शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

दुनिया के क़ाबिल बनो बेटा सूरजभान


लोकप्रियता के मुकाम पर कवि सूर्यभानु गुप्त 

कवि सूर्यभानु गुप्त ने ज़िंदगी और समाज की समस्याओं के बरक्स हिंदी ग़ज़ल को भाषा, भाव, शैली और अभिव्यक्ति का नया तेवर दिया। उन्होंने ग़ज़ल को लोकप्रियता के उस मुकाम पर पहँचाया जो किसी शायर का ख़्वाब होता है। यह हक़ीक़त कम लोगों को ही पता है कि स्व.दुष्यंत कुमार का संकलन आने से पहले ही सूर्यभानु गुप्त की ग़ज़लें धर्मयुग में छपकर मशहूर हो चुकी थीं। उनकी प्रयोगधर्मिता और जदीदियत की चर्चा दूर तक होती थी। उस ज़माने के उनके दो शेर देखिए-

ज़िंदगी हम अदीबों की मजबूर है और मजबूर है सालहा साल से
जैसे कश्मीर फूलों का रिसता हुआ एक नासूर है सालहा साल से

हर लम्हा ज़िंदगी के पसीने से तंग हूँ
मैं भी किसी कमीज़ के कॉलर का रंग हूँ

22 जनवरी 1998 को सूर्यभान गुप्त ने मुझे अपना काव्यसंकलन एक हाथ की ताली भेंट किया था। हस्ताक्षर के साथ उन्होंने लिखा- साहित्यनामची श्री देवमणि जी को नववर्ष की शुभकानाओं के साथ। मैंने मुम्बई के सबसे लोकप्रिय सांध्यदैनिक संझा जनसत्ता’ में अपने साप्ताहिक स्तम्भ साहित्यनामचा में सूर्यभान गुप्त पर एक लेख लिखा। सुबह के अख़बार जनसत्ता में उसकी झलक छपी - आज साहित्यनामचा में पढ़िए… दुनिया के क़ाबिल बनो बेटा सूरजभान उनके पास कई लोगों के फ़ोन आए कि आपके प्रिय मित्र पांडेय जी ने तो आपकी खटिया ही खड़ी कर दी। आपको बेटा बना दिया । लेकिन वे यह सब सुनकर बस मुस्कराते रहे। उन्हें पता था कि मैंने यह शीर्षक उनके एक दोहे से लिया है। उनकी   प्रयोगधर्मिता की तारीफ़ करते हुए मैंने उनके कुछ दोहे कोट किए थे

दुनिया को मत दोष दो, टूटे जो अरमान
दुनिया के क़ाबिल बनो, बेटा सूरजभान

मुहब्बत में जब दिल जलता है तो आँखें बरसकर ठंडी हो जाती हैं। ऐसे संवेदनशील मंज़र को दोहे में ढालने का हुनर सूर्यभान गुप्त में ही है-

क्या बतलाएं, क्या लिखें, तुमको अपना हाल
दिल तो राजस्थान है , आंखें नैनीताल

दरअसल  सत्तर के दशक में उनके दोहे धर्मयुग में छपकर मशहूर हो चुके थे। जब 1995 में उन्हें काव्य साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए परिवार पुरस्कार मिला तो उस समारोह में शायर जावेद अख़्तर ने उनकी तारीफ़ करते हुए उनके कुछ दोहे ज़बानी सुना दिए तो ख़ूब तालियां बजीं


सपने मुर्दा मछलियाँ, आंखें सूखी झील
हर चेहरे के ठूँठ पर, बैठी है इक चील

सचमुच की कितनी बड़ी हमने तुमने भूल
इन आंखों में खोलकर सपनों के स्कूल

मुझे लगता है कि अगर उनका ग़ज़ल संग्रह वक़्त पर प्रकाशित हो जाता तो उसकी लोकप्रियता बेमिसाल होती। विडम्बना देखिए कि उनका पहला काव्य संकलन एक हाथ की ताली’ (वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) तब आया जब उनको लिखते हुए 40 साल हो गए थे । आपातकाल से पहले भी सूर्यभान गुप्त की ग़ज़लें नएपन और ताज़गी का परचम लहरा रही थीं-

