मंगलवार, 31 मई 2011

जब तलक रतजगा नहीं चलता : देवमणि पांडेय की ग़ज़ल



 

देवमणि पांडेय की ग़ज़ल

जब तलक रतजगा नहीं चलता
इश्क़ क्या है पता नहीं चलता

ख़्वाब की रहगुज़र पे जाओ
प्यार में फ़ासला नहीं चलता

उस तरफ़ चल के तुम कभी देखो
जिस तरफ़ रास्ता नहीं चलता

लोग चेहरे बदलते रहते हैं
कौन क्या है पता नहीं चलता

कोई दुनिया है क्या कहीं ऐसी
जिसमें शिकवा-गिला नहीं चलता

दिल अदालत है, इस अदालत में
वक़्त का फ़ैसला नहीं चलता

डलहौज़ी में एक सुबह

हर कली ओस में भीगकर
कैसे चुपचाप सोई हुई है
सब्ज़ पत्तों पे मुस्काए मोती
शाख़ सपनों में खोई हुई है

चाँदनी की फुहारों में जैसे
रूह धरती की धोई हुई है
आसमानों से बरसी है शबनम
या कोई आँख रोई हुई है


मनाली में एक शाम

यहाँ हसरतों से भी ऊँचे हैं पर्वत
उमंगो की रंगीन गहराइयाँ हैं
मस्ती का आलम दिलों में जगाएं
दरख़्तों की कुछ ऐसी अँगड़ाइयाँ हैं

यहां रंग मौसम के कितने निराले
हरियाली ऐसी कि दिल को चुरा ले
शाखों को छूकर हवा झूमती है
कोई ख़ुद को ऐसे में कैसे सँभाले

झरने से जैसे रुई झर रही
वादी में कोई परी हँस रही है
बिखरी हों ज़ुल्फ़ें अचानक किसी की
पहाड़ों पे ये शाम यूँ घिर रही है

यहाँ इतनी सुंदरता आई है कैसे
ख़ुदा ने ये वादी बनाई है जैसे
बिछी है शिखर पे सफेदी की चादर
दुपट्टे में लिपटी हो अँगड़ाई जैसे
  

देवमणि पांडेय : 98210-82126

3 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

दोनों रचनाये श्रेष्ठ हैं...डलहौजी और मनाली जैसी ही मनभावन

नीरज

सुभाष नीरव ने कहा…

खूबसूरत वादियों की तरह आपकी ये दोनों कविताएँ भी बेहद खूबसूरत हैं। बधाई !

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

बरसात से पहले ही आप ने वादियों की याद दिला दी, आभार देव भाई