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शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

डॉ राहत इंदौरी : सख़्त राहों में भी आसान सफ़र

शायर राहत इंदौरी के साथ शायर देवमणि पांडेय

रास्ते के पत्थरों से ख़ैरियत मालूम कर


उजाला बांटने वालों पे क्या गुज़रती है 
किसी चराग़ की मानिंद जलके देखूंगा

डॉ राहत इंदौरी पिछले पचास सालों से अपनी शायरी के ज़रिए ज़िंदगी की तारीकियों में रोशनी की लकीर खींचने का काम कर रहे थे। उन्होंने ग़ज़ल प्रेमियों को एहसास में भिगोया, हंसाया और उस मुक़ाम तक पहुंचाया जहां से लुत्फ़ और सुकून का दरवाज़ा खुलता है। डॉ राहत ने ग़ज़ल के हुस्न को बरकरार रखते हुए अदायगी के  पुरअसर अंदाज़ से ऐसा करिश्मा किया कि देश विदेश में उनके चाहने वालों की तादाद बढ़ती चली गई । जो लोग बाज़ौक हैं, शायरी में दिलचस्पी रखते हैं उनको राहत के दो चार शेर ज़रूर याद होंगे। राहत इंदौरी की शायरी के गुलशन में एक तरफ़ मुहब्बत के फूल खिलते हैं तो दूसरी तरफ़ वो सच्चाइयां मौजूद हैं जिनसे ज़िंदगी रोज़ रूबरू होती है।

मुंतज़िर हूं कि सितारों की ज़रा आंख लगे 
चांद को छत पे बुला लूंगा इशारा करके

ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर
रास्ते के पत्थरों से ख़ैरियत मालूम कर

डॉ राहत इंदौरी और मुशायरे

मुशायरे की अपनी ज़रूरतें होती हैं। मुशायरे में कामयाबी की शर्त है सामयीन यानी श्रोताओं से दाद वसूल करना और तालियां बजवाना। यह दोनों कारनामे डॉ राहत इंदौरी ने बख़ूबी अंजाम दिए। वे अक्सर कहते थे- मुझे पता है ग़ज़ल क्या होती है और मैं यह भी जानता हूं कि मुशायरा क्या है। डॉ राहत के पास मुशायरों में ग़ज़ल पेश करने का परफार्मिंग आर्ट था। इसके लिए वे बेहद मशहूर हुए। मगर उनकी कामयाबी में कंटेंट की अहमियत और इज़हार ए बयां का सलीक़ा भी शामिल है। ज़िंदगी, समाज और सियासत के मसाइल पर उनकी अच्छी पकड़ थी। कई बार उनके शेर बहस और विवाद का मुद्दा भी बने। दिलों को बांटने वाली सियासत पर उनके कुछ शेर ऐसे हैं जिनका मतलब लोग अपने अपने तरीक़े से निकालते हैं। किसी को ये  शेर अच्छे लगते हैं और कोई इनसे ख़फ़ा है- 

मुहब्बतों का सबक़ दे रहे हैं दुनिया को 
जो ईद अपने सगे भाई से नहीं मिलते

सभी का ख़ून शामिल है यहां की मिट्टी में 
किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है

डॉ राहत ने अपने इज़हार के लिए जिस ज़बान को अपनाया वो गली, मुहल्लों और चौराहों पर बोली जाने वाली ज़बान है। इस हिंदुस्तानी ज़बान को आम आदमी भी समझता है और पढ़े लिखे लोग भी पसंद करते हैं। आम आदमी की तरह उन्होंने भी सपने देखे। डॉ राहत की शायरी में सपनों की ताबीर कम है और ख़्वाबों के टूटने की गूंज ज़्यादा हैं। फिर भी वे इतने सीधे-साधे लहजे में बात करते हैं कि उनके कई शेर एक बार सुनते ही श्रोताओं को याद हो जाते हैं।

अफ़वाह थी कि मेरी तबीयत ख़राब है 
लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया 

लोग हर मोड़ पर रुक रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं

शाखों से टूट जाएं वो पत्ते नहीं हैं हम 
आंधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे

ज़िंदगी क्या है ख़ुद ही समझ जाओगे 
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो

पढ़े लिखे शायर डॉ राहत इंदौरी

डॉ राहत इंदौरी पढ़े लिखे शायर थे। उर्दू में एम ए और पीएचडी थे। इंदौर विश्वविद्यालय में उन्होंने 16 साल उर्दू साहित्य पढ़ाया। दस साल तक अदबी पत्रिका 'शाख़ें' का संपादन किया। हिंदुस्तान में मुशायरों के इतिहास पर पीएचडी हासिल की। डॉ राहत को यह पता था कि मुशायरों की शायरी का फ़न अलग है। इसलिए उन्होंने मुशायरों में मशहूरियत और कामयाबी का जमकर लुत्फ़ उठाया। मगर अदब का दामन भी नहीं छोड़ा। यही कारण है कि उर्दू में उनकी 6 किताबें प्रकाशित हुईं। हिंदी में भी उनकी एक किताब मंज़रे आम पर आई- 'चांद पागल है'।

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है 
चांद पागल है अंधेरे में निकल पड़ता है 
उसकी याद आई है सांसों ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है

राहत साहब के साथ कई बार मुझे भी कविता पाठ का अवसर मिला। कुछ साल पहले दक्षिण मुंबई के एक बैंक में वे कविता पाठ के लिए आए। बोले- यार मेरी हालत ख़राब है। डॉक्टर ने नॉनवेज खाने और शराब पीने के लिए मना कर दिया है। मैं एक साथ चालीस मिनट नहीं पढ़ पाऊंगा। आप मुझे थोड़ा थोड़ा दो बार पढ़वाइए। उस कार्यक्रम में कवि प्रदीप चौबे भी थे। हम तीनों के कविता पाठ के तीन दौर हो गए। डॉ राहत ने वहां कुछ ऐसे भी अशआर पेश किए जो आमतौर पर वे मुशायरों में नहीं पढ़ते।

नौजवां बेटों को शहरों के तमाशे ले उड़े 
गांव की झोली में कुछ मजबूर माँएँ रह गईं
एक-इक करके हुए रुख़सत मेरे कुनबे के लोग 
घर के सन्नाटे से टकराती हवाएं रह गईं

अपना तो मिले कोई 

मैंने कुरियर से राहत इंदौरी को अपना ग़ज़ल संग्रह 'अपना तो मिले कोई' भेजा। तीसरे दिन मैंने फ़ोन किया। उन्होंने कहा नहीं मिला। चौथे पांचवें दिन भी जवाब था- नहीं मिला। मेरे कुरियर वाले ने इंदौर के कुरियर वाले को फ़ोन किया। उसने बताया कि किताब को एक मैडम ने रिसीव किया है। थोड़ी देर बाद डॉ राहत का फ़ोन आया। उन्होंने ठहाका लगाया। बोले- यार आपकी किताब को मेरी बेगम ने रिसीव किया था। उनको किताब की डिजाइन ख़ूबसूरत लगी तो पन्ने पलटने शुरू किए। शायरी अच्छी लगी तो उन्होंने आपकी किताब को अपने तकिए के नीचे रख लिया। एक हफ़्ते से वही पढ़ रही हैं।

डॉ राहत इंदौरी इस दौर के मुशायरों के सबसे लोकप्रिय शायर थे। उनके नाम से मुशायरों में भीड़ जुटती थी। वे पूरी तैयारी के साथ मुशायरों में जाते थे। उन्होंने कभी आयोजकों को निराश नहीं किया। उनके पास लिखने का फ़न और हुनर था। मंच पर कलाम पेश करने की जो अदा थी वह किसी और शायर के पास नहीं है। इसलिए उनकी कमी लोगों को हमेशा महसूस होती रहेगी।

न जाने कौन सी मजबूरियों का क़ैदी हो 
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो 
हमारे ऐब हमें उंगलियों पे गिनवाओ 
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो

डॉ राहत इंदौरी की ग़ज़लें संगीत के कई अल्बम में शामिल हुईं। मुम्बई के गायक जसविंदर सिंह की आवाज़ में उनकी एक ग़ज़ल काफ़ी मशहूर हुई।

सख़्त राहों में भी आसान सफ़र लगता है 
ये मेरी माँ की दुआओं का असर लगता है
एक वीराना जहाँ उम्र गुज़ारी मैंने
तेरी तस्वीर लगा दी है तो घर लगता है
    
डॉ राहत इंदौरी के गीत कई फ़िल्मों में रिकॉर्ड हुए। पेश हैं उनके चंद सिने गीत जो काफ़ी पसंद किए गए-

1.कोई जाए तो ले जाए (घातक) 
2.नींद चुराई मेरी (इश्क़) 
3.देखो देखो जानम हम (इश्क़) 
4.देख ले आंखों में आंखें डाल (मुन्ना भाई एमबीबीएस) 
5.तुमसा कोई प्यारा कोई मासूम नहीं है (ख़ुद्दार)
6.ज़िंदगी नाम को हमारी है (आशियां)
7.धुंआ धुआं ... (मिशन कश्मीर)

