सोमवार, 3 नवंबर 2025

उद्भ्रांत की आत्मकथा काली रात का मुसाफ़िर

 


चित्रनगरी संवाद मंच मुम्बई में पुस्तक चर्चा 

दिल्ली के प्रतिष्ठित कवि उद्भ्रांत की आत्मकथा "मैंने जो जिया" का तीसरा भाग 'काली रात का मुसाफ़िर' नाम से प्रकाशित हुआ है। रविवार 2 नवम्बर 2025 को चित्रनगरी संवाद मंच मुम्बई की ओर से मृणालताई हाल, केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट, गोरेगांव में इस पुस्तक पर चर्चा का आयोजन किया गया। कवि रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत ने इस पुस्तक के कुछ अंशों का पाठ किया। पुस्तक की रचना प्रक्रिया पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि यह आत्मकथा ख़ुद को थर्ड पर्सन में रख कर लिखी गई है। आत्मकथा लेखन में ऐसा पहली बार हुआ है। उनके इस प्रयोग को सराहा गया। 


प्रस्तावना पेश करते हुए कार्यक्रम के संयोजक कवि देवमणि पांडेय ने कहा- "सरस भाषा में लिखी हुई इस आत्मकथा में घटनाओं को रोचक तरीके से पेश किया गया है। हमेशा यह उत्सुकता बनी रहती है कि आगे क्या हुआ। सूक्ष्म विवरणों को भी उद्भ्रांत जी ने जिस कौशल के साथ दर्ज किया है वह सराहनीय है। इस कृति में कई महत्वपूर्ण रचनाकारों से संबंधित घटनाओं का उल्लेख किया गया है। इस तरह यह अपने समय का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन जाती है। इस आत्मकथा में साहित्य, पत्रकारिता, शिक्षा, सिने जगत और सरकारी तंत्र मौजूद है। यानी एक दुनिया में कई दुनियां शामिल हैं। उद्भ्रांत जी ने साहस के साथ सच का सामना किया है और उसको उजागर किया है। उन्होंने लोगों की नाराज़गी और अपनी इमेज की परवाह नहीं की है। कुल मिलाकर यह आत्मकथा एक महत्वपूर्ण और रोचक कृति के रूप में याद की जाएगी।"


देवमणि जी ने प्रस्तावना में इस पुस्तक पर नामवर सिंह, ज्ञानरंजन, कर्ण सिंह चौहान और यश मालवीय की टिप्पणियों के अंश भी उद्धरित किए गए। इन विद्वानों ने कवि उद्भ्रांत के प्रमाणिक कथ्य, प्रवाहमयी भाषा और अभिव्यक्ति कौशल की तारीफ़ की है।

इस अवसर पर कवयित्री अभिनेत्री दीप्ति मिश्र ने एक सवाल उठाया कि इस आत्मकथा में दृश्य और किरदार तो मौजूद हैं  लेकिन लेखक की सोच सामने नहीं आती। कुछ विद्वानों के उद्धरण के हवाले से इस सवाल का जवाब देते हुए कवि उद्भ्रांत ने कहा कि उन्होंने तटस्थ भाव से आत्मकथा का लेखन किया है। 


कार्यक्रम की शुरूआत में शुक्रवार 31 अक्टूबर 2025 को दिवंगत दिल्ली के प्रतिष्ठित साहित्यकार रामदरश मिश्र को याद किया गया गया। धरोहर के अंतर्गत मधुबाला शुक्ल ने उनकी लोकप्रिय ग़ज़ल "बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे" का पाठ किया। कविता पाठ के सत्र में तूलिका सनाढ्य, गुलशन मदान, प्रदीप गुप्ता, दीप्ति मिश्र, असीमा भट्ट, अम्बिका झा, क़मर हाजीपुरी और महेश साहू ने काव्य पाठ किया। कवि रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत ने अपनी दो ग़ज़लें सुनाकर कार्यक्रम को पूर्णता प्रदान की। 



उद्भ्रात की आत्मकथा काली रात का मुसाफ़िर के बारे में नामवर सिंह कहते हैं कि यह गद्य नहीं, कविता है।

ज्ञानरंजन उनकी आत्मकथा की तुलना उग्र की आत्मकथा 'अपनी खबर' से करते हैं। सच भी है। उद्भ्रांत ने अपने जीवन की कड़वी सच्चाइयों को अपनी लेखनी से जिस तरह उघारा है यह मिलना मुश्किल है। 

