सोमवार, 29 सितंबर 2025

उजालों के आसपास : ग़ज़ल संग्रह


उजालों के आसपास:अभिषेक सिंह का ग़ज़ल संग्रह 

हिंदी काव्य साहित्य की लोकप्रिय विधा ग़ज़ल एक लंबा सफ़र तय कर चुकी है। अब इसमें प्रेम, प्रकृति, प्रतिरोध और पर्यावरण से लेकर वे तमाम चिंताएं शामिल हैं जो मौजूद समय और समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं। अभिषेक कुमार सिंह की ग़ज़लों में भी यही विषय वैविध्य दिखाई पड़ता है। अपने प्रथम ग़ज़ल संग्रह “वीथियों के बीच” से अभिषेक ने बेहतर संभावनाओं का संकेत दिया था। हाल ही में श्वेत वर्णा प्रकाशन (नोएडा) से उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह आया है- “उजालों के आसपास।” अपने प्रथम संग्रह से उन्होंने जो उम्मीदें जगाई थीं उसे उन्होंने दूसरे संग्रह में भी क़ायम रखा है। 


अभिषेक जन सरोकार के कवि हैं। आज के कठिन दौर में हम जिन सामाजिक-आर्थिक सवालों, वैश्विक चुनौतियों, वैचारिक संक्रीणताओं, धार्मिक उन्माद और प्रकृति के प्रकोप का सामना कर रहे हैं उनका प्रतिबिंब अभिषेक की ग़ज़लों में दिखाई देता है। 


अजीब घोड़े हैं चाबुक की मार सहकर भी 

सलाम करते हैं मालिक को हिनहिनाते हुए 


संगठित जो भीड़ है बलवाइयों के वेश में 

साथ मेरे चल रही है राहियों के वेश में 


दिहाड़ी भीड़ तो छँट जाएगी इक दिन इशारे से

हटाने कौन आएगा मगर अंजाम का पत्थर 


जैसे ही धर्म मुद्दा बना इक विवाद का 

बोतल से जिन्न आया निकल लव जिहाद का 


कथ्य की यही समृद्धि उन्हें अपने समकालीनों में विशिष्ट बनाती है। अभिषेक बड़ी से बड़ी बात कहने के लिए ग़ज़ल के रूप में सुगम रास्ता ढूंढ़ लेते हैं। उनकी अभिव्यक्ति में इतनी सहजता है कि वे बिना किसी उलझन के अपनी बात कहने में कामयाब होते हैं। 


है मनाही तर्क के टीले पर चढ़ने की 

इस जगह से सच का सिग्नल रीच होता है 


स्वर्ग का राजा भी आकर जोड़ता है हाथ 

जब तपस्वी में कोई दाधीच होता है 


हमारे आसपास क्या घटित हो रहा है एक सजग शायर उस पर अपनी निगाह रखता है। अभिषेक भी यह काम बख़ूबी करते हैं- “दौड़ रहे सब धन के पीछे/ जैसे राम हिरन के पीछे।” कभी-कभी वे अपने आसपास का कोई दृश्य इस सलीक़े से सामने रख देते हैं कि देखने वाला विस्मित हो जाता है- 


सुस्ता रहे हैं धूप की डोली के सब कहार 

सड़कों पे बिछ गया है बिछौना पलाश का 


अभिषेक की ग़ज़लों में अनुभव और भावनाओं की असरदार अभिव्यक्ति है। वे ज़िंदगी के सूक्ष्म अनुभवों को भी बड़ी संजीदगी और कलात्मकता से रचनात्मकता के दायरे में लाते हैं। समय और समाज के ज़रूरी मुद्दों को सांकेतिक शैली में पेश करना उनकी ख़ासियत है। वे धर्म और राजनीति पर बेबाक टिप्पणी करते हैं। उनकी ग़ज़लों में आज के समाज की सोच और आम आदमी की पीड़ा शामिल है। कभी-कभी अपनी अभिव्यक्ति में वे व्यंग्य की धारदार शैली का भी बढ़िया इस्तेमाल करते हैं। वे अपने पास उपलब्ध रंगों से विविधरंगी छवियां बनाते हैं। इन छवियों में समाज के सुख-दुख भी हैं और ज़िंदगी की धूप छांव भी है। यह कारण है कि उनकी ग़ज़लें पाठकों की हमसफ़र बन जाती हैं। 


लज़ीज़ व्यंजनों में घुल चुके नमक की तरह 

ग़ज़ल है जीस्त की मिट्टी में उर्वरक की तरह


इस नये ग़ज़ल संग्रह के लिए मैं अभिषेक को दिल से बधाई देता हूं और उम्मीद करता हूं कि वे रचनात्मकता के नए आयाम रचते हुए ग़ज़ल के इसी राजमार्ग पर गतिशील रहेंगे।