डॉ राहत इंदौरी का जन्म इंदौर में 1 जनवरी 1950 को हुआ। उनका इंतक़ाल 70 साल की उम्र में 11 अगस्त 2020 को हुआ। इंग्लैंड और अमेरिका से लेकर उन्होंने कई देशों की यात्राएं कीं और अपनी शायरी से श्रोताओं का भरपूर मनोरंजन  किया। राहत इंदौरी के गुज़रने के बाद कवियों और शायरों की निष्ठा पर भी बात शुरू हो गई है। हमारे कुछ दोस्तों का कहना है कि कवियों और शायरों को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे सबके हैं और उनका रचनाकर्म सबके लिए होना चाहिए। 

सबसे ज़्यादा ऐतराज़ राहत इंदौरी के एक शेर के इस मिसरे पर हो रहा है कि "किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है।" यह शेर काफ़ी पुराना है। मुंबई में जब शिवसेना का ख़ौफ़ था तो हिंदी समाज के लोग यह शेर सुनकर ख़ूब तालियां बजाते थे। जब मनसे का ख़ौफ़ हुआ तो उन लोगों ने भी ख़ूब तालियां बजाईं थीं जो आज इस शेर पर ऐतराज़ कर रहे हैं। इससे लगता है कि देश और काल के अनुसार शेर के मानी बदलते रहते हैं। 'बाप का हिंदुस्तान' या "बाप की जागीर" एक मुहावरा है। हमें इस मुहावरे का भी ध्यान रखना चाहिए।

पंडित नेहरू के दोस्त शायर जोश मलीहाबादी पाकिस्तान जाकर पछताए थे। फिर भी नेहरू जी की कृपा से वो हर साल मुंबई के सालाना मुशायरे में भाग लेने के लिए आते थे और कई कई दिन रुकते थे।

राहत इंदौरी ने पाकिस्तान के एक मुशायरे में एक शेर पढ़ा था। इससे देश के प्रति उनकी भावना ज़ाहिर होती है। 

वो अब पानी को तरसेंगे जो गंगा छोड़ आए हैं
हरे झंडे के चक्कर में तिरंगा छोड़ आए हैं

हक़ीक़त यह है कि मुशायरा और कवि सम्मेलन साहित्य नहीं होता। वहां तालियां बजवाने के लिए मंचीय कवि और शायर जनता की भावनाओं का नाज़ायज़ फ़ायदा उठाते हैं। राजनीतिक हस्तियों का मज़ाक उड़ाते हैं। इसके लिए इतिहास में झांकें तो कई कवियों की पिटाई भी हो चुकी है। हमारे हिंदी कवियों ने भी आदरणीय अटल जी के घुटने और कुंवारेपन का कम मज़ाक नहीं उड़ाया है।

मेरे ख़याल से एक रचनाकार का नज़रिया स्वस्थ होना चाहिए। उसे अभिव्यक्ति में संतुलन रखना चाहिए। निदा फ़ाज़ली ने आडवाणी जी की रथ यात्रा पर नज़्म लिखी थी। अयोध्या विवाद पर कैफ़ी आज़मी ने 'दूसरा बनवास' कविता लिखी थी। दोनों ने इन रचनाओं का कई बार सार्वजनिक पाठ किया। दोनों को हिंदी जगत ने भी पसंद किया। यही रचनात्मकता है। हम सब रचनाकारों को मंच पर भी अभिव्यक्ति की आज़ादी और लेखन की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। हिंदी काव्य मंचों पर फूहड़ नोकझोंक करने वाली कवित्रियों को और संचालकों को जो लोग लाखों रुपए का भुगतान कर रहे हैं वे भी समाज के दुश्मन हैं। ऐसे लोग हमारे संस्कारों में ज़हर घोल रहे हैं। उनसे सावधान रहने की ज़रूरत है। 

शायर राहत इंदौरी के बेटे सतलज इंदौरी ने राहत साहब की आख़िरी ग़ज़ल हमसे साझा की। पेश है वही ग़ज़ल।