कर्ण सिंह चौहान ने उनकी आत्मकथा की तुलना गांधी की आत्मकथा से की है। वे लिखते हैं कि उद्भ्रांत की आत्मकथा की खूबी यह है कि उसने अपने जीवन से जुड़ी किसी भी बात को छिपाया नहीं है, न उसे अपने पक्ष में गौरवान्वित करने का प्रयास किया है और कमाल की बात यह है कि इतने विस्तृत ब्यौरों के बाद भी उसमें कोई उबाऊपन और नीरसता नहीं है। 

से रा यात्री जी का कहना है कि कवि के लिए गद्य एक कसौटी है और बच्चन व उद्भ्रांत के अतिरिक्त कोई अन्य इस पर खरा नहीं उतरता। राजेन्द्र राव एवं देवेन्द्र चौबे जैसे कुछ और प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने भी उनके लेखन को उल्लेखनीय बताया है।

यश मालवीय के अनुसार यह एक मानक आत्मकथा है, जिसमें लेखक ने एक बड़ा कालखंड समेटा है। वृत्तांत में वेगवती नदी का सा प्रवाह है, भाषा भी उतनी ही पानीदार है। यह एक न भूलने वाला दस्तावेज़ है, जिसके लिए कवि उद्भ्रांत याद किए जाएंगे क्योंकि उन्होंने विस्मरण के इस घनघोर समय में स्मरण की गंगा बहा दी है। बेशक इसे पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की अपनी ख़बर और बच्चन जी की आत्मकथाओं के सभी खण्डों की परंपरा में रखकर देखा जा सकता है।


 देवमणि पाण्डेय : 98210 82126              

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बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

साहित्यायन फाउंडेशन मुम्बई का प्रथम साहित्य समारोह

दीक्षित दनकौरी को नंदलाल पाठक साहित्य पुरस्कार 

भिषेक सिंह को नंदलाल पाठक प्रतिभा पुरस्कार


मुम्बई ऐसा शहर है जहाँ प्रतिदिन सैकड़ों आयोजन पाँचसितारा होटलों से लेकर छोटे मोटे स्थानों पर होते है। लेकिन कुछ आयोजन ऐसे होते हैं जो यादगार होने के साथ ही अपनी एक अलग छाप छोड़ जाते है। आज जब मुंबई के बड़े कॉर्पोरेट घराने विभिन्न आयोजनों के नाम पर पश्चिमी सभ्यता को पोसने वाले कार्यक्रम कर करोड़ो रुपये खर्च कर देते हैं वहीँ बिड़ला उद्योग समूह की श्रीमती राजश्री बिड़ला ने हिंदी कवियों और हिंदी पुस्तक को समर्पित एक ऐसा आयोजन किया जिसकी सुरभि हिंदी साहित्य जगत को बरसों तक महकाती करती रहेगी। सबसे बड़ी बात ये है कि इस कार्यक्रम में श्रीमती राजश्री बिड़ला, उनके पुत्र कुमार मंगलम बिड़ला और उनका परिवार पूरे समय मौजूद रहा। यह अपने आप में एक दुर्लभ दृश्य था कि हिंदी साहित्य के किसी कार्यक्रम में देश के इतने बड़े उद्योगपति का परिवार इतने सम्मान और भाव से पूरे समय उपस्थित रहे।

समारोह अध्यक्ष पद्मभूषण राजश्री बिरला ने अपने वक्तव्य के ज़रिए साबित किया कि उन्हें कला, साहित्य और संस्कृति से गहरा अनुराग है। 97 वर्ष के ग़ज़लकार नंदलाल पाठक ने पुरस्कार के औचित्य पर प्रकाश डाला। सभागार में नंदलाल पाठक के कई चुनिंदा शेरों को ख़ूबसूरत पेंटिंग की तरह पेश किया गया था।  कार्यक्रम की भव्यता किसी कॉर्पोरेट कंपनी के आयोजन जैसी थी मगर रचनात्मकता किसी साहित्य उत्सव जैसी थी।

