शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के : सूर्यभानु गुप्त की ग़ज़लें

परिचय : कवि सूर्यभानु गुप्त 

जन्म : 22 सितम्बर, 1940, नाथूखेड़ा (बिंदकी), जिला : फ़तेहपुर ( .प्र.) बचपन से ही मुंबई में 12 वर्ष की उम्र से कविता लेखन।

प्रकाशन : पिछले 50 वर्षो के बीच विभिन्न काव्य-विधाओं में 600 से अधिक रचनाओं के अतिरिक्त 200 बालोपयोगी कविताएँ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। समवेत काव्य-संग्रहों में संकलित एवं गुजराती, पंजाबी, अंग्रेजी में अनूदित

फ़िल्म गीत-लेखन : ‘गोधूलि’ (निर्देशक गिरीश कर्नाड ) एवंआक्रोशतथासंशोधन’ (निर्देशक गोविन्द निहलानी ) जैसी प्रयोगधर्मा फ़िल्मों के अतिरिक्त कुछ नाटकों तथा आधा दर्जन दूरदर्शन- धारवाहिकों में गीत शामिल।
प्रथम काव्य-संकलन : एक हाथ की ताली (1997), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली – 110 002
​​पुरस्कार : 1. भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर , 2. परिवार पुरस्कार (1995), मुम्बई
पेशा : 1961 से 1993 तक विभिन्न नौकरियाँ सम्प्रति स्वतंत्र लेखन

सम्पर्क : 2, मनकू मेंशन, सदानन्द मोहन जाधव मार्ग, दादर ( पूर्व ), मुम्बई- 40001,
दूरभाष : 099694-71516 / 022-2413-7570


सूर्यभानु गुप्त की ग़ज़लें

(1)


पहाड़ों के क़दों की खाइयाँ हैं
बुलन्दी पर बहुत नीचाइयाँ हैं

ऐसी तेज़ रफ़्तारी का आलम
कि लोग अपनी ही ख़ुद परछाइयाँ हैं

गले मिलिए तो कट जाती हैं जेबें
बड़ी उथली यहाँ गहराइयाँ हैं

हवा बिजली के पंखे बाँटते हैं
मुलाज़िम झूठ की सच्चाइयाँ हैं

बिके पानी समन्दर के किनारे
हक़ीक़त पर्वतों की राइयाँ हैं

गगन-छूते मकां भी, झोपड़े भी
अजब इस शहर की रानाइयाँ हैं

दिलों की बात ओंठों तक आए
कसी यूँ गर्दनों पर टाइय़ाँ हैं

नगर की बिल्डिंगें बाँहों की सूरत
बशर टूटी हुई अँगड़ाइयाँ हैं

जिधर देखो उधर पछुआ का जादू
सलीबों पर चढ़ीं पुरवाइयाँ हैं

नई तहज़ीब ने ये गुल खिलाए
घरों से लापता अँगनाइयाँ हैं

असर में लोग यूँ हैं रोटियों के
ख़यालों तक गईं गोलाइयाँ हैं

यहाँ रद्दी में बिक जाते हैं शाइर
गगन ने छोड़ दी ऊँचाइयाँ हैं

कथा हर ज़िंदगी की द्रोपदी-सी
बड़ी इज़्ज़त-भरी रुस्वाइयाँ हैं

जो ग़ालिब आज होते तो समझत
ग़ज़ल कहने में क्या कठिनाइयाँ हैं

( 2)

