मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

उज़्बेकिस्तान : मज़हबी पाबंदियों से मुक्त इस्लामिक देश

 
मज़हबी पाबंदियों से मुक्त इस्लामिक देश उज़्बेकिस्तान

इस्लामिक देशों के बारे हमारे मन में एक अलग ही इमेज़ होती है। मगर सन् 2012 में उज़्बेकिस्तान पहुँचकर पांच दिन ताशकंद में और एक दिन समरकंद में घूमते हुए जो सामाजिक, सांस्कृतिक और मज़हबी मंज़र नज़र आया वह हमें हैरत में डाल देने वाला था। उज़्बेकिस्तान एक जनतांत्रिक इस्लामिक देश है। मगर यहाँ का जीवन अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और सऊदी अरब के इस्लामपरस्त लोगों से बिल्कुल अलग है। हमें यहाँ सड़क, मैदान या किसी मुहल्ले में कहीं भी कोई मस्जिद, मक़तब या मदरसा नज़र नहीं आया। कहीं कोई अज़ान नहीं सुनाई दी। यहाँ तक कि कोई चर्च या मंदिर भी दिखाई नहीं पड़ा। कोई महिला मज़हबी लिबास (बुर्क़ा) नहीं पहनती।

हमारे गाइड रुस्तम ने बताया कि समरकंद में अमीर तिमूर (तैमूर लंग) के मक़बरे के अंदर एक मस्जिद है और ताशकंद में हज़रत इमाम के मकबरे के अंदर एक मस्जिद है। मगर ये इबादत के बजाय पर्यटन के प्रमुख केंद्र हैं। कुछ लोग अपने घरों के अंदर नमाज़ अदा करते हैं मगर उसके लिए कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं है। यहाँ मुस्लिम, ईसाई और ईश्वर को न मानने वाले वामपंथियों के बीच ज़ब़ान और मज़हब को लेकर कोई संघर्ष भी नहीं है। उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद की जनसंख्या 30 लाख है। इनमें 90% मुसलमान हैं और 8% क्रिचियन हैं और 2% में बाकी दुनिया शामिल है। सन् 1991 में सोवियत यूनियन से अलग होकर एक आज़ाद देश बनने के बावजूद उज़्बेकिस्तान ने मज़हबी मरकज़ बनाने के बजाय मूलभूत सुविधाओं- शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के विकास पर ज़ोर दिया। यहाँ बी.ए. तक सभी के लिए शिक्षा मुफ्त़ है।
आज़ादी का स्मारक : इंडिपेंडेंस स्क्वायर

उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद का सबसे प्रमुख स्थल माना जाता है - इंडिपेंडेंस स्क्वायर। पहले इसका नाम था लेनिन स्क्वायर। सन् 1955 में जब यह बना था तो एक ऊँचे स्तम्भ पर लेनिन की आदमकद विशाल प्रतिमा स्थापित की गई थी। सन् 1991 में सोवियत यूनियन से आज़ाद होकर उज़्बेकिस्तान एक जनतांत्रिक इस्लामिक देश बन गया। लेनिन की प्रतिमा ध्वस्त कर दी गई और उसकी जगह एक ग्लोब स्थापित किया गया। इस ग्लोब पर उज़्बेकिस्तान का मानचित्र अंकित किया गया है। ग्लोब के नीचे अपनी गोद में शिशु लिए एक जवान माँ बैठी है। उसके चेहरे पर आत्मीय मुस्कान है। माँ बच्चे से कह रही है- 'बेटा तू बहुत ख़ुशक़िस्मत है जो आज़ाद मुल्क में पैदा हुआ'।

इंडिपेंडेंस स्क्वायर के दूसरे कोने पर एक बूढ़ी माँ की उदासी में डूबी हुई प्रतिमा है। यह शोकमग्न माँ अपने उन बेटों का इंतज़ार कर रही है जो कभी नहीं लौटेंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध में उज़्बेकिस्तान के छ: लाख लोग मारे गए थे। उनकी याद में यहाँ एक अमर ज्योति अनवरत जल रही है। नज़दीक के बरामदे में ताम्रपत्रों पर इन शहीदों के नाम अंकित हैं। नाम के साथ उनके जन्म और मृत्यु का साल भी दर्ज किया गया है।
चौदह हज़ार शहीदों का स्मारक : शहीद पार्क