इस कार्यक्रम के माध्यम से दो नए पुरस्कारों की शुरुआत के साथ मुंबई में एक नए रचनात्मक माहौल का आगाज़ हुआ। दीपावली अवकाश और छठ उत्सव की दस्तक के बावजूद जिस उमंग और उत्साह के साथ इस पुरस्कार समारोह में श्रोताओं ने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई वह अविस्मरणीय है। इनमें कला, साहित्य और व्यवसाय से जुड़े प्रमुख लोग थे यानी हर श्रोता अपने आप में विशिष्ट था। बिड़ला उद्योग समूह की श्रीमती राजश्री बिड़ला की प्रेरणा से स्थापित  साहित्यायन फाउंडेशन मुंबई का यह प्रथम आयोजन था। हिंदी काव्य साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए वरिष्ठ ग़ज़लकार दीक्षित दनकौरी को नंदलाल पाठक साहित्य पुरस्कार (₹ पांच लाख) और युवा ग़ज़लकार अभिषेक कुमार सिंह को नंदलाल पाठक प्रतिभा पुरस्कार (₹ एक लाख) मुम्बई में आयोजित एक साहित्य समारोह में मुख्य अतिथि सुधांशु त्रिवेदी (सांसद) ने दोनों रचनाकारों को पुरस्कार प्रदान करके सम्मानित किया।

ग़ज़लकार दीक्षित दनकौरी ने “ग़ज़ल दुष्यंत के बाद” (चार खंड) संकलन का संपादन किया है जिसमें एक हज़ार से अधिक ग़ज़लकार शामिल हैं। यह एक महत्वपूर्ण कार्य है। दूसरी तरफ़ पिछले 16 सालों से लगातार ग़ज़ल कुंभ का आयोजन करके उन्होंने ग़ज़ल के पक्ष में अच्छा माहौल बनाया है। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि वे पुरस्कार राशि का उपयोग निजी हित के लिए नहीं बल्कि ग़ज़ल के हित के लिए करेंगे।

अपने दो ग़ज़ल संग्रहों के ज़रिए ग़ज़लकार अभिषेक ने बेहतर संभावनाओं का संकेत दिया है। फ़िलहाल हम जिन वैश्विक चुनौतियों, वैचारिक संक्रीणताओं, धार्मिक उन्माद और प्रकृति के प्रकोप का सामना कर रहे हैं उनका प्रतिबिंब अभिषेक की ग़ज़लों में दिखाई देता है। अभिषेक ने इस बात पर ज़ोर दिया कि ग़ज़ल के विकास के लिए सामूहिक प्रयास की ज़रूरत है।

इस अवसर पर पाठक जी का ग़ज़ल संग्रह “जीवन एक ग़ज़ल है” का भी लोकार्पण  हुआ जिसके लिए वाणी प्रकाशन के मुखिया अरुण माहेश्वरी भी मौजूद थे। कार्यक्रम के समपान के बाद पाठकजी की पुस्तक की खरीदी के लिए उमड़ी भीड़ से ऐहसास हुआ कि पाठकजी और उनका रचनाकर्म मुंबई के साहित्यप्रेमियों के लिए क्या महत्व रखता है।

 श्री नंदलाल पाठक ने कहा कि देश में बिड़ला परिवार ने साहित्य संस्कृति, धर्म और परोपकार की ऐसी मिसालें कायम की है जिसका लाभ कई  पीढ़ियों से लोगों को मिल रहा है। उन्होंने कहा कि बिड़ला परिवार जो मंदिर बनवाता है उसमें देवता की मूर्ति का पता तो तब चलता है जब कोई मंदिर तक पहुँचता है लेकिन दूर से देखने वाले उसे बिड़ला मंदिर ही कहते हैं, कोई समाज किसी उद्योगपति को ऐसा सम्मान दे तो समझा जा सकता है कि उस उद्योगपति का समाज के प्रति क्या भाव है।

वर्ली, मुम्बई के फोर सीज़न्स होटल के बैंक्वेट हाल में आयोजित इस भव्य व गरिमामयी कार्यक्रम में हिंदी ग़ज़ल न सिर्फ़ दिखाई दी बल्कि सुनाई भी दी। इसे साहित्य की छोटी मोटी घटना मान कर अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। बिड़ला परिवार शीर्ष व्यवसायी होने  के  साथ ही  स्वतन्त्रता   आंदोलन से लेकर धर्म, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में जो योगदान है उसी क्रम में श्रीमती राजश्री बिड़ला ने एक अध्याय साहित्य का भी जोड़ दिया है और अपने गुरू और हिंदी के जानेमाने ग़ज़लकार नंदलाल पाठक के नाम से सम्मान और पुरस्कार का सिलसिला शुरू किया है।