नए सफ़र का जो ऐलान भी नहीं होता
तो ज़िंदा रहने का अरमान भी नहीं होता

तमाम फूल वही लोग तोड़ लेते हैं
जिनके कमरों में गुलदान भी नहीं होता

ख़ामोशी ओढ़ के सोई हैं मस्ज़िदें सारी
किसी की मौत का ऐलान भी नहीं होता

वबा ने काश हमें भी बुला लिया होता
तो हम पर मौत का अहसान भी नहीं होता  (वबा = महामारी)

***
आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126
devmanipandey.blogspot.Com


बुधवार, 30 मई 2012

ग़ज़ल : दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती : कमेंट्स


ग़ज़ल : दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती : कमेंट्स

पहली किश्त पढ़कर लंदन से शायर प्राण शर्मा ने रोचक जानकारी दी। फ़िल्म उमराव जान में ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित शायर शहरयार की ग़ज़ल का मतला है -दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये / बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये। इस मतला के दोनो मिसरे बिहार के शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी की ग़ज़ल से उठाये गए थे। उनकी उस ग़ज़ल के दो शेर देखिए-

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये 
खंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये 

बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात 
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये 

इस लेख पर बहुत अच्छे-अच्छे कमेंट आए और एक महत्वपूर्ण चर्चा के लिए रास्ता खुला।नीरज गोस्वामी के अनुसार हर शेर चाहे वो किसी और के कहे जैसा क्यूँ न लगे अपनी महक अलग ही रखता है...ये बात ही शायरी को आज तक जिंदा रखे हुए है और जिंदा रखेगी। तिलक राज कपूर ने कहा- पूर्ण मौलिकता मिलना शायद कठिन हो लेकिन अगर शेर में कुछ भी नया है तो उसे समग्र मूल्‍यांकन में मौलिक माना जाना चाहिये। सतपाल ख़याल ने फ़रमाया- ग़ज़ल में बहुत दोहराव है। आप चराग और हवा पर अगर शेर खोजेंगे तो हैरान रह जायेंगे कि हर शायर चरागों को जलाता बुझाता रहता है। कोई शाम होते ही बुझा देता है तो कोई सुबह होते ही जला लेता है। नीलम अंशु का कहना है- पहली बार पता चला कि ग़ज़ल में भी ज़मीन झगड़े की वजह बनती है। ऐसे कमेंट्स के आधार पर दूसरे किश्त तैयार हुई है। तो आइए इसका भी लुत्फ़ उठाइए और चर्चा को आगे बढ़ाइए…
 
नीरज गोस्वामी : (रायगढ़, महाराष्ट्र)

सदियों से वही इंसान हैं और वही उनकी खुशियाँ दुःख समस्याएं... कुछ भी तो नहीं बदला सिवा समय के...न इंसानी फितरत न सोच...तो फिर नया ख़याल आएगा कहाँ से...बड़े बड़े शायर जो पहले कह गए उन्होंने कोई बात नयों के लिए छोड़ी ही नहीं...लेकिन मजे की बात है शायरी अब भी वो ही बात करती है जो पहले करती थी लेकिन उसके बदलते अंदाज़ ने उसे अब तक दिलचस्प बनाये रखा है...हर शायर उन्हीं घिसी पिटी बातों को अपने दिलचस्प अंदाज़े बयां से सुनने लायक बना देता है....यादगार बना देता है...लगता था ग़ालिब के बाद कोई क्या लिखेगा लेकिन साहब उनके बाद भी शायरी परवान चढ़ी और क्या खूब चढ़ी...ये सिलसिला कहीं थमने वाला नहीं...जैसे हर इंसान दो हाथ दो पैर वाला है लेकिन अपने आप में अनूठा है वैसे ही हर शेर चाहे वो किसी और के कहे जैसा क्यूँ न लगे अपनी महक अलग ही रखता है...ये बात ही शायरी को आज तक जिंदा रखे हुए है और जिंदा रखेगी...कुमार पाशी साहब ने इसी बात को क्या खूब कहा है:-

जो शे'र भी कहा वो पुराना लगा मुझे 
जिस लफ्ज़ को छुआ वही बरता हुआ लगा 


शायर तिलक राज कपूर : (भोपाल, म.प्र.)

