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सोमवार, 15 जून 2020

भूमिका जैन का ग़ज़ल संग्रह उन्वान तुम्हीं दे देना


कहो कैसे छुपायें हम तुम्हारे प्यार की हसरत

सीमाब अकबराबादी का एक शेर है -

कहानी मेरी रूदादे-जहां मालूम होती है
जो सुनता है उसी की दास्तां मालूम होती है 

भूमिका जैन की ग़ज़लों से गुज़रते हुए आपको बिल्कुल यही एहसास होगा। अमृत प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित उनके ग़ज़ल संग्रह का नाम है ''उन्वान तुम्हीं दे देना''। इस ग़ज़ल संग्रह में ज़िन्दगी के इतने जाने-पहचाने अक्स हैं कि ऐसा लगता है कि हमारे रूबरू कोई आईना है जिसमें हम ख़ुद अपनी तस्वीर देख रहे हैं। वो जब मुहब्बत की दुनिया को अपने एहसास से सजाती हैं तब भी कमाल करती हैं और जब आत्मविश्वास से लबालब औरत की शक्ल में दुनिया से सवाल करती हैं तब भी कमाल करती हैं-

आपकी मेज़ का गुलदान नहीं हूँ, समझे ?
एक औरत हूँ मैं, सामान नहीं हूँ, समझे ?

मेरी चुप्पी को मेरी हार मत समझ लेना,
बोल सकती हूँ, बेज़ुबान नही हूँ, समझे ?

भूमिका जैन की रचनात्मक अभिव्यक्ति यथार्थ के धरातल पर इस तरह से सामने आती हैं कि वह बिल्कुल मौलिक, सजीव और जीवंत लगती है। उन्होंने अपने एहसास और जज़्बात से अपनी ग़ज़लों को सजाया है-

कहो कैसे छुपायें हम तुम्हारे प्यार की हसरत,
ज़ुबाँ ख़ामोश,आँखों में है बस इज़हार की हसरत, 

सुकूँ महसूस होता है,उसे अक्सर मुहब्बत में,
जिसे होती नहीं,महबूब के,इकरार की हसरत
                                   
भूमिका जैन ने मौजूदा वक़्त के तमाम सवालों को रचनात्मकता के केंद्र में रखकर अपनी ग़ज़लों से समाज को आईना दिखाया है। उनके यहां जो औरत है वह आत्मविश्वास से लबालब है। उसमें ज़माने से टकराने की हिम्मत और हौसला है।

ये ग़ज़लें उस सोच और फ़िक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं जो आज के ग़ज़लकार में होना ज़रूरी है। दुष्यंत कुमार के बाद हिंदी ग़ज़ल लोकप्रियता का सफ़र तय करते हुए  आज पांच दशक आगे पहुंच गई है। भूमिका जैन ने ग़ज़लों के कैनवास पर अपनी सोच और अपने अनुभव से जो नई तस्वीरें बनाई हैं वह क़ाबिले-तारीफ़ हैं-


दिले-ख़ामोश में हलचल हुई है, तुम चले आओ!
मिरी सांसों की लौ कम हो रही है तुम चले आओ

हिना का रंग बाक़ी है, अभी मेरी हथेली पर!
मगर सुर्खी़ मुहब्बत की नहीं है, तुम चले आओ!  

भूमिका जैन की ग़ज़लों में ज़िंदगी की दौड़ में पीछे छूट गए वंचितों की आवाज़ भी है और व्यवस्था के प्रति प्रतिरोध का स्वर भी है। उनके पास अपनी ज़बान है, अपना तजुर्बा है और अपनी सोच को अभिव्यक्त करने के लिए अपना एक ख़ास अंदाज़ ए बयां भी है। बयान की यही ख़ूबसूरती उन्हें एक अलग पहचान मुहैया कराती है। 