बीजेपी के फायरब्रांड प्रवक्ता  व कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सांसद सुधांशु त्रिवेदी के रूप में उद्बोधन में एक अलग ही अंदाज़ में नज़र आए. सारगर्भित बात करके ताली बटोर कर ले गए। उन्होंने अपनी प्रत्युत्पन्नमति, संस्कृत श्लोकों, हिंदी कविताओं और गजलों से ऐसा समाँ बांधा कि उपस्थित श्रोता मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते रहे। अपने सुदीर्घ वक्तव्य में आचार्य मम्मट, वाल्मीकि, सुमित्रानंदन पंत, अटल बिहारी वाजपेई और नंदलाल पाठक की काव्य पंक्तियों को उद्धृत किया- “ज़हर पीता हुआ हर आदमी शंकर नहीं होता/ न जब तक आदमी इंसान हो शायर नहीं होता।”

सुधांशु जी को -” राष्ट्रीयता के आयाम” पर अपने विचार व्यक्त करना थे। अपने वक्तव्य को पूर्णता प्रदान करते हुए उन्होंने इस विचार को रेखांकित किया कि राष्ट्र जीवंत चेतना का प्रतीक होता है जिसे न काटा जा सकता है और न बांटा जा सकता है। उन्होंने ऐतिहासिक व आज के मौजूद प्रमाणों के साथ कहा कि पूरी दुनिया में चीन से लेकर कंबोडिया और इंडोनेशिया व जापान तक हिंदू संस्कृति के चिन्ह आज भी जीवित हैं और हम दावे से कह सकते हैं कि ये देश हमारी संस्कृति के अंग हैं।


साहित्यायन फाउंडेशन के इस प्रथम साहित्य समारोह में प्रो नंदलाल पाठक के ग़ज़ल संग्रह “जीवन एक ग़ज़ल है” का लोकार्पण किया गया। बात संचालन की की जाए तो देवमणि पाण्डेय ने अपने अभिनव अंदाज व सटीक ग़ज़लों के माध्यम से पूरे कार्यक्रम को एक रसभरी शाम में बदल दिया।

इस अवसर पर आयोजित ग़ज़ल संध्या में सुश्री पूनम विश्वकर्मा, सुमन जैन, अभिषेक कुमार सिंह, देवमणि पांडेय, दीक्षित दनकौरी और नंदलाल पाठक ने अपनी ग़ज़लों का पाठ किया। प्रतिष्ठित गायिका वृषाली बियानी ने नंदलाल पाठक की दो ग़ज़लों की संगीतमय प्रस्तुति की। अंत में वाणी प्रकाशन के निदेशक अरुण माहेश्वरी ने आभार व्यक्त किया। इस ग़ज़ल पाठ के श्रोताओं में मुम्बई महानगर के कई लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों के साथ उद्योगपति कुमार मंगलम बिरला, उद्योगपति सुश्री किरण बजाज और सांसद सुधांशु त्रिवेदी भी मौजूद थे।

साभार : HINDIMEDIA.IN
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सोमवार, 29 सितंबर 2025

उजालों के आसपास : ग़ज़ल संग्रह


उजालों के आसपास:अभिषेक सिंह का ग़ज़ल संग्रह 

हिंदी काव्य साहित्य की लोकप्रिय विधा ग़ज़ल एक लंबा सफ़र तय कर चुकी है। अब इसमें प्रेम, प्रकृति, प्रतिरोध और पर्यावरण से लेकर वे तमाम चिंताएं शामिल हैं जो मौजूद समय और समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं। अभिषेक कुमार सिंह की ग़ज़लों में भी यही विषय वैविध्य दिखाई पड़ता है। अपने प्रथम ग़ज़ल संग्रह “वीथियों के बीच” से अभिषेक ने बेहतर संभावनाओं का संकेत दिया था। हाल ही में श्वेत वर्णा प्रकाशन (नोएडा) से उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह आया है- “उजालों के आसपास।” अपने प्रथम संग्रह से उन्होंने जो उम्मीदें जगाई थीं उसे उन्होंने दूसरे संग्रह में भी क़ायम रखा है। 


