नक़्श से मिलके तुमको चलेगा पता
नक्श लायलपुरी की शायरी में ज़बान की मिठास, एहसास की शिद्दत और इज़हार का दिलकश अंदाज़ मिलता है । उनकी ग़ज़ल का चेहरा दर्द के शोले में लिपटे हुए शबनमी एहसास की लज़्ज़त से तरबतर है। शायरी के इस समंदर में एक तरफ़ फ़िक्र की ऊँची-ऊँची लहरें हैं तो दूसरी तरफ़ इंसानी जज़्बात की ऐसी गहराई है जिसमें डूब जाने को मन करता है । नक़्श साहब की शायरी में पंजाब की मिट्टी की महक, लखनऊ की नफ़ासत और मुंबई के समंदर का धीमा-धीमा संगीत है-
मेरी पहचान है शेरो-सुख़न से
मैं अपनी क़द्रो क़ीमत जानता हूं
ज़िंदगी के तजुरबात ने उनके लफ़्ज़ों को निखारा संवारा और शायरी के धागे में इस सलीक़े से पिरो दिया कि उनके शेर ग़ज़ल की आबरु बन गए । फ़िल्मी नग़मों में भी जब उनके लफ़्ज़ गुनगुनाए गए तो उनमें भी अदब बोलता और रस घोलता दिखाई दिया -
· रस्मे-उल्फ़त को निभाएं तो निभाएं कैसे-
· मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूँगा सदा-
· यह मुलाक़ात इक बहाना है-
· उल्फ़त में ज़माने की हर रस्म को ठुकराओ-
· माना तेरी नज़र में तेरा प्यार हम नहीं-
· तुम्हें देखती हूँ तो लगता है ऐसे-
· तुम्हें हो न हो पर मुझे तो यकीं है-
· कई सदियों से,कई जनमों से,तेरे प्यार को तरसे मेरा मन-
· न जाने क्या हुआ,जो तूने छू लिया,खिला गुलाब की तरह मेरा बदन-
· चाँदनी रात में इक बार तुझे देखा है,ख़ुद पे इतराते हुए,ख़ुद से शरमाते हुए-
नक़्श साहब का जन्म 24 फरवरी 1928 को लायलपुर (अब पाकिस्तान का फैसलबाद) में हुआ।उनके वालिद मोहतरम जगन्नाथ ने उनका नाम जसवंत राय तजवीज़ किया।शायर बनने के बाद उन्होंने अपना नाम तब्दील किया।अब उनके अशआर इस क़दर दिलों पर नक़्श हो चुके हैं कि ज़माना उन्हें नक़्श लायलपुरी के नाम से जानता है -
नक़्श से मिलके तुमको चलेगा पता
जुर्म है किस क़दर सादगी दोस्तो
नक़्श लायलपुरी 1947 में जब बेवतन हुए तो लायलपुर से पैदल चलकर हिंदुस्तान आए और लखनऊ को अपना आशियाना बनाया।पान खाने और मुस्कराने की आदत उनको यहीं से मिली।उनकी शख़्सियत में वही नफ़ासत और तहज़ीब है जो लखनऊ वालों में होती है।लखनऊ की अदा और तबस्सुम उनकी इल्मी और फ़िल्मी शायरी में मौजूद है-
कई बार चाँद चमके तेरी नर्म आहटों के
कई बार जगमगाए दरो-बाम बेख़ुदी में
नक़्श लायलपुरी 1951 में रोज़गार की तलाश में मुम्बई आए और यहीं के होकर रह गए।लाहौर में तरक़्क़ीपसंद तहरीक का जो जज़्बा पैदा हुआ था उसे मुम्बई में एक माहौल मिला-
हमने क्या पा लिया हिंदू या मुसलमां होकर
क्यों न इंसां से मुहब्बत करें इंसां होकर
सिने जगत ने उन्हें बेशक़ दौलत,शोहरत और इज़्ज़त दी मगर उनकी सादगी को यहाँ की चमक-दमक और रंगीनियां रास नहीं आईं-
ये अंजुमन,ये क़हक़हे,ये महवशों की भीड़
फिर भी उदास,फिर भी अकेली है ज़िंदगी
फ़िल्म राइटर्स एसोसिएसन,मुम्बई के मुशायरे में स्व.गणेश बिहारी तर्ज़,
क़मर जलालाबादी, शायर नक़्श लायलपुरी और कवि देवमणि पाण्डेय (1999)