मुझको उदास करने की ज़िद पर तुली हुई
क्या चीज़ है ये मेरे लहू में घुली हुई

कुछ बूढ़े मेरे गांव के संजीदा हो गए
फेंकी जो मैंने शहर की भाषा धुली हुई

मुंबई महानगर में सूर्यभानु गुप्त और जावेद अख़्तर ने अपना सफ़र साथ-साथ शुरु किया था। जावेद को मंज़िलें मिलीं। सूर्यभानु गुप्त को साल 2018 में जावेद अख़्तर अवार्ड मिला। उनका सफ़र जारी है। शायर बनना कितना मुश्किल काम है, इसे बताने के लिए मैं अपने संचालन में प्राय: सूर्यभानु गुप्त की ये पंक्तियां कोट करता हूँ

रात रोने से कब घटी साहब
बर्फ़ धागे से कब कटी साहब
सिर्फ़ शायर वही हुए जिनकी
ज़िंदगी से नहीं पटी साहब

आपने गुलज़ार साहब की त्रिवेणियों का ज़िक्र ज़रूर सुना होगा। सूर्यभानु गुप्त तो चालीस साल पहले ही त्रिपदी यानी त्रिवेणी लिख चुके थे-

शाख़ कुछ यूँ गुलाब देती है
जैसे नज़रें झुकाके लड़के को,
कोई लड़की जवाब देती है

आपात काल के बाद जनता पार्टी की सरकार बनने पर उन्होंने दूसरी आज़ादी शीर्षक से त्रिपदियों की एक सीरीज़ लिखी थी। तत्कालीन सरकार में उस वक़्त कोई पद न लेने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण की क्या स्थिति थी इसे आप सूर्यभानु गुप्त की एक त्रिपदी से समझ सकते हैं-

धूल ही धूल हर गली बाबा !
चोर सारे सवार घोड़ों पर,
और पैदल इधर अलीबाबा

आपातकाल के बाद हुए आम चुनाव में श्रीमती इंदिरा गाँधी की पराजय का दृश्य देखिए-

जमत-जमते पिघल गया सब कुछ
ऐसे झुमका गिरा बरेली में,
एक पल में बदल गया सब कुछ

आदरणीय नीरज से एक बार मैंने हिंदी ग़ज़लकारों के बारे में उनकी राय पूछी। उनका कहना था कि वैसे तो हिंदी के हज़ारों कवि ग़ज़ल लिख रहे हैं मगर तग़ज़्ज़ुल दो-चार लोगों के ही पास है। उनमें सूर्यभानु गुप्त का नाम पहला है। सूर्यभानु गुप्त की अभी तक सौ ग़ज़लें भी सामने नहीं आई हैं। वे ग़ज़ल तभी लिखते हैं जब लिखने का मूड होता है। उनका एक शेर है -

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के
मूड आता है तब निकलते हैं


सूर्यभानु गुप्त ने गीत, ग़ज़ल, नज़्म, दोहा, त्रिपदी,चतुष्पदी, हाइकू आदि कई काव्य विधाओं में सार्थक और सराहनीय लेखन किया। आज भी उनका ख़ामोश सफ़र जारी है। अंत में उनका एक दोहा सुनिए

भर्ती के कवि हर गली, करते निज निजघोष
जिनकी कविता बोलती, वे रहते खामोश

सम्पर्क :
आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126 

सूर्यभानु गुप्त, 2, मनकू मेंशन, सदानन्द मोहन जाधव मार्ग, 
दादर (पूर्व), मुम्बई 400014, दूरभाष : 022-24137570

