तेरे ख़याल की बनती है एक धनक
सूरज सा आइने से गुज़रता दिखाई दे
चल ज़िंदगी की जोत जगाएं, अजब नहीं
लाशों के दरमियां कोई रस्ता दिखाई दे
हर शै मेरे बदन की ज़फ़र क़त्ल हो चुकी
एक दर्द की किरन है कि ज़िंदा दिखाई दे
(4)
इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
दिए को ज़िंदा रखती है हव़ा, ऐसा भी होता है
उदासी गीत गाती है मज़े लेती है वीरानी
हमारे घर में साहब रतजगा ऐसा भी होता है
अजब है रब्त की दुनिया ख़बर के दायरे में है
नहीं मिलता कभी अपना पता ऐसा भी होता है
किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ
तो शायद ये समझ पाओ, ख़ुदा ऐसा भी होता है
ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है
तुम्हारे ही तसव्वुर की किसी सरशार मंज़िल में
तुम्हारा साथ लगता है बुरा, ऐसा भी होता है
1.मोजज़ा = चमत्कार
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126
13 टिप्पणियां:
तुम्हारे ही तसव्वुर की किसी सरशार मंज़िल में
तुम्हारा साथ लगता है बुरा, ऐसा भी होता है
kyaa kahne !
jafar gorakhpuri sahab kp salam!
nice
वाह वाह पांडेय जी,
बहुत ही बेहतरीन शख़्सियत से रूबरू कराया आपने।
क्या ही ख़ूब ग़ज़लें रहीं।
"बड़ा लुत्फ़ था" का तो कोई जवाब ही नहीं है। पुतलीबाई और अज़ीज़ नाज़ाँ साहब की झूम शराबी के साथ ही साथ इस क़व्वाली ने भी लोगों को मस्त कर दिया था उस ज़माने में। अहा !
ज़फ़र साहब को हमारी जानिब से सालगिरह की मुबारक़बादियाँ।
उदासी गीत गाती है मज़े लेती है वीरानी
हमारे घर में साहब रतजगा ऐसा भी होता है
WaaaaaaaH!! kya sunder peshgi hai naye andaaz mein . prastuti karke pathneeyta ka awasar dene ke liye Devmani ko Badhayi
Devi nangrani
क्या खूब शेर है -
अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे ||
देवमणि भाई,
सबसे पहले तो आपका आभार इस कद को सामने रखने के लिये।
ज़फ़र साहब के किसी एक शेर की बीत करूँ तो बाकी अशआर के साथ अन्याय होगा, जो शाइर कहन क्या होती है समझने के इच्छुक हों उनके लिये इस एक शेर का उदाहरण ही काफ़ी रहेगा।
इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
दिए को ज़िंदा रखती है हव़ा, ऐसा भी होता है
मैं ऐसा ख़ूबसूरत रंग हूँ दीवार का अपनी
अगर निकला तो घरवालों की नादानी से निकलूंगा
****
मैं ज़फ़र ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घरवाली को एक कंगन दिलाने के लिए
****
अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे
नेज़े पे रखके और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे
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ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है
तुम्हारे ही तसव्वुर की किसी सरशार मंज़िल में
तुम्हारा साथ लगता है बुरा, ऐसा भी होता है
देवमणि जी आपने ज़फर साहब की ऐसी ग़ज़लें पढने को दिन हैं जिन्हें ता-उम्र पढ़ते रहो तो भी जी ना भरे...एक एक अशार नगीना है...सुभान अल्लाह...भरपूर दाद कबूल हो...
नीरज
BHAI DEVMANI JEE, AAP URDU KE
CHUNINDA BEHATREEN SHAAYRON SE
PARICHAY KARWA KAR BADAA HEE UMDA
KAAM KAR RAHE HAI.IS BAAR ZAFAR
GORAKHPURI KE VYAKTITV AUR KRITITV
KE BAARE MEIN PADH KAR BAHUT HEE
ACHCHHA LAGAA HAI.BADHAAE AUR
SHUBH KAMNA.
bahut badhiya pandey ji. zafar ki kauwaliyon par bhi aap roshani dal sakte hain aur usi mumbayi men mitti dhone jaise unke sangharsh par bhi. primary school men unki masteri par bhi aur kadar khan se unke rshton par bhi. wah wahan honrery majistret bhi rahe hain.aap ko bataun ki zafar sahab hamari tahseel bansganv ke hain. firaq sahab bhi isi bansganv tahaseel ke hain.
dayanand pandey
ek umdaa shaair ka parichay dene ke liye abhar. aanan aa gayaa unki ghazale parh kar.
ghazal kaisi honee chahiye iska jawab hai yih ghazlen..lajwab!
वक़्त होठों से मेरे वो भी खुरचकर ले गया
एक तबस्सुम जो था दुनिया को दिखाने के लिए
awesome !!
shukria dev saahab.
Superb
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