सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

तारिक़ क़मर का ग़ज़ल संग्रह : पत्तों का शोर

शायर डॉ. तारिक़ क़मर का जन्म सम्भल, मुरादाबाद (उ.प्र.) में हुआ। फ़िलहाल आप ईटीवी उर्दू, लखनऊ में सीनियर एडीटर की ज़िम्मेदारी हैं सँभाल रहे हैं। हाल ही में ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है- पत्तों का शोर। आसान लफ़्जों में अच्छी शायरी करना बहुत बड़ा हुनर माना जाता है। अगर ये हुनर है तो शायरी बंद कपाटों से बाहर निकलकर अवाम की सोच और सरोकार का हिस्सा बन जाती है। तारिक क़मर ऐसे ख़ुशनसीब शायर हैं जिनमें ये हुनर है। उनके कई शेर मुशायरों और रिसालों के ज़रिए आम लोगों की ज़बान पर हैं -

सच बोलें तो घर में पत्थर आते हैं
झूठ कहें तो ख़ुद पत्थर हो जाते हैं

क़ाग़ज की एक नाव अगर पार हो गई
इसमें समंदरों की कहाँ हार हो गई

\मेरे तो दर्द भी औरों के काम आते हैं
मैं रो पड़ूँ तो कई लोग मुस्कराते हैं

शायरी की इस किताब में शामिल दो नज्में आपके लिए पेश कर रहा हूँ। - देवमणि पांडेय

(1) तरक़्क़ी कर रहा हूँ मैं

कभी मैं गाँव में इक कच्चे घर में ख़्वाब बुनता था
मगर अब शहर की इक पॉश कॉलोनी में रहता हूँ
न अब फ़ाके ही करता हूँ न मैं दुख-दर्द सहता हूँ
तरक़्क़ी कर रहा हूँ मैं… 

मुझे अब शहर की इस भीड़ से वहशत नहीं होती
सड़क भी पार करने में कोई दिक़्क़त नहीं होती
धुंए और शोर का भी अब तो आदी हो चुका हूँ मैं
तरक़्क़ी कर रहा हूँ मैं...

मैं अब मसरुफ़ रहता हूँ ज़रा मोहलत नहीं मिलती
किसी को याद भी करने की अब 
फ़ुरसत नहीं मिलती
सभी यादें सभी बातें मैं पीछे छोड़ आया हूँ
सभी रिश्ते, तअल्लुक सारे बन्धन तोड़ आया हूँ
कहाँ अब अपने माज़ी को पलटकर देखता हूँ मैं
तरक़्क़ी कर र्हा हूँ मैं...

मैं दिन भर काम करता हूँ
और अपना काम निपटाकर थका हारा हुआ सा
रात को कमरे में आता हूँ
उदासो-मुन्तज़िर कमरे की फिर बत्ती जलाता हूँ
इसी कमरे के इक कोने में रक्खे गैस पर खिचड़ी
पकाता हूँ
मगर फिर ये भी होता है
कि छोटा सा कोई कंकर मेरे दाँतों में आकर टूट
जाता है
तो अम्मा याद आती है

अम्मा याद आती है, अचानक ग़म का इक बादल
मेरे सीने से उठता है
मेरी आँखे भिगोता है
मुझे महसूस होता है
मेरी अम्मा ने शायद गाँव में खाना नहीं खाया
तभी तो आज फिर दाँतों में ये कंकर चला आया
तरक़्क़ी कर रहा हूँ मैं...

(1) रौशनी

तुम उस सितारे को देखते हो
वो इक सितारा जो मेरी उँगली की
सीध में है
जो दूसरों के मुक़ाबले में ज़रा ज़्यादा
चमक रहा है

वही सितारा हैं मेरे अब्बू
उसी सितारे के थोड़ा नीचे
तुम अपने दायीं तरफ़ को देखो
दिये की सूरत जो एक तारा चमक रहा है
वो नन्हा तारा है मेरा भाई

मैं अपनी अम्मी के साथ अक्सर
रौशनी की इन्हीं क़तारों में
अपने अब्बू को अपने भाई को ढूँढता हूँ
यही बताया गया है मुझको
यही पढ़ाया गया है मुझको
जो लोग अच्छे हैं इस ज़मीं पर
वो सब अलामत हैं रौशनी की
जो लोग अच्छे गुज़र चुके हैं
वो आसमाँ पे सितारे बनकर चमक रहे हैं

अगर तुम्हारा भी कोई तुमसे बिछड़
गया हो
अगर तुम्हें भी किसी से मिलने की
आरज़ू हो
तो अपने खोए हुओं को तुम भी
रौशनी की इन्हीं क़तारों में ढूँढ लेना
चाँद तारों में ढूँढ लेना


सर्म्पक : डॉ. तारिक़ क़मर, ईटीवी न्यूज, 
12A/1, मॉल एवेन्यू, हज़रतगंज, लखनऊ (यू.पी.)
ई-मेल- : tariqamar@rediffmail.com
फ़ोन : 093359-15058

 Devmani Pandey : 98210-82126

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

दुनिया से जो मिला है : देवमणि पांडेय की ग़ज़ल




देवमणि पांडेय की ग़ज़ल

दुनिया से जो मिला है वह दर्द किससे बाँटें
पत्थर की बस्तियों में ये उम्र कैसे काटें

ये क्या हुआ लबों की मुस्कान क्यों है ज़ख़्मी
बच्चों को आप डाटें, ऐसे मगर न डाटें

है वक़्त का तक़ाज़ा नज़रों में वो हुनर हो
कंकर के ढेर से बस हीरों की आप छाँटें

दिन का हरेक लम्हा वो दर्द दे गया है
तारे न हम गिनें तो फिर रात कैसे काटें

आबाद होगी उस पल ख़्वाबों की एक दुनिया

जो बीच हैं दिलों के उन दूरियों को पाटें


देवमणि पांडेय : 98210-82126