11 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

देवमणि जी मैं आपकी राय से शत प्रतिशत सहमत हूँ...सूर्य भानु जी आज ग़ज़ल के श्लाखा पुरुष है...सर्वश्रेष्ठ हैं...ग़ज़ल के क्षेत्र में उनके किये विलक्षण प्रयोगों को ही आज के बाकी ग़ज़लकार दोहरा रहे हैं...उनकी ग़ज़लें तब से पढ़ रहा हूँ जब दुष्यंत जी का नाम भी नहीं सुना था...ये सच है की नाम कमाने के लिए अपने आपको बेचना आना चाहिए...सच्ची साहित्य साधना लेखक को मानसिक संतोष भले ही दे नाम नहीं दे सकती...वैसे हर कोई नाम का भूखा भी नहीं होता...और नाम के लिए अपने लेखन या सिद्धांत से समझौते नहीं कर सकता...शायद इसीलिए वो जिस मुकाम पर होने चाहियें थे वहां नहीं पहुँच पाए , फिर भी जिन्होंने उन्हें पढ़ा है वो जानते हैं की वो किस श्रेणी के शायर हैं...अफ़सोस की बात है की हम जीते जी किसी की महानता को नहीं पहचानते लेकिन उसके जाते ही उसकी पूजा करने लग जाते हैं...अधिक तर प्रसिद्द लोगों के साथ ऐसा ही हुआ है...गजानंद माधव मुक्तिबोध उसका जीता जागता उदाहरण हैं...

आपने जो उनके अशआर पढवाएं है वो बेजोड़ हैं और आज इतने वर्षों बाद भी वैसी ही ताजगी लिए हुए जैसी उस वक्त लिए हुए थे...शाश्वत लेखन ये ही तो होता है...जो समय की मार के असर से बचा रहता है...आपका बहुत बहुत शुक्रिया.
नीरज

pran sharma ने कहा…

SURYA BHANU GUPT KE ASHAAR PADHWANE
KE LIYE AAPKAA BAHUT-BAHUT SHUKRIYA.
AAPNE JO SURYA BHANU KEE
LEKHNI KO UJAAGAR KIYAA HAI,VAH
SRAHNIY HAI.AAP JAESE BAHUT KAM
LIKHNE WALE HAIN JO DOODH KO
DOODH AUR PANI KO PANI KAHTE HAIN.

Manoj Rautela ने कहा…

BAHUT KHOOB....!KABILE TAREEF...

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई देवमणि जी, सूर्यभानू गुप्त जी को मैं तब से पढ़ता आ रहा हूँ जब नया नया साहित्य पढ़ने और लिखने का जुनून सवार हुआ था यानी बात कहीं सन 72-73 की होगी। धर्मयुग में गुप्त जी की ग़ज़लें अक्सर पढ़ने को मिल जाती थीं, बाद में इधर उधर अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी उनकी ग़ज़लें पढ़ने का अवसर मिला। ग़ज़ल की मुझे अच्छी समझ नहीं हैं पर क्या है कि अच्छी ग़ज़लें पढ़ने का शौक पुराना है। आपने बहुत सही लिखा कि सूर्यभानू गुप्त जी को कोई कमलेश्वर नहीं मिला। अगर मिल गया होता तो स्थिति कुछ और होती। पर भाई दुष्यंत जी को कमेलश्वर मिला और वह साहित्याकाश में छा गए तो इसके पीछे उनकी न भूलने वाली ग़ज़लें ही हैं। अगर रचना में दम ही नहीं होगा तो भले ही उस शायर को एक नहीं बीस कमलेश्वर मिल जाएँ, वह अपना कोई मुकाम नहीं बना सकता। "साये में धूप" की ग़ज़लें नकार दी जाने वाली नहीं हैं और इस वजह से दुष्यंत की काबलियत को कम करके नहीं आंका जा सकता कि उनके मित्र कमलेश्वर थे। सूर्यभानू गुप्त जी की ग़ज़लें हों, दोहे हों,या उनकी त्रिवेणियाँ नि:संदेह भाषा, भाव, शैली, सम्वेदना और विचार में बेजोड़ हैं और पाठक/श्रोता के दिल पर सीधा असर करती हैं। इस बेजोड़ रचनात्मकता के चलते गुप्त जी का कद किसी भी बड़े कवि/शायर से कम नहीं है। कुछ लोग निरंतर साधनारत रहते हैं और अपना श्रेष्ठ चुपचाप देते रहते हैं,वे इस बात की फिक्र नहीं करते कि कोई उनका कमलेश्वर बनता है या नहीं, सूर्यभानू गुप्त जी उन्हीं में से एक हैं।

rekhamaitra ने कहा…

devmaniji,
aapne sooryabhanu gupt kee jin ghajlon ka ullekh kiya hai ,ve yaqeenan bejor hain ,unse shayar kee
moulikta ka pata to milta hee hai . der tak jehan pa chhaee rahtee hain. shayar ko mera naman . sarvshresth kah pane kee chhamta naheen hai ki maine sabhee shayron ko padha nahee hai .sajhe kee behad shukraguzaar hoon .
Rekha Maitra