भूमिका जैन ने जिस फ़न और हुनर के साथ ज़िंदगी, समाज और वक़्त की तस्वीरों में रंग भरे हैं वह बेहद सराहनीय है। उनके ग़ज़ल संग्रह की कामयाबी के लिए मेरी शुभकामनाएं। मेरी यही दुआ है कि उन्हें अपनी रचनात्मकता के लिए वह सम्मान मिले जिसकी वह हक़दार हैं।

देवमणि पांडेय :
बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा, गोकुलधाम,
फ़िल्म सिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुंबई- 400063, 98210-82126

(19 फरवरी 2020)
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शनिवार, 13 जून 2020

मनोज मुंतशिर : मेरी फ़ितरत है मस्ताना


तुम्हारे नाम के पत्थर मेरी बुनियाद से निकले   

सिने-गीतकार मनोज मुंतशिर के प्रथम काव्य संकलन का नाम है-"मेरी फ़ितरत है मस्ताना।" वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित यह संकलन मुहब्बत करने वालों के लिए एक ख़ूबसूरत तुहफ़ा है। मनोज मुंतशिर के पास एक दिलकश ज़बान है, मुहब्बत की दास्तान है और अपनी बात को दिलचस्प अंदाज़ में पेश करने का हुनर है। इन ख़ूबियों के कारण उनकी शायरी क़ारयीन और सामयीन दोनों को बेहद मुतअस्सिर करती है-

मैं खंडहर हो गया पर तुम न मेरी याद से निकले 
तुम्हारे नाम के पत्थर मेरी बुनियाद से निकले

मुंतशिर की फ़िक्र के दायरे में मुहब्बत की दुनिया आबाद है। इसमें वे अपने जज़्बात का रंग कुछ इस तरह घोल देते हैं कि उनकी शायरी में नई तस्वीर नज़र आती है और वह जवां दिलों की धड़कन बन जाती है-

वो मेरा चांद सौ टुकड़ों में टूटा 
जिसे मैं देखता था आंख भर के 
जहां पर लाल हो जाते हैं आंसू 
मैं लौटा हूं उसी हद से गुज़र के 

कुछ ऐसे रंग होते हैं जो मुहब्बत की कायनात में ख़ुशबू की तरह घुल जाते हैं। फ़िज़ाओं में सांस लेते हैं। ख़्वाबों के हमसफ़र बनकर आपके दिल के दरवाजे़ पर कुछ इस अंदाज़ में दस्तक देते हैं कि आंखों के सामने गुज़रे ज़माने का अक्स तैरने लगता है-

सवाल इक छोटा सा था, जिसके पीछे 
ये सारी ज़िंदगी बर्बाद कर ली 
भुलाऊं किस तरह वो दोनों आंखें 
किताबों की तरह जो याद कर ली 

मुहब्बत के ज़ाती तजरुबे को मुंतशिर ऐसी सहजता और सलीक़े से पेश कर देते हैं कि उनका अंदाज़ ए बयां हमारे एहसास का हिस्सा बन जाता है-

तुम हां कह दो, मैं हां कह दूं, 
इनकार करो, इनकार करूं, 
जिस प्यार में इतनी शर्ते हैं 
उस प्यार से कैसे प्यार करूं 

मुंतशिर ने कई प्यारी नज़्मों से भी अपना दीवान सजाया है। अपनी ज़मीन और अपने आसमान को अपने इज़हार का साझीदार बनाया है। मसलन- मैं तुमसे प्यार करता हूं, मेरा प्यार एक तरफ़ा, तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगी, मैं इंतजार करूंगा आदि नज़्मों के उनवान जितने रोचक हैं, इन नज़्मों में उतनी दिलकशी भी है। 

इन नज़्मों में मिलने-बिछड़ने, चाहत, उल्फ़त और जुनून की जो कसक है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि उन्होंने साहिर लुधियानवी की रिवायत को आगे बढ़ाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया है। 'मैं तेरे ख़त लौटा दूंगा' नज़्म की शुरुआती लाइनें देखिए -

आंखों की चमक, जीने की लहक, 
सांसों की रवानी वापस दे 
मैं तेरे ख़त लौटा दूंगा, 
तू मेरी जवानी वापस दे 