अभिषेक जन सरोकार के कवि हैं। आज के कठिन दौर में हम जिन सामाजिक-आर्थिक सवालों, वैश्विक चुनौतियों, वैचारिक संक्रीणताओं, धार्मिक उन्माद और प्रकृति के प्रकोप का सामना कर रहे हैं उनका प्रतिबिंब अभिषेक की ग़ज़लों में दिखाई देता है। 


अजीब घोड़े हैं चाबुक की मार सहकर भी 

सलाम करते हैं मालिक को हिनहिनाते हुए 


संगठित जो भीड़ है बलवाइयों के वेश में 

साथ मेरे चल रही है राहियों के वेश में 


दिहाड़ी भीड़ तो छँट जाएगी इक दिन इशारे से

हटाने कौन आएगा मगर अंजाम का पत्थर 


जैसे ही धर्म मुद्दा बना इक विवाद का 

बोतल से जिन्न आया निकल लव जिहाद का 


कथ्य की यही समृद्धि उन्हें अपने समकालीनों में विशिष्ट बनाती है। अभिषेक बड़ी से बड़ी बात कहने के लिए ग़ज़ल के रूप में सुगम रास्ता ढूंढ़ लेते हैं। उनकी अभिव्यक्ति में इतनी सहजता है कि वे बिना किसी उलझन के अपनी बात कहने में कामयाब होते हैं। 


है मनाही तर्क के टीले पर चढ़ने की 

इस जगह से सच का सिग्नल रीच होता है 


स्वर्ग का राजा भी आकर जोड़ता है हाथ 

जब तपस्वी में कोई दाधीच होता है 


हमारे आसपास क्या घटित हो रहा है एक सजग शायर उस पर अपनी निगाह रखता है। अभिषेक भी यह काम बख़ूबी करते हैं- “दौड़ रहे सब धन के पीछे/ जैसे राम हिरन के पीछे।” कभी-कभी वे अपने आसपास का कोई दृश्य इस सलीक़े से सामने रख देते हैं कि देखने वाला विस्मित हो जाता है- 


सुस्ता रहे हैं धूप की डोली के सब कहार 

सड़कों पे बिछ गया है बिछौना पलाश का 


अभिषेक की ग़ज़लों में अनुभव और भावनाओं की असरदार अभिव्यक्ति है। वे ज़िंदगी के सूक्ष्म अनुभवों को भी बड़ी संजीदगी और कलात्मकता से रचनात्मकता के दायरे में लाते हैं। समय और समाज के ज़रूरी मुद्दों को सांकेतिक शैली में पेश करना उनकी ख़ासियत है। वे धर्म और राजनीति पर बेबाक टिप्पणी करते हैं। उनकी ग़ज़लों में आज के समाज की सोच और आम आदमी की पीड़ा शामिल है। कभी-कभी अपनी अभिव्यक्ति में वे व्यंग्य की धारदार शैली का भी बढ़िया इस्तेमाल करते हैं। वे अपने पास उपलब्ध रंगों से विविधरंगी छवियां बनाते हैं। इन छवियों में समाज के सुख-दुख भी हैं और ज़िंदगी की धूप छांव भी है। यह कारण है कि उनकी ग़ज़लें पाठकों की हमसफ़र बन जाती हैं। 


लज़ीज़ व्यंजनों में घुल चुके नमक की तरह 

ग़ज़ल है जीस्त की मिट्टी में उर्वरक की तरह


इस नये ग़ज़ल संग्रह के लिए मैं अभिषेक को दिल से बधाई देता हूं और उम्मीद करता हूं कि वे रचनात्मकता के नए आयाम रचते हुए ग़ज़ल के इसी राजमार्ग पर गतिशील रहेंगे।