अपने घर में ही अजनबी की तरह
मैं सुराही में इक नदी की तरह

एक ग्वाले तलक गया कर्फ़्यू
ले के सड़कों को बन्सरी की तरह

किससे हारा मैं, ये मेरे अन्दर
कौन रहता है ब्रूस ली की तरह

उसकी सोचों में मैं उतरता हूँ
चाँद पर पहले आदमी की तरह

अपनी तनहाइयों में रखता है
मुझको इक शख़्स डायरी की तरह

मैंने उसको छुपा के रक्खा है
ब्लैक आउट में रोशनी की तरह

टूटे बुत रात भर जगाते हैं
सुख परीशां है गज़नवी की तरह

बर्फ़ गिरती है मेरे चेहरे पर
उसकी यादें हैं जनवरी की तरह

वक़्त-सा है अनन्त इक चेहरा
और मैं रेत की घड़ी की तरह

(3)
हर लम्हा ज़िन्दगी के पसीने से तंग हूँ
मैं भी किसी क़मीज़ के कॉलर का रंग हूँ

मोहरा सियासतों का, मेरा नाम आदमी
मेरा वुजूद क्या है, ख़लाओं की जंग हूँ

रिश्ते गुज़र रहे हैं लिये दिन में बत्तियाँ
मैं बीसवीं सदी की अँधेरी सुरंग हूँ

निकला हूँ इक नदी-सा समन्दर को ढूँढ़ने
कुछ दूर कश्तियों के अभी संग-संग हूँ

माँझा कोई यक़ीन के क़ाबिल नहीं रहा
तनहाइयों के पेड़ से अटकी पतंग हूँ

ये किसका दस्तख़त है, बताए कोई मुझे
मैं अपना नाम लिख के अँगूठे -सा दंग हूँ

(4)

सुबह लगे यूँ प्यारा दिन
जैसे नाम तुम्हारा दिन

पाला हुआ कबूतर है
उड़, लौटे दोबारा दिन

दुनिया की हर चीज़ बही
चढ़ी नदी का धारा दिन

कमरे तक एहसास रहा
हुआ सड़क पर नारा दिन

थर्मामीटर कानों के
आवाज़ो का पारा दिन

पेड़ों-जैसे लोग कटे
गुज़रा आरा-आरा दिन

उम्मीदों ने टाई-सा
देखी शाम, उतारा दिन

चेहरा-चेहरा राम-भजन
जोगी का इकतारा दिन

रिश्ते आकर लौट गए
हम-सा रहा कुँवारा दिन

बाँधे-बँधा दुनिया के
जन्मों का बन्जारा दिन

अक्ल़मन्द को काफ़ी है
साहब ! एक इशारा दिन

(5)


जिनके अंदर चिराग जलते हैं
घर से बाहर वही निकलते हैं

बर्फ़ गिरती है जिन इलाकों में
धूप के कारोबार चलते हैं

दिन पहाड़ों की तरह कटते हैं
तब कहीं रास्ते निकलते हैं

ऐसी काई है अब मकानों पर
धूप के पाँव भी फिसलते हैं

खुदरसी उम्र भर भटकती है
लोग इतने पते बदलते हैं

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के
मूड आता है तब निकलते हैं

(6)

दिल में ऐसे उतर गया कोई
जैसे अपने ही घर गया कोई

एक रिमझिम में बस, घड़ी भर की
दूर तक तर--तर गया कोई

आम रस्ता नहीं था मैं, फिर भी
मुझसे हो कर गुज़र गया कोई
दिन किसी तरह कट गया लेकिन
शाम आई तो मर गया कोई

इतने खाए थे रात से धोखे
चाँद निकला कि डर गया कोई

किसको जीना था छूट कर तुझसे
फ़लसफ़ा काम कर गया कोई

मूरतें कुछ निकाल ही लाया
पत्थरों तक अगर गया कोई

मैं अमावस की रात था, मुझमें
दीप ही दीप धर गया कोई

इश़्क भी क्या अजीब दरिया है
मैं जो डूबा, उभर गया कोई

(7)

दिल लगाने की भूल थे पहले
अब जो पत्थर हैं फूल थे पहले

तुझसे मिलकर हुए हैं पुरमानी
चाँद तारे फिजूल थे पहले

अन्नदाता हैं अब गुलाबों के
जितने सूखे बबूल थे पहले

लोग गिरते नहीं थे नज़रों से
इश्क के कुछ उसूल थे पहले

जिनके नामों पे आज रस्ते हैं
वे ही रस्तों की धूल थे पहले

आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126

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