ताशकन्द शहर के मध्य में टीवी टावर के पास हरियाली और फूलों से समृद्ध एक पार्क में शहीदों का भव्य स्मारक आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। यह किसी युद्ध में शहीद हुए सैनिकों का स्मारक नहीं है। हमारे गाइड ने बताया कि यह उन 14000 बुद्धिजीवियों, विचारकों, लेखकों और कलाकारों की यादों का मरक़ज़ है, जिन्हें किसी समय उज़्बेकिस्तान को सोवियत रिपब्लिक का हिस्सा बनाने के लिए एक साथ, एक जगह इकट्ठा करके क़त्ल करने के बाद यहीं दफ़ना दिया गया था। उस वक़्त यह एक निर्जन स्थान था। आज़ाद देश बनने पर इसे शहीद पार्क बनाया गया। पास से गुज़रती एक नदी की धारा को मोड़ कर इसके बीचों-बीच से गुज़ारा गया । पक्के किनारों वाली इस नदी, हरियाली और फूलों ने शहीद पार्क को बेहद ख़ूबसूरत बना दिया है। आज यह पार्क कला और साहित्य का पावन तीर्थ बना हुआ है और दूर-दूर से लोग शहीदों की स्मृति को सलाम करने के लिए आते हैं।
ताशकन्द, समरकन्द और बुखारा

उज़्बेकिस्तान एक छोटा-सा, हरा-भरा और बहुत प्यारा देश है। यहाँ के तीन प्रमुख शहर- ताशकन्द, समरकन्द और बुखारा मशहूर हैं। ताश माने पत्थर और कंद माने शहर। ताशकन्द यानी पत्थरों का शहर। इसके चारों तरफ़ छोटे-छोटे पहाड़ हैं। वास्तुकला के नायाब नमूने हैं। यहाँ गगनचुम्बी इमारतें नहीं हैं क्यों कि यहाँ कभी-कभी तेज़ भूकम्प आते हैं। ताशकंद से चारवाक लेक जाते हुए रास्ते में एक छोटा-सा क़स्बा नज़र आता है ग़ज़लकन्द। ग़ज़लकन्द यानी ग़ज़लों का शहर। यहाँ के लोग कहते हैं कि ग़ज़ल यहीं पैदा हुई और बाद में मक़बूल होकर पूरी दुनिया पर छा गई।

समर कहते हैं फल को। फलों ने समरकन्द को इतनी दौलत दी है कि इसे अमीर लोगों का शहर कहा जाता है। जगह-जगह अंगूर, सेब, चेरी, खुबानी, खरबूज़ और तरबूज़ दिखाई पड़ते हैं। यहाँ तक कि इस शहर की गलियों में भी लोहे के पाइप पर अँगूर की बेलें झूलती रहती हैं और राहगीरों को धूप से बचाती हैं। ड्राई फ्रूट का विशाल मार्केट भी यहीं है। सन् 1398 में जब अमीर तिमूर (तैमूर लंग) दिल्ली आया था तो वह समरकंद का बादशाह था। यहाँ तैमूर लंग का बनवाया हुआ एक शानदार मक़बरा है। इसके गुम्बद की नक़्क़ाशी में सोने का भरपूर उपयोग किया गया है। कहा जाता है कि उसने यह मक़बरा अपने बेटे के लिए बनवाया था। एक दुर्घटना में अपनी जान गँवाने पर ख़ुद तैमूर लंग को इसी में दफ़न होना पड़ा। चंगेज़ ख़ाँ, नादिर शाह और बाबर का भी समरक़ंद और बुखारा से ऐतिहासिक रिश्ता रहा है। वैसे बुखारा को सूफ़ियों का शहर माना जाता है। हमें बताया गया कि यह निज़ामुद्दीन औलिया की मुहब्बत तथा मुइनुद्दीन चिश्ती की इबादत का शहर है।

