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गुरुवार, 1 जुलाई 2010

मौत से आगे सोच के आना : अब्दुल अहद साज़



शायर अब्दुल अहद साज़ 

16 अक्तूबर 1950 को मुम्बई में जन्मे अब्दुल अहद ‘साज़’ इस दौर के नुमाइंदा शायर हैं। वे ख़ूबसूरत ग़ज़लें कहते हैं तो असरदार नज़्में भी। देश- विदेश की उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं में उनकी कविताएं और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। ऑल इंडिया तथा अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों में वे शिरकत कर चुके हैं। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की सदारत में पाकिस्तान के मुशायरे में शिरकत करने वाले साज़ ने फ़ैज़ साहब से भी अपने ख़ूबसूरत कलाम के लिए दाद वसूल की। दूरदर्शन तथा अन्य चैनलों और रेडियो कार्यक्रमों में कवि और संचालक के तौर पर शिरकत करने वाले साज़ ने तनक़ीद (आलोचना) के इलाक़े में ऐसे कारनामे अंजाम दिए हैं कि अहले-उर्दू उन्हें अपने अदब की आबरू समझते हैं। उनकी शायरी की दो किताबें मंज़रे-आम पर आ चुके हैं- ख़ामोशी बोल उठी है और सरगोशियां ज़मानों की। उन्हें बिहार उर्दू अकादमी अवार्ड, पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी, जेमिनी अकादमी (हरियाणा) और महाराष्ट्र उर्दू साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजा जा चुका है। साज़ बाल कविताएं लिखने का नेक काम भी करते हैं। महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड की युवा भारती तथा बाल भारती के पाठ्यक्रम में उनकी कविताएं शामिल हैं। 

सम्पर्क : +91-98337-10207/ 022- 2342 7824


अब्दुल अहद साज़ की पाँच ग़ज़लें
(1)

मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना
छोटी छोटी बातों में दिलचस्पी लेना

जज़्बों के दो घूँट अक़ीदों के दो लुक़मे
आगे सोच का सेहरा है, कुछ खा-पी लेना

नर्म नज़र से छूना मंज़र की सख़्ती को
तुन्द हवा से चेहरे की शादाबी लेना

आवाज़ों के शहर से बाबा ! क्या मिलना है
अपने अपने हिस्से की ख़ामोशी लेना

महंगे सस्ते दाम , हज़ारों नाम थे जीवन
सोच समझ कर चीज़ कोई अच्छी सी लेना

दिल पर सौ राहें खोलीं इनकार ने जिसके
‘साज़’ अब उस का नाम तशक्कुर से ही लेना

अक़ीदों : श्रद्धाओं , लुक़मे : निवाले , सेहरा : रेगिस्तान, शादाबी : ताज़गी , तशक्कुर : शुक्रिया/धन्यावाद

(2)
मैं ने कब चाहा कि मैं उस की तमन्ना हो जाऊँ
ये भी क्या कम है अगर उस को गवारा हो जाऊँ

मुझ को ऊँचाई से गिरना भी है मंज़ूर, अगर
उस की पलकों से जो टूटे, वो सितारा हो जाऊँ

लेकर इक अज़्म उठूं रोज़ नई भीड़ के साथ
फिर वही भीड़ छटे और मैं तनहा हो जाऊँ

जब तलक महवे-नज़र हूँ , मैं तमाशाई हूँ
टुक निगाहें जो हटा लूं तो तमाशा हो जाऊँ

मैं वो बेकार सा पल हूँ, न कोइ शब्द, न सुर
वह अगर मुझ को रचाले तो ‘हमेशा’ हो जाऊँ

आगही मेरा मरज़ भी है, मुदावा भी है ‘साज़’
‘जिस से मरता हूँ, उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ

अज्म़ : पक्का इरादा , महवे-नज़र : देखने में मगन,तमाशाई : दर्शक, आगही : ज्ञान , मरज़ : बीमारी
(3)


ख़ुद को औरों की तवज्जुह का तमाशा न करो
आइना देख लो, अहबाब से पूछा न करो

वह जिलाएंगे तुम्हें शर्त बस इतनी है कि तुम
सिर्फ जीते रहो, जीने की तमन्ना न करो

जाने कब कोई हवा आ के गिरा दे इन को
पंछियो ! टूटती शाख़ों पे बसेरा न करो

आगही बंद नहीं चंद कुतुब-ख़ानों में
राह चलते हुए लोगों से भी याराना करो

चारागर ! छोड़ भी दो अपने मरज़ पर हम को
तुम को अच्छा जो न करना है, तो अच्छा न करो

शेर अच्छे भी कहो, सच भी कहो, कम भी कहो
दर्द की दौलते-नायाब को रुसवा न करो
तवज्जुह : ध्यान देना, अहबाब : दोस्तों, आगही : ज्ञान, कुतुब-ख़ानों : पुस्तकालय , चारागर : चिकित्सक, दौलते-नायाब : अमूल्य दौलत

(4)

दूर से शहरे-फ़िक्र सुहाना लगता है
दाख़िल होते ही हरजाना लगता है

सांस की हर आमद लौटानी पड़ती है
जीना भी महसूल चुकाना लगता है

बीच नगर, दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है
शाम तलक हर सू वीराना लगता है

उम्र, ज़माना, शहर, समंदर, घर, आकाश
ज़हन को इक झटका रोज़ाना लगता है

बे-मक़सद चलते रहना भी सहल नहीं
क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है

क्या असलूब चुनें, किस ढब इज़हार करें
टीस नई है, दर्द पुराना लगता है

होंट के ख़म से दिल के पेच मिलाना ‘साज़’
कहते कहते बात ज़माना लगता है
शहरे-फ़िक्र : ज्ञान का नगर, महसूल: टेक्स,ज़हन : दिमाग़, बे-मक़सद : बिना लक्ष्य के, असलूब : अंदाज़, ख़म : मोड़
(5)
जागती रात अकेली सी लगे
ज़िंदगी एक पहेली सी लगे

रुप का रंग-महल, ये दुनिया
एक दिन सूनी हवेली सी लगे

हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे
शायरी तेरी सहेली सी लगे

मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल
मुझ को हर रात नवेली सी लगे

रातरानी सी वो महके ख़ामोशी
मुस्कुरादे तो चमेली सी लगे

फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची
ये बयाज़ उस की हथेली सी लगे
हम-कलामी : एक दूसरे से बात करना, ख़ुश आना : पंसद आना, फ़न : कला, बयाज़ : कापी / डायरी


आपका-
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126