मुंतशिर की इस रचनात्मक अभिव्यक्ति में देश, समाज और वक़्त के अहम सवाल भी सांस लेते हैं। उनकी एक नज़्म है - 'मेरा नाम सिपाही है'। इसकी आख़िरी लाइनें देखिए - 

मेरी मौत का मातम ना करना 
मैंने ख़ुद ये शहादत चाही है 
मैं जीता हूं मरने के लिए 
मेरा नाम सिपाही है 

कई फ़िल्मों की कामयाबी में मनोज मुंतशिर के गीतों ने भी रचनात्मक भूमिका अदा की है। वे जो भी गीत रचते हैं उनके अल्फ़ाज़ में शायरी की ख़ुशबू भी शामिल रहती है। तेरी गलियां, तेरे बिन यारा, मैं फिर भी तुमको चाहूंगा, कौन तुझे यूं प्यार करेगा, तेरी मिट्टी में मिल जावां जैसे गीत मिसाल के तौर पर देखे जा सकते हैं। संवाद लेखन में भी वे अपने हुनर का परचम लहराते हैं। फ़िल्म बाहुबली-2 में उनके संवाद कई बार तालियां बजवाते हैं। उनकी कामयाबी का राज़ उनके ही एक शेर में पोशीदा है-

जूते फटे पहन के आकाश पे चढ़े थे 
सपने हमारे हरदम औक़ात से बड़े थे

मनोज मुंतशिर ने साहित्य आज तक और रेख़्ता से लेकर देश के कई लिटरेचर फेस्टिवल में भी अपनी शानदार मौजूदगी दर्ज की है। उन्हें पुरानी पीढ़ी का आशीर्वाद भी मिलता है नई पीढ़ी का प्रतिसाद भी। मेरी हार्दिक शुभकामना है कि वे इसी तरह कामयाबी की नई इबारत लिखते रहें। 

देवमणि पांडेय :
बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई - 400 063, 9821082126 

(मुम्बई 26 जनवरी 2020)
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गुरुवार, 11 जून 2020

अंजनी श्रीवास्तव : जीवन है इक कोठरी

II पुस्तक समीक्षा : दोहा-दोहा ज़िंदगी II

दोहा काव्य की ऐसी सशक्त विधा है जिसे गागर में सागर भरने का श्रेय हासिल है। हमारे संत और भक्त कवियों ने अपने दोहों में ज़िंदगी का जो दर्शन पेश किया है वह आज भी अद्भुत, अद्वितीय और बेजोड़ है। दोहा एक मात्रिक छंद है। 13 और 11 मात्रा के चरण में लिखी जाने वाली यह काव्य विधा आज भी जीवन की हर संवेदना का वाहक बनने की क्षमता रखती है।

दोहे वो तूफान हैं, देते हैं झकझोर 
असर बहुत गहरा करें, इनमें है वह ज़ोर 

कवि अंजनी श्रीवास्तव के दोहा संग्रह का नाम है- दोहा-दोहा ज़िंदगी। अंजनी जी ने इस संकलन की  ज़रिए  दोहा काव्य  विधा की अपार संभावनाओं का संकेत दिया है। उन्होंने दोहे के बहु प्रचलित काव्य विधा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है और उसे अपनी ज़मीन और अपने आसमान से सजाया है। एक ख़ास बात यह है इन्होंने कई दोहो का एक समूह बनाकर उसे अलग-अलग शीर्षक दिए हैं। मसलन-

