हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
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अब अकसर चुप चुप से रहे हैं यूं ही कभू लब खोले हैं
पहले फ़िराक़ को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले हैं
इलाहाबाद के एक मुशायरे में फ़िराक़ गोरखपुरी जब ग़ज़ल पढ़ने के लिए खड़े हुए तो श्रोताओं में ज़रा सी फुसफुसाहट हुई फिर शोर मच गया । श्रोतागण ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे । फ़िराक़ साहब भड़क गए – लगता है आज मूंगफली बेचने वालों ने अपनी औलादों को मुशायरा सुनने भेज दिया है । मंच पर बैठे शायरों की निगाह फ़िराक़ साहब की तरफ़ गई तो पता चला कि शेरवानी के नीचे से उनका नाड़ा लटक रहा है । और पब्लिक उसे ही देखकर हँस रही है । मगर किसकी मजाल कि फ़िराक़ साहब को आगाह करे। अचानक शायर कैफ़ी आज़मी उठकर फ़िराक़ साहब के पास गए । उनकी शेरवानी उठाकर लटकते नाड़े को कमर में खोंस दिया और वापस अपनी जगह बैठ गए । फिर पब्लिक की हँसी थम गई और फ़िराक़ साहब ने अपने निराले अंदाज में ग़ज़ल पढ़ी -
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्नो-इश्क़ तो धोखा है सब मगर फिर भी
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई-नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी
यह आंखों देखा हाल बताया मुंबई के वरिष्ठ शायर ज़फ़र गोरखपुरी ने। वे भी मंच पर मौजूद थे। भारतीय ज्ञानपीठ की तरफ़ से 1971 में साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ मिलने के बाद एक इंटरव्यू में फ़िराक़ साहब ने कह दिया कि उर्दू ग़ज़ल को हिंदुस्तान में आए अर्सा हो गया । लेकिन हैरत की बात है कि इसमें यहां के खेत-खलिहान, समाज, संस्कृति, गंगा-यमुना और हिमालय क्यों नहीं दिखाई पड़ते। इन कमियों को ख़ुद फ़िराक़ साहब ने दूर करने की कोशिश की । सूरदास के कृष्ण की परम्परा में उनकी एक रुबाई देखिए -
आंगन में ठुनक रहा ज़िदयाया है
बालक तो भई चांद पे ललचाया है,
दरपन उसे दे के कह रही है मां
देख, आईने में चांद उतर आया है
यहां तक कि फ़िराक़ साहब ने उर्दू शायरी के ऐंद्रिक सौंदर्य को सांस्कृतिक लिबास पहना कर उसे पाकीज़गी तक पहुँचाने का नेक काम भी किया –
लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीज़ा -ए -सुब्ह गुनगुनाए जैसे
ये रुप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुस्कराए जैसे
ऐसा माना जाता है कि जब हम किसी बड़ी शख़्सियत या कलाकार से मिलते हैं तो उसकी प्रतिभा का कुछ अंश हमें भी प्राप्त हो जाता है और हम भीतर से ख़ुद को समृद्ध महसूस करने लगते हैं। इस बारे में ज़रा फ़िराक़ साहब के फ़िक्र की उड़ान तो देखिए –
ज़रा विसाल के बाद आईना तो देख ऐ दोस्त
तेरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई
फ़िराक़ साहब कितने ख़ुद्दार आदमी थे, इसे आप एक घटना से समझ सकते हैं। एक बार इलाहाबाद के एक मुशायरे में फ़िराक़ साहब ने ग़ज़ल पढ़ना शुरु किया- ‘कभी पाबंदियों से छुटके भी ’ मिसरा पूरा होने से पहले ही पीछे से एक आवाज़ आई - वाह वाह ! फ़िराक़ साहब उखड़ गए - कौन बदतमीज़ है यह । इसे बाहर निकालो तभी मैं पढूंगा। इतना कहकर वे अपनी जगह पर वापस जाकर बैठ गए । हाल में सन्नाटा छा गया । मुशायरे पर ब्रेक लग गया । आयोजकों ने ढूंढ़कर उस आदमी को हाल से बाहर निकाला तब फ़िराक़ साहब वापस माइक पर गए और ग़ज़ल को आगे बढ़ाया –
कभी पाबंदियों से छुटके भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हों जिसमें वही ज़िंदाँ नहीं होता
हमारा ये तजुर्बा है कि ख़ुश होना मुहब्बत में
कभी मुश्किल नहीं होता कभी आसां नहीं होता
फ़िराक़ साहब मानते थे कि ग़ज़ल ज़िंदगी से बातचीत है। इस लिए तरक़्क़ीपसंद या जदीदियत की परवाह किए बिना उन्होंने हमेशा ज़िंदगी का साथ दिया। उनके चंद अशआर देखिए-
शामें किसी को मांगती हैं आज भी फ़िराक़
गो ज़िंदगी में यूं मुझे कोई कमी नहीं
काफी दिनों जिया हूं किसी दोस्त के बगैर
अब तुम भी साथ छोड़ने को कह रहे हो, ख़ैर
आए थे हँसते खेलते मयख़ाने में फ़िराक़
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए
यह भी कहा जाता है कि हर दौर का अच्छा शायर हमेशा प्रगतिशील होता है।शायद इसी लिए जाने माने आलोचक कालिदास गुप्ता ‘रिज़ा’ कहते थे – फ़िराक़ साहब बींसवी सदी के सबसे बड़े शायर थे। फ़िराक़ साहब के ग़ज़ल संग्रह ‘सरगम’ की भूमिका में रमेशचंद्र द्विवेदी ने लिखा है - फ़िराक़ की शायरी में जो गूँज और प्रतिध्वनियां हमें मिलती हैं उनमें एक अद्वितीय सुहानापन है, भारत की धरती की सुगंध है, भारतीय संस्कृति के मातृत्व का स्पर्श है। ऐसा लगता है कि ग़ज़ल एक देवी के रूप में सोलहों सिंगार के साथ बाल संवारे, केश छिटकाए सामने आकर खड़ी हो जाती है और हमारे आँसुओं को अपने चुम्बन से पोंछ देती है। यह सांत्वना प्रदायिनी विशेषता उर्दू में शायद ही कहीं और मिलती हो। करुण रस और शांत रस का ऐसा संगम फ़िराक़ से पहले उर्दू कविता में बहुत कम देखा गया था। यह गुण हिंदू-कल्चर की देन है –
छिड़ गए साज़े-इश्क़ के गाने
खुल गए ज़िंदगी के मयख़ाने
हासिले-हुस्नो-इश्क़ बस इतना
हासिले-हुस्नो-इश्क़ बस इतना
आदमी आदमी को पहचाने
यह सच किसी से छुपा नहीं है कि फ़िराक़ साहब की ज़िंदगी दुख का समंदर थी। सन 1914 में एक साज़िश के तहत जिस लड़की से उनका विवाह हुआ वह बेहद कुरूप और अनपढ़ थी। उनके एक बेटा भी था। नवीं कक्षा में बार-बार फेल हो जाने और सहपाठियों के निर्दय मज़ाक के कारण इस लड़के ने अठारह-उन्नीस वर्ष की उम्र में ही आत्महत्या कर ली। फ़िराक़ साहब के तख़लीक के सफ़र में ग़म हमेशा हमसफ़र रहा -
मौत का भी इलाज हो शायद
यह सच किसी से छुपा नहीं है कि फ़िराक़ साहब की ज़िंदगी दुख का समंदर थी। सन 1914 में एक साज़िश के तहत जिस लड़की से उनका विवाह हुआ वह बेहद कुरूप और अनपढ़ थी। उनके एक बेटा भी था। नवीं कक्षा में बार-बार फेल हो जाने और सहपाठियों के निर्दय मज़ाक के कारण इस लड़के ने अठारह-उन्नीस वर्ष की उम्र में ही आत्महत्या कर ली। फ़िराक़ साहब के तख़लीक के सफ़र में ग़म हमेशा हमसफ़र रहा -
मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं
हम तो कहते हैं वो ख़ुशी ही नहीं
हम तो कहते हैं वो ख़ुशी ही नहीं
जिस में कुछ ग़म का इम्तिज़ाज नहीं
छियासी वर्ष की उम्र में 3 मार्च 1982 को दिल्ली में इस महान शायर का स्वर्गवास हुआ। आज भी उनकी शायरी की ख़ुशबू से पूरी दुनिया का ज़हन महक रहा है।
छियासी वर्ष की उम्र में 3 मार्च 1982 को दिल्ली में इस महान शायर का स्वर्गवास हुआ। आज भी उनकी शायरी की ख़ुशबू से पूरी दुनिया का ज़हन महक रहा है।
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126
12 टिप्पणियां:
देवमणि भाई,
सौ बार शुक्रिया अजी सौ बार शुक्रिया।
फिराक साहब की जि़न्दगी के अनछुए पहलुओं से परिचय कराने के लिये।
दुनिया चाहे कुछ भी बोले, मैं तो बस ये कहता हूँ
अच्छे शायर को पढ़ने को हरदम उद्यत रहता हूँ।
आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हम _असीरों
जब उनको ये ध्यान आएगा तुम ने फिराक को देखा था
देव मणि जी
किन लफ़्ज़ों में आपका शुक्रिया अदा करें...उर्दू शायरी की अजीम शख्शियत से मिलवा कर आप ने हम पाठकों पर अहसान किया है...बेहतरीन पोस्ट...बधाई स्वीकार करें.
नीरज
देव साहिब
आज एक मुद्दत के बाद कुछ अच्छा पढने को मिला
सुबहो होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो
बहुत खूब
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क
Khoobsoorat prastuti ke liye aabhaar.
बहुत खूब पोस्ट ! देवमणि जी आप अपने ब्लॉग के माध्यम से बड़े शायरों के अनछुए पहलुओं को सामने रख कर उनकी बेहतरीन शायरी से जिस प्रकार पाठकों को रू ब रू करा रहे हैं, उसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। अपना यह क्रम जारी रखें। भीड़ से हटकर काम करने का मज़ा ही कुछ और होता है।
फ़िराक साहब के कि़स्से बहुत मशहूर हैं कहते हैं एक बार उनकी पत्नी मायके से आई और आते ही फ़िराक साहब ने पूछ कि भई वो मिरची का आचार ले के आई हो? जवाब न में मिला तो फ़िराक़ साहब ने अपनी शरीके-हयात को दरवाज़े से ही बापिस भेज दिया कि जाओ पहले आचार ले के आओ।
धन्यवाद देवमणि जी !
हर बार की तरह आपकी हर पोस्ट ताजा और काबिले तारीफ़ होती हैं .इस बार फ़िराक साहब से जुडे कुछ हास्य के किस्से तो कुछ उनकी जिंदगी के दर्द को बयां करते किस्से,कभी गुदगुदी तो कभी आंखों को नम कर गये...पांडे जी बहुत-बहुत आभार !
बहुत खूब देवमणि जी.आपके ब्लॉग से काफी जानकारी मिलती है। क्या शेर लिखा है..
कभी पाबंदियों से छुटके भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हों जिसमें वही ज़िंदाँ नहीं होता
हमारा ये तजुर्बा है कि ख़ुश होना मुहब्बत में
कभी मुश्किल नहीं होता कभी आसां नहीं होता
बहुत खूब देवमणि जी. फिराक साहेब के बारे में अच्छी जानकारी मुहैया करने के लिए धन्यवाद |
वाह साहब खूब याद दिलाई आपने फिराक साहब की हमें भी फख्र है की हमने भी फिराक को देखा है -आख़िरी दिनों में बच्चों जैसा बर्ताव करते थे ...
व्यवस्थित और रोचक लेख
bahtrin bahut khub
badhia aap ko is ke liye
shkehar kumawat
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