परदे से मुक्त महिलाओं का समाज

ताशकंद के प्रमुख बाज़ारों, चिमगान हिल, चारवाक लेन और समरकंद के विशाल ड्राई फ्रूट मार्केट में घूमते हुए हमने देखा कि यहाँ की महिलाएं परदा नहीं करतीं। बाज़ार में, रेस्तराँ में, शापिंग माल में वे मर्दों से अधिक संख्या में चुस्ती-फुर्ती से काम करती हुई नज़र आती हैं। वे देर रात तक आज़ादी से घूमती- फिरती हैं। हमारे गाइड ने बताया कि यहाँ लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या दो गुनी है। काफ़ी महिलाएं ऊपरी दाँतों में सोना मढ़वाती हैं। वे जब हँसती या बोलती हैं तो यह स्वर्णिम दंतपंक्ति बड़ी सुंदर लगती है। यहाँ की अधिकांश लड़कियाँ हाई हील पहनती हैं। होटल और रेस्तराँ में हाई हील पहनकर लड़कियाँ बैली डांस करती हैं। जब वे बिजली की गति से नाचती हैं तो हाई हील पर उनका बैलेंस देखने लायक होता है। 

आर्थिक आत्मनिर्भरता

उज़्बेकिस्तान में खेती-बारी ज़बरदस्त है। गेहूँ, सब्ज़ियां, फल बहुतायत से पैदा होते हैं। कपास निर्यात करने में उज़्बेकिस्तान दुनिया में तीसरे नम्बर पर है। तेल और गैस भी भरपूर है। भारतीय मुद्रा में पेट्रोल 25 रूपए लीटर है। सात रूपए का टिकट लेकर मेट्रो ट्रेन या लो फ्लोर वातानुकूलित बस में पूरे दिन कहीं भी आ-जा सकते हैं। यहाँ मोटर सायकिल, बाइक या स्कूटर नहीं हैं। महज कारें, बसें और टैक्सियाँ ही नज़र आती हैं। इक्का-दुक्का अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश कारें और टैक्सियाँ सफ़ेद रंग की ही हैं। यहाँ के लोगों में ख़ुद इतना अनुशासन है कि छ: दिन में हमें कहीं हार्न की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी। हमारी बस के ड्राइवरों ने भी कभी हार्न नहीं बजाया।
अपराध मुक्त देश उज़्बेकिस्तान

उज़्बेकिस्तान एक अपराध मुक्त देश है। हमको यहाँ कहीं भी पुलिस के दर्शन नहीं हुए। गीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र के साथ सुबह 6 बजे मार्निंग वाक करते हुए हम संसद भवन के गेट पर चले गए। संसद भवन पर भी पुलिस का पहरा नहीं है। गाइड ने बताया कि यहाँ अपराध ज़ीरो है। न चोरी, न डकैती, न मार पीट, न भ्रष्टाचार। आम जनता को अंग्रेजी बिल्कुल नहीं आती। बस चंद लोगों को काम चलाऊ अंग्रेज़ी ही आती है। किसी दुकानदार से कुछ ख़रीदिए और अंग्रेज़ी में दाम पूछिए तो वह कुछ बोलता नहीं, झट से कलकुलेटर या मोबाइल स्क्रीन पर टाइप करके दाम दिखा देता है। कहीं अंग्रेज़ी का अख़बार भी नज़र नहीं आता। यहाँ तक कि हमारे चार सितारा होटल पार्क ट्यूरान की लॉबी में भी कोई अख़बार नहीं दिखाई पड़ा- चैन हो जाए अगर मुल्क में अख़बार न हो। उज़्बेकी ज़बान में कुछ अख़बार निकलते ज़रूर हैं मगर प्रसार बहुत कम है।