तिलक राज कपूर ने कहा…

जी हॉं, सूर्यभानु गुप्‍त गुप्‍त एक ऐसा नाम है जो परिचय का मोहताज़ नहीं; उस पीढ़ी के लिये जिसने धर्मयुग काल में उन्‍हें पढ़ा और बाद में भी पढ़ते रहे।
आप ज्ञानी पुरुष हैं आपके लिये सरल था एक शोधार्थी को यह बताना कि हिन्‍दी का श्रेष्‍ठ ग़ज़लकार कौन है। मुझसे पूछा होता तो मैं कहता कि आप शोध कर रही हैं तो पहले से ही निष्‍कर्ष पर क्‍यों पहुँचना चाहती हैं, शोध कीजिये और शोध के आधार पर इस प्रश्‍न का उत्‍तर जग को दीजिये।
मेरा मानना है कि तुलनात्‍मक टिप्‍पणी एक गंभीर विषय है, बहुत लोगों की भावनायें जुड़ी होती हैं। अब मैं कहूँ कि प्रसून जोशी के मुकाबले का कोई गीतकार नहीं आज के सिनेमा में, तो कितनी भावनायें आहत होंगी और अगर उन आहत भावनाओं से प्रतिक्रियायें आने लगीं तो?
हर रचनाधर्मी अपनी सीमा में सर्वश्रेष्‍ठ देने का प्रयास करता है, और वह क्‍या मकाम रखता है यह किसी की व्‍यक्तिगत टिप्‍पणी का विषय नहीं होना चाहिये। हॉं हम जिसके बारे में बात कर रहे हैं उसकी बारे में अपने साधार विचार रखने के लिये स्‍वतंत्र हैं वह भी मर्यादाओं का पालन करते हुए।
प्रश्रय प्राप्‍त शायर मुशायरों में तो स्‍थान पा सकता है लेकिन अवाम के दिल में नहीं।
किसने कितना लिखा, कितना छपा; इससे अधिक महत्‍वपूर्ण है कि कितने दिलों में जगह बनाई, और वस्‍तुत: माटी के खिलौनों की दुनिया से आगे मायने तो यह भी नहीं रखता।
सूर्यभानु गुप्‍त जी का अपना सम्‍मानजनक स्‍थान है और किसी तुलनात्‍मक टिप्‍पणी के कारण पलटवार प्रतिक्रियाओं की स्थिति बने यह ठीक नहीं होगा।

बेनामी ने कहा…

धन्यवाद पांडे जी, गुप्त जी की चुनिंदा अच्छी गज़लें प्रकाशित करने के लिए. त्रिपदी भी बहुत बेजोड हैं.आप जिस तरह से साहित्य सेवियों की रचनाओ के बारे में लिखकर और उनकी जीवनी से लोगों अवगत को कराते हैं वे उन लोगों के लिए मील का पत्थर साबित होगा, जिन्हें उनका सान्निध्य नही मिला है. बधाई आपको साहित्य की सेवा इस रुप में करने के लिए.

Harihar ने कहा…

काफी जीवन्त शेर ! जानकारी के लिये धन्यवाद

vijay kumar sappatti ने कहा…

devmani ji , itne acche lekh ke liye dhanywaad .. suryabhaanu ji ko main pahle padha tha aur unse kaafi prabhavit hoon ..

aapko aabhar

vijay

Unknown ने कहा…

Dev mani Bhai sach kehta hun maza aa gaya surya bhanu ji kee shayari padh ke. Aapka bohot bohot shukriya. Arso baad hindi main kutch achha padha
Tigmanshu

प्रदीप कांत ने कहा…

सहमत