मुझे याद आ रहे हैं मरहूम मोहसिन रतलामी जिन्‍होंने मुझे यह बात कुछ अलग तरह से कही थी। हुआ यह कि 'दिल के अरमॉं ऑंसुओं में बह गये' के हर शेर पर मैंने उलटी बात कही, मसलन: 'शायद उनका आखिरी हो ये सितम / हर सितम ये सोच कर हम सह गये'। इस पर मैनें कहा- 'सह लिया पहला सितम तुमने अगर / तो सितम सारी उमर ढायेंगे'। मोहसिन साहब बोले कि ये तो आपने ज़मीन उठा ली। मैनें आसमॉं उठाते तो सुना था मगर मेरे लिये ये नयी बात थी। बहरहाल बात समझ में आई तो मैनें कहा- हुजूर ज़मीन छोडि़ये, तेवर तो देखिये। 

मुझे लगता है कि हमें पूर्ण मौलिकता और समग्र मौलिकता में भेद करने की जरूरत है। आपकी प्रस्‍तुति के नज़रिये से देखें तो पूर्ण मौलिकता मिलना शायद कठिन हो लेकिन अगर शेर में कुछ भी नया है तो उसे समग्र मूल्‍यांकन में मौलिक माना जाना चाहिये। पूर्ण मौलिकता तो शायद अन्‍य काव्‍य में भी नहीं मिलेगी। एक और स्थिति हो सकती है मात्र संयोग की। एक ही ज़मीन पर कई-कई शेर कहने वाले कई शायर मिल जायेंगे। मुझे इसमें कुछ अजूबा नहीं लगता। हॉं, शब्‍दश: उठाये हुए शेर अलग दिख जाते हैं। तरही ग़ज़ल में तो एक पूरा मिसरा उठाना ही पड़ता है, मेरा मानना है कि ऐसे गिरह के शेर शायर को अपनी ग़ज़ल से खुद-ब-खुद खारिज कर देने चाहिये। 

आलोक श्रीवास्तव और मुनव्वर राना साहब के अशआर की स्थिति जरूर थोड़ा विचलित करती हैं। किसने पहले कहा ये तो मैं नहीं जानता लेकिन यहॉं जो समानता है वह आपत्तिजनक है। मीर और ग़ालिब के अशआर में तो अंतर की बहुत गुँजाइश है। 'चल अकेला' पर मुझे नहीं लगता कि किसी ओर से आपत्ति उठाई गयी हो। अभी आपने काव्‍य से काव्‍य का संदर्भ उठाया है ज़मीन की दृष्टि से। बहुत सा काव्‍य ऐसा मिल जायेगा जो किसी कहानी, उपन्‍यास या यहॉं तक कि यात्रा-वृतान्‍त से उठाया गया है। अगर तुलना में कहीं भेद की गुँजाईश है तो उसे महत्‍व दिया जाना चाहिये। यह भेद, शब्‍द, भाव, काल या अन्‍य किसी भी स्‍वरूप का हो सकता है। शायर के साथ यह समस्‍या अक्‍सर रहती होगी लेकिन कुछ तो होता ही है जो उसके कहे शेर को अलग पहचान देता है। नीरज भाई की टिप्‍पणी में कुमार पाशी साहब के शेर पर कहता हूँ कि:

अहसास, लफ़्ज़, बह्र, नया कुछ न जब मिला 
सोचा बहुत… कहूँ, न कहूँ, फिर भी कह गया


कवि वीनस केशरी : (इलाहाबाद, उ.प्र.)

देवमणि जी, अच्छी जानकारी दी है। शायर के साथ यह समस्‍या अक्‍सर रहती होगी लेकिन कुछ तो होता ही है जो उसके कहे शेर को अलग पहचान देता है। 

जनाब रामपाल अर्शी का शे'र -

कफ़न कांधे पे लेकर घूमता हूं इसलिये अर्शी
न जाने किस गली में जिंदगी का शाम हो जाये
 
शायर तिलक राज कपूर (भोपाल, म.प्र.)

वीनस के उदाहरण के संदर्भ में: 

कफ़न कांधे पे लेकर घूमता हूं इसलिये अर्शी
न जाने किस गली में जिंदगी का शाम हो जाये 

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये…

दो खूबसूरत शेर सामने हैं लेकिन बात है नज़रिये की। समालोचक की दृष्टि से देखूँ तो सब ठीक ठाक है लेकिन कुछ देर को आलोचक होने का दुस्‍साहस करूँ तो बहुत से दिलों को चोट पहुँचेगी फिर भी एक बात देखने की है कि शाम वृद्धावस्‍था की स्थिति है मृत्‍यु-काल की नहीं। और यहीं दोनों अशआर में मिसरों का परस्‍पर संबंध समाप्‍त हो जाता है। पहले शेर में जो बात कही गयी है वह सर पर कफ़न बॉंधे घूमने के अधिक करीब है और इसमें शाम होना न होना महत्‍व नहीं रखता। दूसरे शेर में जो उजाले की बात आई है वह अंधकार से तो संबंध रख सकती है लेकिन शाम के धुँधलके के लिये उपयुक्‍त नहीं कही जा सकती है। अगर मेरे कथन से किसी की भावनायें आहत हों तो पूर्ण विनम्रता से मेरी क्षमा प्रार्थना पूर्व से ही प्रस्‍तुत मानें। 

शायर सतपाल ख़याल : (सोलन, हि.प्र.)

लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है। ग़ज़ल में भी ज़मीनों का झगड़ा है और यह सही है कि न सिर्फ़ नये बल्कि सफ़ल गज़लकार भी पुराने शायरों के मिसरों को किसी भी तरह इस्तेमाल करते हैं। ग़ज़ल में एक दोष ये है कि बहुत शे'र कहे जा चुके हैं और मसाईल एक जैसे हैं और ग़ज़ल में तो दुहराव बहुत है। आप चराग और हवा पर अगर शे'र खोजेंगे तो हैरान रह जायेंगे कि हर शायर चरागों को जलाता बुझाता रहता है। कोई शाम होते ही बुझा देता है तो कोई सुबह होते ही जला लेता है। ग़ज़ल में बहुत दोहराव है लेकिन ताज़गी भी बहुत है जिसका उदाहरण मुनव्वर राणा साहब हैं। कितने नये और सफ़ल प्रयोग किये हैं। मेरे ख़याल से महत्वपूर्ण ये नहीं है कि आप क्या कहते हैं लेकिन ग़ज़ल में महत्वपूर्ण यह है कि आप कितनी नज़ाकत और कैसे अंदाज़ में कहते है, यही हुनर है शायरी का जिसका उदाहरण है-

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता

नीलम अंशु : (कोलकाता, प.बंगाल)

बेहद महत्वपूर्ण जानकारी है। सचमुच पहली बार पता चला कि ग़ज़ल में भी ज़मीन झगड़े की वजह बनती है। ऐसा भी तो हो सकता है कि जिसने बाद में लिखा, उसने संयोगवश कभी पहले वाले शायर को पढ़ा ही न हो क्योंकि हरेक रचनाकार की हर रचना हर किसी ने पढ़ ही रखी हो ये भी तो ज़रूरी नहीं।

Yuvraj Shrimal (Sr. Correspondent, DNA Newspaper, Jaipur, Raj.)

Pandey Ji, I read your article, Ghazal Yani Dusron Ki Zameen Par Apni Kheti, uploaded on Bhadas4media. Your analysis is really truth revealing and bringing forth a concept that nothing is original. But, i would like to say that i have read and listen the creations by these Shayars. All these creations might be using same words, but their spirits are variant. They are masterpieces that sooth the minds. If they are copies up to some extent then what's wrong in this as 'copies are copies of the copies'.

कथाकार सुधा अरोड़ा : (मुम्बई) 

देवमणि ! कथायात्रा 1978 में एक गज़लकार दिनेशकुमार शुक्ल ने अपनी पूरी ग़ज़ल के बीच यह एक शेर लिखा था- 

मेरी कुटिया के मुकाबिल आठ मंजि़ल का मकां,
तुम मेरे हिस्से की शायद धूप भी खा जाओगे !

पच्चीस साल बाद जावेद अख्तर की किताब 'तरकश'में यह एक पृष्ठ पर था-!

ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गये !

शायर तिलक राज कपूर : (भोपाल, म.प्र.) 