ताशकंद में सुख, सुविधा और शांति

उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में हर तरफ़ हरियाली है, रंग-बिरंगे फूल हैं। न तो कोई घास पर बैठता है और न ही कोई घास पर चलता है । कोई फूल भी नहीं तोड़ता। ऐसे अलिखित नियमों का पालन हर इंसान करता है क्यों कि वे स्व-अनुशासित हैं। यूएस डॉलर की तुलना में स्थानीय मुद्रा सोम की क़ीमत बहुत कम है। सौ डॉलर में अढ़ाई लाख सोम मिलते हैं। चाय एक हज़ार, कॉफी दो हज़ार और टैक्सी का न्यूनतम किराया तीन हज़ार सोम है। ताशकंद में कई भारतीय होटल-रेस्तराँ हैं जहाँ भारतीय वेज़ और नानवेज़ भोजन मिल जाता है। पिछले 21 साल से राष्ट्रपति इस्लाम करीमोव अपने पद पर बने हुए हैं। पाँच राजनीतिक पार्टियाँ हैं मगर राजनीतिक उठापटक नहीं है। इस लिए यहाँ सुख, सुविधा और शांति है।
हमारे देश भारत के लिए उज़्बेकिस्तान के लोगों में बहुत प्यार है। शास्त्री स्ट्रीट में हमारे स्व. प्रधान मंत्री लालबहादुर शास्त्री की प्रतिमा को उन्होंने बहुत आदर से साफ़-सुथरा और सँभालकर रखा है। बच्चों से लेकर लड़कियाँ, मर्द और औरतें जब हमें देखते हैं तो बड़े प्यार से सिर झुकाकर या अदब से हाथ जोड़कर कहते हैं- नमस्ते। वे नमस्ते इतनी विनम्रता और म्यूज़िकल ढंग से बोलते हैं कि तबियत ख़ुश हो जाती है।

सृजन सम्मान (छत्तीस गढ़) की ओर से पांचवा अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन, ताशकंद, उज्बेकिस्तान में आयोजित किया गया था। उन्हीं के सौजन्य से 24 से 30 जून 2012 तक उज़्बेकिस्तान की यह साहित्यिक यात्रा सम्पन्न हुई थी। इसमें देश-विदेश से 135 हिंदी रचनाकारों को आंत्रित किया गया था।


आपका- 
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्यापाड़ा, 
गोकुलधाम, फ़िलमसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई - 400 063,
फोन : 98210-82126

गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

मर्यादा क़ानूनों की : डॉ क्षमा पांडेय का काव्यसंग्रह

मर्यादा क़ानूनों की : डॉ क्षमा पांडेय का काव्यसंग्रह

मनुष्य के सोच और सरोकार की अभिव्यक्ति के लिए कविता एक असरदार माध्यम है। भोपाल की कवयित्री डॉ क्षमा पांडेय ने अपनी कविताओं के ज़रिए यह साबित किया है कि वैचारिक संवाद के लिए काव्य सृजन का इस्तेमाल कितनी ख़ूबसूरती से किया जा सकता है। उनके नए काव्य संग्रह का नाम है-  मर्यादा क़ानूनों की। कथ्य की नवीनता और  प्रस्तुतीकरण के धारदार तेवर के कारण यह काव्य संग्रह पाठकों के मन मस्तिष्क पर एक गहरी छाप छोड़ने में सक्षम है। 

डॉ क्षमा पांडेय की कविताओं का फलक बहुत व्यापक है। उनकी कविताएं देश, समाज, और मनुष्यता के पक्ष में खड़ी हैं। ये कविताएं विषय वैविध्य का अद्भुत नमूना हैं। क्षमा जी ने स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, पर्यावरण, मां, बेटी, पिता, दीदी, फूल, प्रेम, वर्षा, मनुष्य, विश्व शांति आदि विषयों पर कविताएं लिखकर नई पीढ़ी के सामने देश प्रेम, समाज प्रेम और प्रकृति प्रेम का आदर्श प्रस्तुत किया है। अपनी संवेदना के ज़रिए ये कविताएं पाठकों के साथ अपना एक आत्मीय रिश्ता जोड़ लेती हैं।

डॉ क्षमा पांडेय का जन्म एक साहित्यिक परिवार में हुआ। वे "लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती" जैसी प्रेरक कविता लिखने वाले पद्मश्री राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की सुपौत्री हैं। उनके पिता डॉ शिव शरण द्विवेदी संस्कृत साहित्य के  प्रकांड विद्वान और कवि थे। मां मनोरमा देवी का संगीत से गहरा लगाव था। ऐसे साहित्यिक माहौल में डॉ क्षमा पांडेय की रचनात्मकता को आगे बढ़ने का हौसला मिला। अपनी सशक्त लेखनी से उन्होंने साबित किया कि वे एक समर्थ कवयित्री हैं।

'मर्यादा क़ानूनों की' काव्य संकलन के लिए मैं डॉ क्षमा पांडेय को हार्दिक बधाई देता हूं। मेरी शुभकामना है कि उनकी कविताओं को जनमानस में लोकप्रियता हासिल हो और वे इसी तरह कामयाबी की मंज़िलें तय करती रहें।

नमन प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली से प्रकाशित किस काव्य संग्रह का मूल्य ₹250 है। डॉ क्षमा पांडेय का सम्पर्क नंबर है 9826 99 1191.

आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, 
फ़िल्म सिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, 
मुंबई- 400063, 98210-82126

रविवार, 20 दिसंबर 2020

सच ही तो कहा है : प्रदीप गुप्ता का काव्य संग्रह

हर समय बस आप बोलें और मैं सुनता रहूं

लॉकडाउन के दौरान वक़्त की झोली से लम्हों की जो सौग़ात हासिल हुई उसका लोगों ने अपने मन मुताबिक सदुपयोग किया। देश के एक प्रतिष्ठित बैंकिंग संस्थान से सेवानिवृत्त कवि, लेखक, पत्रकार और छायाकार प्रदीप गुप्ता ने अपनी रचनात्मकता का सबूत देने के लिए गुज़रे दिनों की खिड़किया़ं खोलीं और जमकर कविताएं लिखीं। ईशा प्रकाशन मुंबई से प्रकाशित उनके काव्य संग्रह का नाम है- 'सच ही तो कहा है'। लॉकडाउन के दौरान घरों में क़ैद लोग किस मानसिकता से गुज़र रहे थे इसे कवि प्रदीप गुप्ता की दो लाइनों से समझा जा सकता है-

इन दिनों घर पर ही हूं कब किधर जाता हूं मैं
जब कभी सांकल बजे फिर तो डर जाता हूं मैं

कवि प्रदीप गुप्ता ने अपना यह काव्य संकलन यारों के यार सिने पत्रकार मनोहर ठाकुर की स्मृति को समर्पित किया है। मनोहर ठाकुर के आवास पर अंधेरी में अक्सर कविता पाठ और संगीत की महफ़िलें जमती थीं। लोग झूम कर सुनते और बाद में वहां से झूमते हुए अपने घर जाते। मनोहर ठाकुर के निधन के बाद अब वहां सिर्फ़ तनहाइयां झूमती हैं।

प्रदीप गुप्ता की कविताओं से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान ख़ुद को उदासी और अवसाद की गिरफ़्त में आने नहीं दिया। उनकी कविताओं में महकती हुई तन्हाई है, चाहत है, मुहब्बत है और दिल के अफ़साने हैं। उन्होंने इन कविताओं में किशोरावस्था के रंगीन जज़्बातों और हसीन अरमानों का गुलदस्ता पेश किया है।

दिलकश ज़बान में लिखी गई ये कविताएं सीधा दिल के दरवाज़े पर दस्तक देती हैं। प्रदीप गुप्ता ने तस्लीम किया है कि आज भी उनके भीतर एक किशोर ज़िंदा है। इसी वजह से इस उम्र में भी वे रोमानी कविताएं लिख रहे हैं। ख़ास बात यह है कि उनके इज़हार के लहजे में भी किशोरावस्था का जोश, उमंग और तरंग है। उन्होंने लिखा है-

इश्क़ बैंक बैलेंस नहीं है, ना ही बिजनेस खाता है
इसमें पाने से भी ज़्यादा, खोकर बड़ा मज़ा आता है

अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति में प्रदीप गुप्ता आम आदमी से भी अपना रिश्ता जोड़ लेते हैं। वस्तुत: यह उनकी सृजनात्मक उपलब्धि है-

हर समय बस आप बोलें और मैं सुनता रहूं
अब तो पानी चढ़ गया है सर से ऊपर ऐ हुज़ूर

किस क़दर हालात बिगड़े हैं ज़माने के प्रदीप
आदमी बेबस है लेकिन ख़ून खौले है ज़रूर

किशोरावस्था में समाज की बंदिशों और मानदंडों की परवाह किए बिना सपने उड़ान भरते हैं। कवि प्रदीप गुप्ता ने भी बंदिशों की क़ैद से आज़ाद होकर मुक्त मन से ये कविताएं लिखी हैं। मधुर भावनाओं से सजी हुईं ये कविताएं काव्याकाश पर उन्मुक्त उड़ान भरती हैं।