 मां 
जीवन है इक कोठरी, मां है रोशनदान 
उससे बढ़कर कौन है, जग में और महान 

मां है शीतल चांदनी, प्रातः की है धूप 
उसके अंदर हैं छुपे, नारी के सौ रूप  

बेटी
चलती बेटी सड़क पर, सहम-सहम कर चाल 
ना जाने कब फेंक दे, कौन कहां से जाल

बेटे गर उन्नीस हैं, तो बेटी है बीस 
लब पर दे सबके हंसी, स्वयं सहेजे टीस

पिता 
वही लरजती धूप है, शीतल प्यारी छांव 
पिता हमारी मंजिलें, नापे अपने पांव 

विद्यालय तक ले गया, पकड़ हमारा हाथ 
हमने देखी ज़िंदगी, चल कर उसके साथ

रिश्ते, गांव, परिवार, स्कूल, शिक्षक, गंगा, नारी, वर्षा आदि ऐसे ढेर सारे विषय हैं जिसे अंजनी जी ने अपने दोहों का कथ्य बनाया है। एक शीर्षक के समूह में कई-कई दोहे शामिल हैं। ख़ास बात यह है कि सदियों से चली आ रही दोहा छंद की रिवायत का उन्होंने बहुत ख़ूबसूरती के साथ अनुगमन किया है। मगर इस काव्य विधा में उन्होंने जो कथ्य प्रस्तुत किया है वह उनका अपना है। वह उनके अपने अनुभवों से उपजा है। इसमें उनकी गहन दृष्टि, अध्ययन और संस्कार शामिल हैं। यही कारण है कि उनके दोहे सीधा हमारे दिल को छूते हैं और हम उनके साथ-साथ एक भावनात्मक यात्रा करते हैं। 

अंजनी जी के दोहों में चिंतन और दर्शन के साथ ही अपने समय की तस्वीर भी नज़र आती है। उदाहरण के लिए दो दोहे देखिए-

धनवानों को लोन दें, दरियादिल कुछ बैंक 
घोटालो की टोटियां, कर दें ख़ाली टैंक 

दुश्मन अपना जान लो, चीन न पाकिस्तान 
गुनहगार इस देश के, पावरफुल इंसान

पुस्तक की भूमिका कवि अशोक चक्रधर और कवि शैलेश लोढ़ा ने लिखी है और दोनों ने अंजनी जी के फ़न और हुनर की तारीफ़ की है। एक बेहद उल्लेखनीय बात यह है कि अंजनी श्रीवास्तव ने इस पुस्तक में अपना एक आलेख शामिल किया है-"दोहों से गुफ़्तगू।" यह दोहे लिखने वाले नए कवियों के लिए बेहद ज़रूरी सौग़ात है। इसमें पुराने और नए कवियों के चुनिंदा दोहों के ज़रिए उन्होंने दोहे की विशेषताओं का बयान किया है। साथ ही यह भी बताया है कि गति, यति, तुक और मात्रा क्या है, और मात्राओं की गणना किस तरह की जाए कि दोहा कसौटी पर खरा उतरे। 
दोहे की विधा में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह एक महत्वपूर्ण आलेख है। 

कुल मिलाकर इन दोहों में ऐसी ख़ूबी है कि ये दोहा प्रेमियों को ज़रूर पसंद आएंगे। अंत में अंजनी जी का एक दोहा आप सबके लिए-

साध लें पहले मात्रा, फिर कर लें आगाज़ 
रचना है दोहे अगर, करते रहें रियाज़

देवमणि पांडेय :
बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम,
फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई - 400 063, 9821082126

(मुम्बई 27 जनवरी 2020) 

बुधवार, 10 जून 2020

डॉ सुमन जैन : सुना है अब उजाला हो गया है


II पुस्तक समीक्षा : कवयित्री डॉ सुमन जैन II

कवयित्री डॉ सुमन जैन के हाल ही में प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह का नाम है- "सुना है अब उजाला हो गया है"। सम्प्रति अरुणाचल प्रदेश के एक निजी विश्वविद्यालय में कुलाधिपति (चांसलर) के पद पर कार्यरत डॉ सुमन जैन का इससे पहले एक कहानी संग्रह और एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। वे मुंबई में हिंदी काव्य मंच की एक लोकप्रिय और गरिमा पूर्ण कवयित्री रही हैं।