पहले सुधा जी द्वारा दिये गये उदाहरण की बात ! जब कुटिया के मुकाबिल आठ मंजि़ल का मकां खड़ा हो गया तो शायद कहॉं बचा, फिर भी प्रतीकात्‍मक दृष्टि से देखें तो दिनेश जी ने एक आशंका भर व्‍यक्‍त की थी अपने शेर में। जबकि इस बीच चरित्र इतना गिर गया है कि वह आशंका जावेद साहब के शेर तक आते आते यर्थाथ में तब्‍दील हो गयी। यह उदाहरण बहुत ही रुचिकर है, दोनों काल-संदर्भ में तत्‍समय के चरित्र की बात कर रहे हैं और अपने-अपने काल संदर्भ में दो अलग शेर हैं। युवराज जी की बात पर आऊँ तो मेरा मानना है कि नकल नहीं यहॉं सुदृढ़ता का महत्‍व है। किसी समय विशेष में कहा गया कोई शेर जब किसी शायर को कमज़ोर लगता है तो वह अपने तरह से उसे मज़बूत कर प्रस्‍तुत करने का प्रयास करता है। यह मज़बूती सुनने वालों को पसंद आती है तो शेर चल निकलता है वरना दफ़्न हो जाता है एक नकल के रूप में। बशीर बद्र साहब ने जब '...शाम हो जाये' वाला शेर कहा तो वह लोगों को पसंद आया और इतना आया कि उनके नाम का पर्याय बन गया, बस यही शायरी है। जो शेर चल निकला वो चल निकला नहीं तो दीवान के दीवान दफ़्न हैं जो अदबी दायरे से बाहर ही नहीं निकल पाते। आम श्रोता तक पहुँच ही नहीं पाते। फिर भी- शाम हो जाये' जैसी स्थिति में शायर का कर्तव्‍य तो बनता है कि वह प्रस्‍तुत करते समय लोगों को बताये कि मिसरा कहॉं से उठाया है। मिसरा उठाना गुनाह तो नहीं हॉं यह छुपाना गुनाह है कि कहॉं से उठाया।

शायर प्राण शर्मा : (लंदन, यूके)

प्रिय देवमणि जी! आपका लेख पसंद आया।मैंने यह शेर पहले कहीं पढ़ा था -मेरी कुटिया के मुक़ाबिल आठ मंजिल का मकां / तुम मेरे हिस्से की शायद धूप भी खा जाओगे। मुझे शेर के रचयिता के नाम का पता नहीं था। दाद देनी पड़ेगी हिन्दी की प्रसिद्ध कहानीकार और कवयित्री सुधा अरोरा जी को, उन्हें तीन दशक पहले कहा गया गया शेर और शायर का नाम अब भी याद है। उर्दू में एक ख़याल के अनेक मिसरे हैं जिनको इस्तेमाल करने में उस्ताद शायरों ने भी गुरेज़ नहीं किया है। देखिए उनके कहे एक ख़याल के मिसरे और अशआर -

हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी 
कुछ हमारी खबर नहीं आती - ग़ालिब 

कुछ तुम्हारा पता नहीं चलता 
कुछ हमारी खबर नहीं आती - अदम

कुछ गम-ए- इश्क भी कर देता है मजनून `अदम`
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं - अदम 

कुछ तो होते हैं मुहब्बत में जुनूं के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं - ज़हीर देहलवी 

मुहब्बत का दरिया, जवानी की लहरें 
यहीं डूब जाने को जी चाहता है - अमजद नज्मी 

हसीं तेरी आँखें, हसीं तेरे आंसूं 
यहीं डूब जाने को जी चाहता है - जिगर मुरादाबादी 

उमराव जान में शहरयार की ग़ज़ल का मतला है -

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये 
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये 

इस मतला ने शहरयार को रातों-रात मशहूरियों की बुलंदी पर पहुँचा दिया था। मतला के दोनो मिसरे बिस्मिल अज़ीमाबादी की ग़ज़ल से उठाये गए थे। उनकी चार शेरों की ये ग़ज़ल पढ़ कर देखिए -

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये 
खंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये 

बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये 

मर जायेंगे मिट जायेंगे हम कौम के लिए 
मिटने न देंगे मुल्क, ये ऐलान लीजिये

बिस्मिल` ये दिल हुआ है अभी कौम पर फ़िदा 
अहल-ए-वतन का दर्द भी पहचान लीजिये 

आपके जानकारी भरे लेख की एक बार और तारीफ़ करता हूँ।--- प्राण शर्मा

शायर तिलक राज कपूर : (भोपाल, म.प्र.)

