रोशनी के पक्ष में : गरिमा सक्सेना का ग़ज़ल संग्रह
ग़ज़ल के दरिया में अब तक न जाने कितना पानी बह चुका है। इसी के साथ ही रचनात्मकता के इस क़ाफ़िले में नए विचार, नए कथ्य और नए दृश्य शामिल हुए। अभिव्यक्ति की यही नवीनता ग़ज़ल की पूंजी है जो उसे और समृद्ध बनाती है। आज के दौर में ग़ज़ल की इन्हीं ख़ूबियों की साक्षी हैं गरिमा सक्सेना। श्वेतवर्णा प्रकाशन नोएडा से प्रकाशित उनके ग़ज़ल संग्रह का नाम है “रोशनी के पक्ष में”। वे अपनी ग़ज़ल के वितान में ऐसे चिंतन, मनन और अनुभव को शामिल करती हैं जो उनकी रचनात्मकता को एक नई ऊर्जा से संपन्न करते हैं।
जो किसी को दे उजाला, उस ख़ुशी के पक्ष में,
इस अंधेरे वक़्त में हूं रोशनी के पक्ष में।
कभी रंगीन परदों से, कभी दिलकश नज़ारों से,
हमारा सच छुपाया जा रहा है इश्तहारों से।
आज हम जिस आधुनिक समय में जी रहे हैं वहां ऐसी चीज़ों को अनदेखा नहीं कर सकते जो हमारे दिन प्रतिदिन के व्यवहार में दखल रखती हैं। यही कारण है कि गरिमा की ग़ज़लों में मोबाइल से लेकर इंस्टाग्राम तक शामिल हैं। सोशल मीडिया उनके यहां एक रचनात्मक ज़रूरत के तहत मौजूद है।
उत्सव का असली मतलब अब शेष बचा क्या?
सेल्फ़ी लेने तक ही बस मुस्काते उत्सव।
हमारे आसपास की दुनिया में स्याह रंग अधिक हैं। बेशक़ उनकी अभिव्यक्ति होनी चाहिए मगर ज़िंदगी के कैनवास पर मुहब्बत की तस्वीर भी ज़रूरी है। गरिमा सक्सेना की ग़ज़लों में कभी-कभार दिलों के तार झंकृत करने वाले अशआर भी नज़र आते हैं। हौसलों की उड़ान और रिश्तों की गर्माहट भी दस्तक देती है-
बाग़ में उड़ती हुई इन तितलियों को देखकर,
एक लड़की हो गई तैयार उड़ने के लिए।
मेरे सिर में तो दर्द है लेकिन,
कब अकेले मैं चाय पीती हूं।
गरिमा सक्सेना गीत, नवगीत और दोहे लिखने में सिद्धहस्त हैं। इस रचनात्मक कौशल का फ़ायदा उनकी ग़ज़लों को भी मिला है। एक तरफ़ उनकी ग़ज़लों के कथ्य में ताज़गी और सामयिकता है तो दूसरी तरफ़ अभिव्यक्ति में व्यंजना और भाषा में जीवंतता है। सृजनात्मकता के यही तेवर उन्हें विशिष्ट पहचान देते हैं। वे जिस तरह अपनी ग़ज़लों में वे समय और समाज को दर्ज करती हैं वह कौशल सराहनीय है। उदाहरण के तौर पर उनके चंद शेर देखिए-
कहीं पे चीड़, कहीं पे चिनार रोते हैं,
पहाड़ मर रहे हैं, देवदार रोते हैं।
गांव से हम तो निकल आए हैं लेकिन,
गांव निकला ही नहीं मन से हमारे।
यह खुले बाज़ार हैं केवल कमाई के लिए,
मौत भी बिकती यहां पर ज़िंदगी की शक्ल में।
ज़िंदगी की विविधरंगी छवियों को क़लम बंद करने के साथ ही गरिमा मानव मन की धूप छांव को भी अपनी रचनात्मकता के दायरे में लाती हैं -
चार बच्चों का पिता भी अपनी मां को देखकर,
खिल उठा है फूल जैसा एक बच्चे की तरह।
हर एक हाल या सूरत में काम आते हैं,
जो दोस्त हैं वो ज़रूरत में काम आते हैं।
गरिमा सक्सेना ने अपने आसमान, अपनी ज़मीन और अपनी आंखों से देखी हुई दुनिया को अपनी अभिव्यक्ति का हमसफ़र बनाया है। उसे अपनी सोच और सरोकारों से सजाया है। आम आदमी के सुख-दुख, हिम्मत और हौसले को आज़माया है। उनकी ग़ज़लें ख़ुद अपनी रोशनी से जगमगाती हैं। इस उथल-पुथल भरे समय में उम्मीद की किरण की तरह नज़र आती हैं।
आंखों में ख़्वाब, पांवों में छालों को पालकर,
लाई हूं मैं अंधेरे से सूरज निकाल कर।
इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल संग्रह के ज़रिए गरिमा सक्सेना ने बेहतर संभावनाओं का संकेत दिया है। मुझे पूरी उम्मीद है कि अपनी प्रतिभा और लगन से वे ग़ज़लों के गुलशन में कुछ नए फूल खिलाने में कामयाब होंगी। उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएं।
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126
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