कहा जाता है कि हर आदमी के भीतर एक बच्चा होता है। उसी तरह कह सकते हैं कि हर आदमी के भीतर एक किशोर होता है जो मुहब्बत की ज़बान बोलता है। प्रदीप गुप्ता की कविताओं में छलकते हुए मीठे जज़्बात हैं। मधुर भावनाओं का उमड़ता हुआ समंदर है। मुहब्बत का बहता हुआ दरिया है। आप अपना बौद्धिक जामा उतार कर अगर इन कविताओं के पास जाएंगे तो ये कविताएं आपको पसंद आएंगी। इनसे गुज़रते हुए आप भी एहसास की ख़ुशबू से तरबतर हो जाएंगे।
कुल मिलाकर प्रदीप गुप्ता का यह काव्य संग्रह युवा दिल के तारों में झंकार पैदा करने की सामर्थ्य रखता है। मैं उन्हें बधाई और शुभकामनाएं देता हूं कि वे इसी तरह महकते ख़्वाबों के गुलदस्ते सजाते रहें और दिल की दुनिया को महकाते रहें।

आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुंबई- 400063, 98210-82126

दर्द का अहसास : विवेक का ग़ज़ल संग्रह

दर्द का अहसास : विवेक का ग़ज़ल संग्रह

ग़ज़ल एक ऐसा राजमार्ग है जिस पर लाखों मुसाफ़िर सफ़र तय कर रहे हैं। इस कारवां में दूसरों से अलग नज़र आना लाज़िमी है। इसके लिए अपना कथ्य, अपनी ज़बान और अपना अंदाज़ ए बयां चाहिए। यह अच्छी बात है कि ग़ज़लकार ओंकार सिंह 'विवेक' के पास रचनात्मकता की यह पूंजी है।

मेरा अंदाज़ ए बयां मेरा मिज़ाज
ख़ुद समझ लीजे मेरे अशआर से

अपने प्रथम ग़ज़ल संग्रह 'दर्द का अहसास' में ओंकार सिंह 'विवेक' ने यह साबित करने कि सराहनीय कोशिश की है कि क्या कहना है और कैसे कहना है।

जब घिरा छल फ़रेबों के तूफ़ान में
मैंने रक्खा यकीं अपने ईमान में
दूसरों को नसीहत से पहले ज़रा
झांकिए आप अपने गरीबान में

ग़ज़ल एक लंबा फासला तय कर चुकी है। आज की ग़ज़ल वक़्त के बदलते हुए मिज़ाज की साक्षी है। आज का युग जज़्बात का नहीं व्यावहारिकता का युग है। इस तल्ख़ हक़ीक़त को विवेक अपनी ग़ज़लों में रेखांकित करते हैं।

जिस किसी को देखिए है तल्ख़ उसका ही मिज़ाज
अब कहां है नम्रता और सादगी व्यवहार में
तुझको मैं आगाह कर दूं अक़्ल का यह दौर है
काम लेने की ज़रूरत अब नहीं जज़्बात से
किसी को फ़र्ज़ की अपने यहां कोई नहीं चिंता
मगर हक़ मांगने को हर कोई तैयार बैठा है

अपने अहसास को अल्फ़ाज़ में पिरोकर विवेक ने ग़ज़ल का दामन सजाया है। उन्होंने आसान ज़बान, बोलचाल की शैली और छोटी बहर में कई ऐसी ग़ज़लें कही हैं जो पाठकों को पसंद आएंगी-

कर रहे हैं मंज़िलों की जुस्तजू
लोग अपना हौसला खोते हुए
ख़्वाब से कैसे हो आंखें आशना
जागते रहते हैं हम सोते हुए

विवेक को उर्दू लफ़्ज़ों से कुछ ज़्यादा ही मुहब्बत है। उन्होंने कई ऐसे उर्दू शब्दों का इस्तेमाल अपनी ग़ज़लों में किया है जो आम प्रचलन में नहीं हैं। उन्हें इस बंदिश से आज़ाद होने की ज़रूरत है। जब वे आम बोलचाल की ज़बान में अपनी बात कहते हैं तो उसका असर ज़्यादा दिखाई देता है।