हिंदी ग़ज़ल अपनी कामयाबी का सफ़र तय करते हुए आज उस मुकाम पर पहुंच गई है जहां उस पर अनेक समालोचना और शोध ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। इसे सहज संयोग ही कहा जाएगा कि हिंदी में संत कबीर की भी एक ग़ज़ल लोकप्रिय है-

हमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या 
रहें आज़ाद या जग में हमन दुनिया से यारी क्या

हिंदी में भारतेंदु हरिश्चंद और जयशंकर प्रसाद की भी छिटपुट ग़ज़लें मिलती हैं मगर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और शमशेर बहादुर सिंह ने इस विधा आगे बढ़ाया और कई ग़ज़लें कहीं। अगर महाकवि निराला से हिंदी ग़ज़ल की शुरूआत मानी जाए तो अब हिंदी गजल सौ साल की हो चुकी है।

महाकवि निराला अपनी हिंदी ग़ज़ल में उर्दू ग़ज़ल की शब्दावली, भंगिमा, बिंब और प्रतीक से बिल्कुल अलग खड़े दिखाई पड़ते हैं। यानी उनके यहां हिंदी ग़ज़ल समकालीन हिंदी कविता का अंग है। उनका एक मशहूर शेर है -

खुला भेद विजयी कहाए हुए जो 
लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं

छायावादी कविता में प्रकृति के प्रति जो अनुराग था वह निराला की ग़ज़लों में भी दिखाई पड़ता है। निराला जी की एक ग़ज़ल का मतला और एक शेर देखिए-

पड़े थे नींद में उनको प्रभाकर ने जगाया है 
किरण ने खोल दी आंखें, गले फिर फिर लगाया है
हवा ने हलके झोंकों से प्रसूनों में महक भर दी 
विहंगों ने द्रुमों पर स्वर मिलाकर राग गाया है

डॉ सुमन जैन ने अपनी ग़ज़ल में महाकवि निराला वाला रास्ता अपनाया है। यानी उनकी ग़ज़ल हिंदी कविता का अंग बनकर आगे बढ़ती है-

स्नेह-दान तुमसे पाया है इससे जीवनदान मिलेगा 
मुझको मिली तुम्हारी छाया दुर्गम पथ आसान मिलेगा

इस संग्रह की ग़ज़लों में प्रेम, देश प्रेम, प्रकृति, पर्यावरण, राजनीति और जीवन दर्शन की झांकी दिखाई पड़ती है-

सुखों का भोग दुख देता है जी को 
तरावट अश्क देते हैं हंसी को 
ये दुनिया है यहां कोई तो हारे 
तभी तो जीत मिलती है किसी को

किसी एक शीर्षक के तहत जैसे कविता अपना कथ्य लेकर सामने आती है उसी तरह डॉ सुमन जैन कभी-कभी किसी एक विषय पर ही पूरी ग़ज़ल कह जाती हैं। 'नारी' पर लिखी हुई उनकी एक ग़ज़ल के दो शेर देखिए-

पद दलित किया तुमने तुमसे उद्धार मांगती है नारी 
सदियों से घायल मन का अब उपचार मांगती है नारी 
मंदिर में जाकर देवी की पूजा करने वालों तुमसे 
घर में घर-वाली होने का अधिकार मांगती है नारी

डॉ सुमन जैन के यहां बोलचाल की एक आत्मीय शैली है। अपनी ग़ज़लों में वे इस शैली का बख़ूबी इस्तेमाल करती हैं। 

उनकी नज़रों ने फिर पुकारा है 
ज़िंदगी मिल रही दुबारा है 
प्यार में प्रश्न ही नहीं उठता 
कौन जीता है कौन हारा है 

जीवन को देखने का, समझने का और उसे अपनी रचनात्मकता में शामिल करने का डॉ सुमन जैन का अपना ख़ास नज़रिया है। वे कहीं ना कहीं से कुछ नया तलाश कर लेती हैं-

कहां नहीं जीवन के दर्शन 
मरघट पर भी फूल खिला है 
ठंडी हवा जहां मिल जाए 
अपने लिए वही शिमला है