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आपका : देवमणि पांडेय

सम्पर्क : 98210 82126 

मोलियर के प्रसिद्ध नाटक कंजूस का मंचन

  मोलियर के प्रसिद्ध नाटक कंजूस का मंचन

हंसी ठहाकों के बीच चित्रनगरी संवाद मंच मुंबई में मोलियर के मशहूर नाटक 'कंजूस' का मंचन हुआ। बारिश की आशंका के बावजूद 'कंजूस' के कारनामों पर ठहाका लगाने के लिए अच्छी तादाद में दर्शक पधारे और उन्होंने इस कॉमेडी नाटक का जमकर लुत्फ़ उठाया। ख़ुशी की बात यह है कि दशकों में कुछ बच्चे भी मौजूद थे और उन्हें भी इस प्रस्तुति में भरपूर आनंद आया। केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट गोरेगांव के मृणालताई हाल में मंचित इस नाटक में रंगगर्मी विजय कुमार और उनके साथी कलाकारों का अभिनय ज़बरदस्त रहा। 


'कंजूस' की कहानी मिर्ज़ा शखावत बेग़ (विजय कुमार) नामक एक अमीर, लेकिन अत्यंत लालची बुज़ुर्ग के इर्द-गिर्द घूमती है। वह अपने पैसे से बहुत प्यार करता है। उसका लालच इतना बढ़ जाता है कि वह अपने बच्चों की ख़ुशी, प्यार और भविष्य की भी परवाह नहीं करता। वह अपने बेटे फारूक़ की प्रेमिका मरियम से ख़ुद शादी करना चाहता है और अपनी बेटी अज़रा का विवाह एक अमीर लेकिन बुज़ुर्ग व्यक्ति से कराना चाहता है।


कहानी में तब अद्भुत मोड़ आता है जब मिर्ज़ा बेग़ का छुपा हुआ धन चोरी हो जाता है, जिससे वह पागलों की तरह व्यवहार करने लगता है। बी.एम. शाह द्वारा निर्देशित कंजूसी और लालच जैसे गंभीर विषय पर आधारित इस क्लासिक कॉमेडी को रंगकर्मी विजय कुमार ने हास्य के माध्यम से जिस पुरलुत्फ़ तरीक़े से पेश किया है वह बेहद क़ाबिले तारीफ़ है। मिर्ज़ा बेग़ के चरित्र की सनक, उनके संवाद और ख़ासकर नौकरों के साथ उनकी नोंक-झोंक दर्शकों को ख़ूब हँसाती है। 


मिर्ज़ा बेग़ (कंजूस) का चरित्र सबसे मज़ेदार और चुनौतीपूर्ण है जो दर्शकों को बाँधे रखता है। विजय कुमार ने इसके लिए बॉडी लैंग्वेज़ का ज़बरदस्त इस्तेमाल किया है। कई बार उनकी देह भाषा दर्शकों से ताली बजवाती है। नाटक के बाक़ी सभी पात्रों ने अपनी अपनी भूमिका को सराहनीय ढंग से अंजाम तक पहुंचाया है। 

कुल मिलाकर, 'कंजूस' फ्रांसीसी नाटककार मोलियर के कालजयी नाटक का एक सफल हिंदी रूपांतरण है। कहा जाता है कि सन् 1963 में हज़रत आवारा ने इसका हिंदी रूपांतरण किया था। यह नाटक आज भी हास्य और व्यंग्य के माध्यम से लोभ-लालच के बुरे प्रभावों पर प्रकाश डालता है। मनोरंजक प्रस्तुति के कारण दर्शकों ने इसे ख़ूब पसंद किया। नाटक के अंत में विजय कुमार ने श्रोताओं से संवाद किया और अपना 'मन बसिया' गीत भी सुनाया। 


28 सितंबर स्वर कोकिला लता मंगेशकर का जन्मदिन है। दशकों ने उन्हें आदर के साथ याद किया। गायिका नाज़नीन ने उनकी पावन स्मृति में उनकी गाई हुई एक ग़ज़ल सुनाई जिसे मजरुह सुलतानपुरी ने लिखा है। अंत में डॉ मधुबाला शुक्ल ने आभार व्यक्त किया। 


इस अवसर पर दर्शकों में कई प्रतिष्ठित रंगकर्मी मौजूद थे। इनमें जयंत जी, हरीश जी, राजेश जादव, प्रमोद सचान, सोनू पाहूजा, राजकुमार कनौजिया और शाइस्ता ख़ान शामिल थे। रचनाकार जगत से आभा बोधिसत्व, अंबिका झा, मंजू शर्मा, अनिल गौड़, हेमंत शर्मा, राजू मिश्र कविरा और अनुज वर्मा उपस्थित थे। 


आपका : देवमणि पांडेयस

सम्पर्क : 98210 82126