किसी के ग़म को हमें अपना ग़म बनाने में
बड़ा सुकून मिला नेकियाँ कमाने में

ओंकार सिंह 'विवेक' ने अपने प्रथम ग़ज़ल संग्रह में बेहतर संभावनाओं का संकेत दिया है। अपने आसपास की दुनिया, अपने समाज की हक़ीक़त और अपने वक़्त के सवालों को उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति कौशल से ग़ज़लों में ढालने की कोशिश की है। मुझे उम्मीद है कि अपनी सीमाओं को पहचान कर वे निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर रहेंगे। 'दर्द का अहसास' ग़ज़ल संग्रह के लिए मैं उन्हें हार्दिक बधाई देता हूं और अंत में उन्हीं का एक शेर उनको भेंट करता हूं।

मश्क करना बहुत ज़रूरी है
शायरी में निखार लाने को

आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा,
गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, गोरेगांव पूर्व,
मुंबई- 400063, 98210-82126

 

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

हिंदुस्तान के लोक कवि अब्दुर्रहीम खानखाना

 

हिंदुस्तान के लोक कवि खानखाना रहीम

हिंदी में शोध ग्रंथों की दशा और दिशा से आप सुपरिचित हैं। कंकड़ के इस ढेर में कभी-कभी हीरे भी नज़र आते हैं। डॉ दीपा गुप्ता की प्रकाशित शोध पुस्तक 'खानखाना रहीम' से गुज़रते हुए महसूस हुआ कि यह पुस्तक सृजनात्मकता का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। सौ से अधिक किताबों के अध्ययन, मनन और अनुशीलन से डॉ दीपा गुप्ता ने लोक कवि खानखाना रहीम का जो व्यक्तित्व निर्मित किया है वह बेमिसाल और विलक्षण है। उल्लेखनीय है कि रहीम के कवि रूप के साथ साथ दीपा जी ने उनके शौर्य और पराक्रम वाले रूप को भी प्रमुखता से सामने रखा है।
अब्दुर्रहीम खानखाना अपनी काव्यात्मक उपलब्धियों के ज़रिए आज भी भारतीय जनमानस में रचे बसे हैं। दीपा गुप्ता अपने शोध में इस तथ्य को सामने लाती हैं कि खानखाना रहीम ने अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत, ब्रज, अवधी आदि कई भाषाओं में काव्य रचना की। नीति, भक्ति, श्रृंगार और जीवन दर्शन से समृद्ध अपने दोहों के लिए रहीम आज भी लोक स्मृति का हिस्सा बने हुए हैं। लोक भाषा में लोक भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले उनके दोहे आज भी बात बात में उद्धृत किए जाते हैं-
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय
टूटे तो फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ि जाय
रहीम जिस तरह हमारी परंपरा और संस्कृति से जुड़े लोक नायकों को दोहे का कथ्य बनाते हैं वह अद्भुत है- थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरिधर कहे न कोय जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घट जाहिं गिरिधर-मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं दूध में मिश्री की तरह रहीम भारतीय समाज में घुल मिल गए थे। कृष्ण भक्त रहीम ने आम आदमी की सोच से अपना रिश्ता जोड़ लिया था। उन्होंने कई ऐसे दोहे रचे जो आज भी भारतीय समाज में आचरण और व्यवहार की कसौटी माने जाते हैं-

रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राख्यो गोय सुनि इठलइहैं लोग सब, बांट न लेइहैं कोय टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ताहार
डॉ दीपा गुप्ता ने अपनी इस शोध पुस्तक के ज़रिए रेखांकित किया है कि जीवन के अंतिम दिनों तक रहीम को बार-बार युद्ध में शामिल होना पड़ा। वे बार-बार शाही खानदान के सदस्यों के छल कपट का शिकार हुए। कई बार उन्हें गंभीर मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ा। जहांगीर के शासनकाल में रहीम को उपेक्षा और अनादर के दिन देखने पड़े। ऐसी विषम परिस्थितियों में रहते हुए रहीम ने किस तरह लगातार काव्य सृजन किया यह हैरत की बात है। रहीम अपने संगीत प्रेम के लिए भी विख्यात हुए।