यह भी एक सराहनीय बात है कि डॉ सुमन जैन परंपरा से मिले प्रेम में भी अपनी शब्दावली और अपनी निजी अभिव्यक्ति के बल पर कुछ नया जोड़ने की कोशिश करती हैं- 

जब हुए दर्शन तुम्हारे मन तुम्हारा हो गया 
मैं नहीं अपनी रही, जीवन तुम्हारा हो गया 
अब किसी के वास्ते कोई जगह ख़ाली नहीं 
मन के बीचो-बीच सिंघासन तुम्हारा हो गया

दुष्यंत कुमार के बाद से अब तक हिंदी ग़ज़ल में बहुत कुछ कहा जा चुका है। नया कथ्य लाना, कुछ नया कहना बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए डॉ सुमन जैन ने अपनी ग़ज़लों से जो इंद्रधनुषी तस्वीर बनाई है उसमें उनका अपना अनुभव, अध्ययन और निरीक्षण शामिल है। सरल-सहज शब्दावली में, बिना किसी जटिलता के वे बड़ी सहजता से अपनी बात पाठकों के दिलों तक पहुंचा देती हैं और उनसे अपना एक आत्मीय रिश्ता कायम कर लेती हैं। 

मेरी दुआ है कि डॉ सुमन जैन इसी तरह सृजनात्मकता के पथ पर कामयाबी का नया अध्याय रचती रहें। बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

प्रकाशक-
बोधी प्रकाशन, सी-46, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन,
नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर- 302006, दूरभाष 98290 18087 
ईमेल : bodhiprakashan@gmail.com
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देवमणि पांडेय :
बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम,
फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, M : 98210 82126
(14 फरवरी 2020)
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मंगलवार, 9 जून 2020

शिल्पा शर्मा का काव्य संग्रह : सतरंगी मन

 तरल भाषा में लिखी गईं सरल कविताएं

विश्व प्रसिद्ध लेखक रसूल हम्जातोव ने लिखा है-" हे ईश्वर मुझे लिखने के लिए विषय मत दे, देखने के लिए आंख दे।" कवयित्री शिल्पा शर्मा ने अपने प्रथम काव्य संग्रह "सतरंगी मन" में विषय वैविध्य की इसी सोच को साकार किया है। 

"न जाने क्यूं मैं अब/ धुआँ हो जाना चाहती हूं/ ताकि समा सकूं/ तुम्हारे पोर पोर में… न जाने क्यूं मैं अब/ हो जाना चाहती हूं पानी/ ताकि महसूस कर सको/ तुम मेरे वजूद को/"

शिल्पा शर्मा की कविताओं में इतनी विविधता है कि देखकर हैरत होती है। ऐसा इसलिए भी संभव हुआ है कि उन्हें पत्रकारिता का भी अच्छा ख़ासा अनुभव है। पत्रकारिता की यही सजगता उन्हें जीवन और जगत के विभिन्न स्रोतों के पास ले जाती है और वे अपनी संवेदना की तरलता से विविध अनुभवों, दृश्यों और घटनाओं को कविता के सांचे में ढाल देती हैं। 

"टीवी पर मेरी पार्टी तेरी पार्टी से/ कम काली की बहस जारी थी/ मेरा नेता को तेरे नेता से ज़्यादा सफ़ेद दिखाने की तैयारी थी/ उन्हीं की डपली थी उन्हीं का राग था/ कुछ मिलीभगत थी कुछ जुगाड़ था/ मीडिया गरज़ रहा था/ एडवर्टाइजमेंट बरस रहा था/ भ्रष्टाचार फल रहा था/ आर्थिक विकास का ग्राफ़ ढल रहा था/