छात्र जीवन में हम कुछ दोस्त अक्सर फ़िल्म ‘चेतना’ का यह गीत मिलकर गाया करते थे- ‘मैं तो हर मोड़ पर / तुझको दूँगा सदा / मेरी आवाज़ को / दर्द के साज़ को / तू सुने ना सुने ! तब मैंने कहा था- अगर मैं कभी मुम्बई गया तो इसके गीतकार से ज़रूर मिलूँगा। एक मुशायरे में मैंने नक़्श साहब की सदारत में कविता पाठ किया।उन्होंने बताया- पाँच टुकड़े में बंटी हुई इस धुन पर गीत लिखने में उन्हें सिर्फ़ 10 मिनट लगे थ। वे मुझे फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन में लाए। उम्र के फ़ासले को भूलकर हमेशा दोस्ताना लहजे में बात की। उनका मन बच्चे की तरह निर्मल और शख़्सियत आइने की तरह साफ़ है। 22 अप्रैल 2004 को अपना काव्यसंकलन ‘तेरी गली की तरफ़’ भेंट करते हुए उन्होंने कहा- अगले महीने मेरे एक दोस्त इस किताब का रिलीज़ फंकशन आयोजित कर रहे हैं। अगले महीने उनके दोस्त गुज़र गए।‘तेरी गली की तरफ़’ का लोकार्पण आज तक नहीं हुआ।
नक़्श लायलपुरी की ग़ज़लें
(1)कोई झंकार है, नग़मा है, सदा है क्या है ?
तू किरन है, के कली है, के सबा है, क्या है ?
तेरी आँख़ों में कई रंग झलकते देख़े
सादगी है, के झिझक है, के हया है, क्या है ?
रुह की प्यास बुझा दी है तेरी क़ुरबत ने
तू कोई झील है, झरना है, घटा है, क्या है ?
नाम होटों पे तेरा आए तो राहत सी मिले
तू तसल्ली है, दिलासा है, दुआ है, क्या है ?
होश में लाके मेरे होश उड़ाने वाले
ये तेरा नाज़ है, शोख़ी है, अदा है, क्या है ?
दिल ख़तावार, नज़र पारसा, तस्वीरे अना
वो बशर है, के फ़रिश्ता है, के ख़ुदा है, क्या है ?
बन गई नक़्श जो सुर्ख़ी तेरे अफ़साने की
वो शफ़क है, के धनक है, के हिना है, क्या है ?
(2)
जब दर्द मुहब्बत का मेरे पास नहीं था
मैं कौन हूँ, क्या हूँ, मुझे एहसास नहीं था
टूटा मेरा हर ख़्वाब, हुआ जबसे जुदा वो
इतना तो कभी दिल मेरा बेआस नहीं था
आया जो मेरे पास मेरे होंट भिगोने
वो रेत का दरिया था, मेरी प्यास नहीं था
बैठा हूँ मैं तनहाई को सीने से लगा के
इस हाल में जीना तो मुझे रास नहीं था
कब जान सका दर्द मेरा देखने वाला
चेहरा मेरे हालात का अक्कास नहीं था
क्यों ज़हर बना उसका तबस्सुम मेरे ह़क में
ऐ ‘नक़्श’ वो इक दोस्त था अलमास नहीं था
(3)
मैं दुनिया की हक़ीकत जानता हूँ
किसे मिलती है शोहरत जानता हूँ
मेरी पहचान है शेरो सुख़न से
मैं अपनी कद्रो क़ीमत जानता हूँ
तेरी यादें हैं , शब बेदारियाँ हैं
है आँखों को शिकायत जानता हूं
मैं रुसवा हो गया हूँ शहर भर में
मगर ! किसकी बदौलत जानता हूँ
ग़ज़ल फ़ूलों सी, दिल सेहराओं जैसा
मैं अहले फ़न की हालत जानता हूँ
तड़प कर और तड़पाएगी मुझको
शबे-ग़म तेरी फ़ितरत जानता हूँ
सहर होने को है ऐसा लगे है
मैं सूरज की सियासत जानता हूँ
दिया है ‘नक़्श’ जो ग़म ज़िंदगी ने
उसे मै अपनी दौलत जानता हूँ
(4)
पलट कर देख़ लेना जब सदा दिल की सुनाई दे
मेरी आवाज़ में शायद मेरा चेहरा दिख़ाई दे
मुहब्बत रौशनी का एक लमहा है मगर चुप है
किसे शमए- तमन्ना दे किसे दाग़े जुदाई दे
चुभें आँख़ों में भी और रुह में भी दर्द की किरचें
मेरा दिल इस तरह तोड़ो के आईना बधाई दे
खनक उठें न पलकों पर कहीं जलते हुए आँसू
तुम इतना याद मत आओ के सन्नाटा दुहाई दे