खानखाना रहीम ने परंपरा से प्राप्त विविध काव्य विधाओं में काव्य रचना के अलावा बरवै छंद में 'बरवै नायिका भेद' लिखा। उनकी यह कृति काफ़ी पसन्द की गई। रहीम क़लम और तलवार दोनों के धनी थे। वे हुमायूं के विश्वासपात्र और अकबर के संरक्षक बैरम खां के सुपुत्र थे। सोलह साल की उम्र में सम्राट अकबर के सेनापति के रूप में रहीम रण क्षेत्र में सक्रिय हो गए थे। युवावस्था में ही गुजरात युद्ध में अदभुत शौर्य का परिचय देने के बाद उनको खानखाना की उपाधि प्रदान की गई थी।
जीवन के आख़िरी दिनों में खानखाना रहीम लाहौर में थे। वे आख़िरी सांस दिल्ली में लेना चाहते थे। लाहौर से दिल्ली पहुंचने पर सन् 1627 में लगभग 72 वर्ष की उम्र में रहीम का प्राणांत हो गया। दिल्ली में हुमायूं के मकबरे के पास खानखाना रहीम की कब्र मौजूद है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में आगा खां ट्रस्ट फॉर कल्चर ने इसके पुनरुद्धार की ज़िम्मेदारी ली है। ट्रस्ट के प्रयास से रहीम के मकबरे को नया स्वरूप प्राप्त हुआ है।
डॉ दीपा गुप्ता संभल (उप्र) की मूल निवासी हैं। उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा के एक कॉलेज में विगत सोलह साल से हिंदी पढ़ाती हैं। राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उनके शोध, लेख, कहानी और कविताओं का नियमित प्रकाशन होता है। खानखाना रहीम पर यह शोध कार्य उन्होंने 23 वर्ष की उम्र में किया था। किताब कुछ समय पहले प्रकाशित हुई। दीपाजी के अनुसार रहीम का जीवन जैसा गरिमामय, आदर्श और विराट था उनका काव्य भी उतना ही उदात्त एवं मंगलमय है। उसमें अनुभूति, सरसता और अभिव्यंजना तीनों का ही उदात्त रूप प्राप्त होता है।

रहीम का जन्म 17 दिसंबर 1556 को हुआ था। पिता बैरम ख़ान की अप्रत्याशित मृत्यु होने पर 4 साल के अबोध बालक रहीम को आगरा बुलाकर अकबर ने उनकी शिक्षा दीक्षा का समुचित प्रबंध किया। रहीम ने अपने गुरुजनों से अरबी, फारसी, तुर्की और संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। रहीम की दानशीलता के अनेक क़िस्से लोक में किवदंती बन गए।
दान देते समय रहीम अपनी आंखें नीची रखते थे क्योंकि उनके मन में कीर्ति की कामना नहीं थी। एक बार गंग कवि ने उनसे पूछा-
सीखे कहाँ नवाब जू, ऐसी दैनी दैन
ज्यों ज्यों कर ऊंचा करो, त्यों त्यों नीचे नैन
इस पर रहीम ने उत्तर दिया-
देनदार कोई और है, भेजत है दिन रैन
लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन
खानखाना रहीम कवि, सेनानी, संगीत रसिक और कला पारखी होने के साथ साथ दीन दुखियों के मददगार थे। सरल सहज भाषा और आत्मीय शैली में लिखी गई डॉ दीपा गुप्ता की यह कृति रहीम के व्यक्तित्व और कृतित्व को बड़े सलीक़े और सुरुचिपूर्ण तरीके से हमारे सामने उद्घाटित करती है। इस कृति के ज़रिए डॉ दीपा गुप्ता ने यह साबित किया है कि अगर अध्ययन, चिंतन, लगन और समर्पण से शोध किया जाए तो वह साहित्य की एक अमूल्य धरोहर बन सकता है। इस सुंदर कृति के लिए मैं डॉ दीपा गुप्ता को बधाई देता हूं। उम्मीद करता हूं कि वे सृजनात्मकता के इस सिलसिले को आगे भी जारी रखेंगी। इसी नेक ख़्वाहिशात के साथ-
आपका-

देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा,
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