शिल्पा शर्मा की कविताओं में जो सतरंगी दुनिया है उसमें देश, समाज, प्रकृति के साथ ईश्वर भी शामिल है। 'क्यों हमारे घर नहीं होते', 'उन्मुक्त स्त्रियां', 'प्रेम पराकाष्ठा,' 'तलाश अभी जारी है', 'बने रहना साझीदार', 'उफ्फ़ यह स्वतंत्रता', 'टी ब्रेक और खिड़कियां', 'समानता के पैरोकार', 'मुझे वो ऐसी ही पसंद है' आदि शीर्षक की ऐसी कई कविताएं हैं जो पाठकों की चेतना के तार झंकृत करने की सामर्थ्य रखती हैं। 

"नितांत अकेली हूं पर उदास नहीं/ कामों की लंबी सूची को तह करके डाल दिया है/ अलमारी के सबसे ऊपरी ख़ाने में/ और चुरा लिया है कुछ घंटों का समय/ केवल अपने लिए/ बैठूंगी यूं ही पैर पर पैर चढ़ाए/ गर्म चाय का मग लिए हाथों में/" 

सतरंगी मन की कविताएं तरल भाषा में लिखी गई सरल कविताएं हैं मगर इनके अर्थ बहुत गहरे हैं। ये जीवन से संवाद करती हुई ऐसी कविताएं हैं जो हमारे सामने कई ज्वलंत सवाल पेश कर देती हैं और हम इनके जवाब खोजते हुए बेचैनी और विकलता से भर जाते हैं। इस संग्रह की कई कविताओं में कवयित्री स्त्रियों के पक्ष में मज़बूती से खड़ी हुई दिखाई देती है। 

"ऊपर से मुस्कुराती/ अंदर से रोती हुई/ ऐसी ही होती हैं/ बाहर से कटु नज़र आने वाली स्त्रियां/ पर छू पाओ उनका मन/ तो मीठे पानी के सोते-सी नज़र आती हैं/ ये कटु स्त्रियां/" 

इन कविताओं को पढ़ना अपनी सोच, समझ और संवेदना को समृद्ध करना है क्योंकि यह जीवन के गहन अनुभवों से उपजी हुई कविताएं हैं। Krimiga Books द्वारा प्रकाशित सतरंगी मन की पांडुलिपि को मुंबई लिटो फेस्ट द्वारा हिंदी कविता की बेहतरीन पांडुलिपि के रूप में चयन किया गया था। इस रचनात्मक उपलब्धि के लिए कवियत्री शिल्पा शर्मा को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं। 

देवमणि पांडेय :
बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम,
फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई - 400 063, 9821082126

(मुम्बई 26 जनवरी 2020) 
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शैलजा नरहरि का ग़ज़ल संग्रह बुझा चिराग हूं


II उससे कह दो किसी का हो जाए II

जो भी होना है आज हो जाए
दिल हमारा रहे या खो जाए 
वो न मेरा हुआ न अपना ही
उससे कह दो किसी का हो जाए

मुहब्बत को इस अंदाज़ मैं पेश करने वाली कवयित्री का नाम है शैलजा नरहरि। हिंदी काव्य मंचों की प्रतिष्ठित गीतकार  शैलजा नरहरि का हाल ही में "बुझा चिराग हूं" ग़ज़ल संग्रह मंज़रे आम पर आया है। संग्रह की पहली गजल है-

मीर ओ ग़ालिब ज़बान वाले थे 
फ़र्श पर आसमान वाले थे 
क्या तसव्वुर में रोशनाई थी 
हर्फ़ सारे बयान वाले थे

कवयित्री शैलजा नरहरि अपनी काव्य यात्रा में उसी रिवायत की हमसफ़र हैं जो हमें मीर ओ ग़ालिब से हासिल हुई है। उनके पास गीत विधा से प्राप्त कोमल शब्दावली है। बिंब और प्रतीक हैं। ज़िन्दगी से गुफ्त़गू करने का अपना एक नज़रिया है। शैलजा नरहरि अपनी ग़ज़लगोई में इन सारी अमानतों का ख़ूबसूरत इस्तेमाल करती हैं-