प्राण साहब के उदाहरणों को देखें तो एक बात तो स्‍पष्‍ट है कि पूरा मिसरा ले लेना भी स्‍वीकार किया गया है बशर्ते कि कहन में बदलाव हो। ग़ालिब साहब के शेर में स्‍पष्‍ट बेखुदी है और अदम साहब का शेर मैं अभी समझने का प्रयास ही कर रहा हूँ कि यह भी बेखुदी ही है या उसके आस-पास भटकता कोई और भाव। मुझे ग़ालिब साहब का शेर कुछ यूँ याद था: हम वहॉं हैं जहॉं से खुद हमको / आप अपनी खबर नहीं आती। अदम साहब और ज़हीर देहलवी के शेर में भाव पक्ष एक ही है। मेरे मत में किसी और के पूर्व में कहे मिसरे को पूर्व शेर के भाव में ही बॉंधना तो यह कहता है कि पहले वाला शायर कुछ दमदार शेर नहीं कह सका, मैं अब दमदार शेर दे रहा हूँ। अमजद नज्मी साहब और जिगर मुरादाबादी साहब के शेर एक ही भाव रखते हुए भी अलग-अलग मंज़र पर हैं इसलिये इनमें तो कोई समस्‍या नज़र नहीं आती। राम प्रसाद `बिस्मिल` के नाम से जो अशआर बताये गये हैं उनको लेकर मुझे शंका है, लगता है किसी मूवी में लिये गये शेर हैं ये जो मूल ग़ज़ल से हट के होंगे। मेरी शंका का कारण पहले शेर का भाव है। अब एक प्रश्‍न: शिकवा, शिकायतें, न गिला कीजिये अभी / बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये'। मैं अगर खुलकर स्‍वीकार करूँ कि दूसरी पंक्ति पूरी की पूरी किसी अन्‍य शायर के शेर से ली गई है जिसका नाम मुझे ज्ञात नहीं तो क्‍या यह शेर अपना वज़ूद खो देगा। मुझे तो नहीं लगता।

शायर देवमणि पाण्डेय : (मुम्बई)

मुझे लगता है कि 'ख़ुदाए-सुख़न मीर' से मिर्ज़ा ग़ालिब काफ़ी प्रभावित थे। उन पर मीर का यह असर साफ़-साफ़ दिखाई देता है। मिसाल के तौर पर दोनों के दो-दो शेर देखिए-

तेज़ यूँ ही न थी शब आतिशे-शौक़
थी ख़बर गर्म उनके आने की -मीर तकी मीर

थी ख़बर गर्म उनके आने की 
आज ही घर में बोरिया न हुआ -मिर्ज़ा ग़ालिब

होता है याँ जहां में हर रोज़ो-शब तमाशा
देखा जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा -मीर तकी मीर 

बाज़ी-चा-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे 
होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे -मिर्ज़ा ग़ालिब

शायर तिलक राज कपूर : (भोपाल, म.प्र.)

मीर का शेर पहली बात तो ग़ालिब के शेर के मुकाबिल उँचे दर्जे का है, और दोनों शेर अलग-अलग स्थिति के हैं। दूसरे दोनों शेर एक ही बात तो कहते हैं मगर अलग-अलग तरह से बॉंधे गये हैं। अभिव्‍यक्ति एक है लेकिन मार्ग अलग।

शायर प्राण शर्मा (लंदन, यूके)

प्रिय देवमणि जी ! आपकी जानकारी बहुत है। इतनी जानकारी तो किसी उर्दू के उस्ताद शायर की भी नहीं होगी। बिस्मिल के दूसरे शेर में रदीफ़ की ग़लती हो गई थी। सही मिसरा यूँ है -` मिटने न देंगे मुल्क ये ऐलान लीजिये'। बिस्मिल अज़ीमाबादी के कुछेक शेरों या मिसरों को काई शायरों ने ज्यों का त्यों उठाया है। जिगर मुरादाबादी का मशहूर शेर है -

ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 

बिस्मिल अज़ीमाबादी के मक़्ता पर गौर फरमाईयेगा -

'बिस्मिल` ऐ वतन तेरी इस राह-ए-मुहब्बत में 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 

निदा फाज़ली इस शेर से पहचाने जाते हैं -

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
खो जाये तो मिट्टी है मिल जाये तो सोना है 

निदा फाज़ली के शेर पर बिस्मिल अज़ीमाबादी' के इस शेर की पूरी झलक है -

सब वक़्त की बातें हैं सब खेल है किस्मत का 
बिंध जाये तो मोती है रह जाये तो दाना है 

जिन शेरों या मिसरों से 'बिस्मिल' को ख्याति मिलनी चाहिए थी वो अन्य शायर लूट कर ले गए। उनके दो- तीन अशआर सुनियेगा -

आता है याद हमको गुज़रा हुआ ज़माना 
वो झाड़ियाँ चमन की वो मेरा आशियाना 

वो प्यारी-प्यारी सूरत वो मोहनी सी मूरत 
आबाद जिसके दम से था मेरा आशियाना 

आज़ादियाँ कहाँ वो अब मेरे घोंसले की 
अपनी खुशी से आना अपनी खुशी से जाना

शुभ कामनाओं के साथ- प्राण शर्मा 

आपका-
देवमणिपांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, 
गोकुलधाम, निकट महाराजा टावर, फिल्मसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 
98210 82126