रहेगा बन के बीनाई वो मुरझाई सी आँख़ों में
जो बूढ़े बाप के हाथों में मेहनत की कमाई दे
मेरे दामन को बुसअत दी है तूने दश्तो दरिया की
मैं ख़ुश हूँ देने वाले, तू मुझे कतरा के राई दे
किसी को मख़मलीं बिस्तर पे भी मुश्किल से नींद आए
किसी को नक़्श दिल का चैन टूटी चारपाई दे
(5)एक आँसू गिरा सोचते सोचते
याद क्या आ गया सोचते सोचते
कौन था, क्या था वो, याद आता नहीं
याद आ जाएगा सोचते सोचते
जैसे तसवीर लटकी हो दीवार से
हाल ये हो गया सोचते सोचते
सोचने के लिए कोई रस्ता नहीं
मैं कहाँ आ गया सोचते सोचते
3
मैं भी रसमन तअल्लुक़ निभाता रहा
वो भी अक्सर मिला सोचते सोचते
फ़ैसले के लिए एक पल था बहुत
एक मौसम गया सोचते सोचते
‘नक़्श’ को फ़िक्र रातें जगाती रहीं
आज वो सो गया सोचते सोचते
आपका-
देवमणि
पांडेय
सम्पर्क :
बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाडा,
गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव
पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126
9 टिप्पणियां:
मैं भी चाँद भाग्यशाली लोगों में से हूँ, जिन्हें नक्श साब ने ख़ुद ये किताब भेंट की थी...जिसमें बड़े प्यार से उन्होंने लिखा था..."खुलूस के साथ कुमार गौतम" के लिए...
आप कहते हैं 'आज नक़्श साहब 82 साल के हो चुके हैं। उनका मन बच्चे की तरह निर्मल और शख़्सियत आइने की तरह साफ़ है'। तो हुजूर शाइर अपनी तबीयत के खिलाफ़ लखि ही नहीं सकता और आपने जो कहा उसकी तस्दीक उनकी शाइरी करती है। नक्श साहब तो उनमें हैं जो इस उम्र में भी सीना तान के कह सकते हैं 'हॉं, मैं शाइर हूँ'।
कोशिश करता हूँ कहीं से उनकी प्रकाशित शाइरी प्राप्त कर सकूँ।
आप की हर पोस्ट बेहद रोचक होती है। नक्श साहेब से रूबरू कराने के लिए शुक्रिया।
नक्श साहब की ग़ज़लों के क्या कहने...बेमिसाल...एक एक शेर सीधा दिल में उतर गया है...आप का बहुत बहुत शुक्रिया इन ग़ज़लों को हम तक पहुँचाने के लिए...
नीरज
वरिष्ठ शायरों को ऐसे ही तबीयत से याद करते रहो पांडे जी । आपको इस नेक काम के लिये बडी दुवाएं मिलेंगी ।
नक्श साहब के फ़िल्मी सदाबहार नगमें आजतक हमारे जेहन में तरोताजा हैं. पान्डे जी आपके द्वारा किए जा रहे सराहनीय कदम के लिए धन्यवाद. आशा करती हूं कि आपके इस प्रयास से जल्द ही नक्श साहब के काव्यसंकलन ‘तेरी गली की तरफ़’ का लोकार्पण मुंबई में जरुर होगा,जब यह खबर शायरी के कद्र्दानों तक पहुंचेगी. नक्श साहब की खूबसूरत गजलो के लिए आभार!
नक्श साहब के फ़िल्मी सदाबहार नगमें आजतक हमारे जेहन में तरोताजा हैं. पान्डे जी आपके द्वारा किए जा रहे सराहनीय कदम के लिए धन्यवाद. आशा करती हूं कि आपके इस प्रयास से जल्द ही नक्श साहब के काव्यसंकलन ‘तेरी गली की तरफ़’ का लोकार्पण मुंबई में जरुर होगा,जब यह खबर शायरी के कद्र्दानों तक पहुंचेगी. नक्श साहब की खूबसूरत गजलो के लिए आभार!
इन सभी गानों की दीवानी हूँ.....नक्श साहेब उम्रे दराज हों..
thx dev bhai. naksh sahab ki gazalen padhne ke liye milin.
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