कह सकें तो बात दिल की अब नहीं मिलते वो लोग 
जो ज़रूरत ही न समझे दोस्ती को क्या कहें
हम समझते थे हमेशा ये सफ़र आसान है
रास्ते के पेचो-ख़म को, बेरुख़ी को क्या कहें

शैलजा जी के यहां ग़ज़ल के कैनवास पर आसान लफ़्ज़ों और सादा रंगों में ज़िंदगी की जो तस्वीर नुमाया होती है वह बहुत असरदार है-

आदमी का मिज़ाज क्या रखना 
दिन हैं दो-चार ताज क्या रखना 
जब मुसलसल सफ़र पे चलना है
सोच में कल औ आज क्या रखना 

शैलजा नरहरि की इन ग़ज़लों में ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव हैं, दौरे-हाज़िर के सवाल हैं और मुहब्बत की दास्तान भी है। मुहब्बत की दास्तान को वे एक नए ज़ाविए से पेश करती हैं-

उम्र से गुज़ारिश है कुछ दिनों तो जीने दे 
बहते आबशारों से घूंट भर तो पीने दे 
जिसकी हम तमन्ना थे वो न जाने किसका है 
ज़ख्म़ सारे ढक लेंगे पैरहन तो सीने दे


अपनी सोच को अभिव्यक्त करने के लिए शैलजा जी ने अधिकतर छोटी बहरों का इस्तेमाल किया है। कहा जाता है कि छोटी बहर में बड़ी बात कहना मुश्किल काम है। ऐसे लोगों के लिए रहमत अमरोहवी ने कभी कहा था-

ग़ज़ल और तंग दामानी का शिकवा
सलीक़ा हो तो गुंजाइश बड़ी है 

शैलजा नरहरि में यह सलीक़ा नज़र आता है। वे छोटी बहर में भी अपनी बात को इस क़रीने से रखती हैं कि उनके अशआर पढ़ने वालों के दिल के तार झंकृत कर देते हैं-

ज़िंदगी ने जो दिया है कम नहीं
मुस्कराने के बहाने चाहिए
है ज़रूरी शायरी को फ़िक्रो-फ़न
शे'र लेकिन कम सुनाने चाहिए

इशारों में बात करने की ग़ज़ल की जो रिवायत है उस हुनर का शैलजा नरहरि ने अपनी तख़लीक़ में बहुत उम्दा इस्तेमाल किया है-

शजर उदास परिंदों की वापसी न हुई
हरी थी शाख़ मगर फिर भी ज़िंदगी न हुई

शैलजा नरहरि के यहां फ़िक्र की आंच भी है और एहसास की शिद्दत भी। उनकी ग़ज़लों में एक ख़ास किस्म की साफ़गोई है जो कथ्य को भरपूर संवेदना के साथ पढ़ने वालों तक संप्रेषित कर देती है-

बुझा चराग़ हूं अब मेरी ज़िन्दगी क्या है
कोई न मुझसे ये पूछे कि रोशनी क्या है

शैलजा नरहरि कई ऐसे शेर लिखने में कामयाब हुई हैं जो पाठकों के ज़हन में महफूज़ रह जाते हैं। आम फहम भाषा में लिखी गईं इन ग़ज़लों में जज़्बा, तजुर्बा और एहसास का ख़ूबसूरत संगम है। ये ग़ज़लें हमारी ग़ज़ल परंपरा को समृद्ध करने का क़ाबिले-तारीफ़ काम करती हैं। शैलजा नरहरि की ग़ज़लों में एक कशिश है। अगर आप इन्हें एक बार पढ़ेंगे तो दोबारा पढ़ने का मन होगा। इन ग़ज़लों के चयन और संपादन के लिए मशहूर शायर दीक्षित दनकौरी को बहुत-बहुत बधाई।

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी, भवन संख्या 19, पहली मंज़िल, 2 अंसारी रोड,
दरियागंज, नई दिल्ली 110002, मूल्य : ₹150
(17 फरवरी 2020)

देवमणि पांडेय :
बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम,
फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, M : 98210 82126
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