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आपका : देवमणि पांडेय

सम्पर्क : 98210 82126 

मोलियर के प्रसिद्ध नाटक कंजूस का मंचन

  मोलियर के प्रसिद्ध नाटक कंजूस का मंचन

हंसी ठहाकों के बीच चित्रनगरी संवाद मंच मुंबई में मोलियर के मशहूर नाटक 'कंजूस' का मंचन हुआ। बारिश की आशंका के बावजूद 'कंजूस' के कारनामों पर ठहाका लगाने के लिए अच्छी तादाद में दर्शक पधारे और उन्होंने इस कॉमेडी नाटक का जमकर लुत्फ़ उठाया। ख़ुशी की बात यह है कि दशकों में कुछ बच्चे भी मौजूद थे और उन्हें भी इस प्रस्तुति में भरपूर आनंद आया। केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट गोरेगांव के मृणालताई हाल में मंचित इस नाटक में रंगगर्मी विजय कुमार और उनके साथी कलाकारों का अभिनय ज़बरदस्त रहा। 


'कंजूस' की कहानी मिर्ज़ा शखावत बेग़ (विजय कुमार) नामक एक अमीर, लेकिन अत्यंत लालची बुज़ुर्ग के इर्द-गिर्द घूमती है। वह अपने पैसे से बहुत प्यार करता है। उसका लालच इतना बढ़ जाता है कि वह अपने बच्चों की ख़ुशी, प्यार और भविष्य की भी परवाह नहीं करता। वह अपने बेटे फारूक़ की प्रेमिका मरियम से ख़ुद शादी करना चाहता है और अपनी बेटी अज़रा का विवाह एक अमीर लेकिन बुज़ुर्ग व्यक्ति से कराना चाहता है।


कहानी में तब अद्भुत मोड़ आता है जब मिर्ज़ा बेग़ का छुपा हुआ धन चोरी हो जाता है, जिससे वह पागलों की तरह व्यवहार करने लगता है। बी.एम. शाह द्वारा निर्देशित कंजूसी और लालच जैसे गंभीर विषय पर आधारित इस क्लासिक कॉमेडी को रंगकर्मी विजय कुमार ने हास्य के माध्यम से जिस पुरलुत्फ़ तरीक़े से पेश किया है वह बेहद क़ाबिले तारीफ़ है। मिर्ज़ा बेग़ के चरित्र की सनक, उनके संवाद और ख़ासकर नौकरों के साथ उनकी नोंक-झोंक दर्शकों को ख़ूब हँसाती है। 


मिर्ज़ा बेग़ (कंजूस) का चरित्र सबसे मज़ेदार और चुनौतीपूर्ण है जो दर्शकों को बाँधे रखता है। विजय कुमार ने इसके लिए बॉडी लैंग्वेज़ का ज़बरदस्त इस्तेमाल किया है। कई बार उनकी देह भाषा दर्शकों से ताली बजवाती है। नाटक के बाक़ी सभी पात्रों ने अपनी अपनी भूमिका को सराहनीय ढंग से अंजाम तक पहुंचाया है। 

कुल मिलाकर, 'कंजूस' फ्रांसीसी नाटककार मोलियर के कालजयी नाटक का एक सफल हिंदी रूपांतरण है। कहा जाता है कि सन् 1963 में हज़रत आवारा ने इसका हिंदी रूपांतरण किया था। यह नाटक आज भी हास्य और व्यंग्य के माध्यम से लोभ-लालच के बुरे प्रभावों पर प्रकाश डालता है। मनोरंजक प्रस्तुति के कारण दर्शकों ने इसे ख़ूब पसंद किया। नाटक के अंत में विजय कुमार ने श्रोताओं से संवाद किया और अपना 'मन बसिया' गीत भी सुनाया। 


28 सितंबर स्वर कोकिला लता मंगेशकर का जन्मदिन है। दशकों ने उन्हें आदर के साथ याद किया। गायिका नाज़नीन ने उनकी पावन स्मृति में उनकी गाई हुई एक ग़ज़ल सुनाई जिसे मजरुह सुलतानपुरी ने लिखा है। अंत में डॉ मधुबाला शुक्ल ने आभार व्यक्त किया। 


इस अवसर पर दर्शकों में कई प्रतिष्ठित रंगकर्मी मौजूद थे। इनमें जयंत जी, हरीश जी, राजेश जादव, प्रमोद सचान, सोनू पाहूजा, राजकुमार कनौजिया और शाइस्ता ख़ान शामिल थे। रचनाकार जगत से आभा बोधिसत्व, अंबिका झा, मंजू शर्मा, अनिल गौड़, हेमंत शर्मा, राजू मिश्र कविरा और अनुज वर्मा उपस्थित थे। 


आपका : देवमणि पांडेयस

सम्पर्क : 98210 82126