tag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post951607145355341696..comments2023-08-18T09:05:14.983-07:00Comments on Apna To Mile Koi : ग़ज़ल यानी दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेतीदेवमणि पांडेय Devmani Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/09583435334580761206noreply@blogger.comBlogger18125tag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-52684665155734670402014-09-20T20:18:18.665-07:002014-09-20T20:18:18.665-07:00इस सिलसिले में अब एक क़िस्सा और जोड़ लीजियेगा
कहाँ...इस सिलसिले में अब एक क़िस्सा और जोड़ लीजियेगा <br /><br />कहाँ रहे तुम इतने साल <br />आईने शीशे हो गये <br />- नवीन सी चतुर्वेदी<br /><br />शीशा हूँ जिस की परली तरफ़ जंग है बहुत <br />दुनिया समझ रही है मगर आईना हूँ मैं<br /><br />ख़ुशबीर सिंह शादwww.navincchaturvedi.blogspot.comhttps://www.blogger.com/profile/07881796115131060758noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-49490824437995670242012-06-01T10:26:14.940-07:002012-06-01T10:26:14.940-07:00सिर्फ जमीन या एक मिसरा ही नहीं..
अगर दोनों मिसरे भ...सिर्फ जमीन या एक मिसरा ही नहीं..<br />अगर दोनों मिसरे भी मिलते हों तो आप नहीं कह सकते कि चुराया हुआ शेर है<br /><br />सिर्फ हंसी आती है बस अब..<br />:)manuhttps://www.blogger.com/profile/11264667371019408125noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-35701241262616384902012-05-24T00:31:47.020-07:002012-05-24T00:31:47.020-07:00लंदन से प्राण शर्मा का ईमेल
प्रिय देवमणि जी ,
आपकी...लंदन से प्राण शर्मा का ईमेल<br />प्रिय देवमणि जी ,<br />आपकी जानकारी बहुत है , इतनी जानकारी तो किसी उर्दू के उस्ताद शायर की भी नहीं होगी। आपने सही फरमाया है कि बिस्मिल के दूसरे शेर में सही रदीफ़ का इस्तेमाल नहीं हुआ है। ये मेरी गलती है। सही मिसरा यूँ है -<br /> ` मिटने न देंगे मुल्क ये ऐलान लीजिये'<br />वैसे इस शेर का पहला मिसरा बेवज़न है। राम प्रसाद बिस्मिल के कुछेक शेरों या मिसरों को काई शायरों ने ज्यों का त्यों उठाया है . जिगर मुरादाबादी का मशहूर शेर है -<br /><br />ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे <br />इक आग का दरिया है और डूब के जाना है <br /><br /> राम प्रसाद बिस्मिल के मक्ता पर गौर फरमाईयेगा -<br /><br />` बिस्मिल ` ऐ वतन तेरी इस राह-ए-मुहब्बत में <br />इक आग का दरिया है और डूब के जाना है<br /> <br /> निदा फाज़ली इस शेर से पहचाने जाते हैं -<br /><br />दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है <br />खो जाये तो मिट्टी है मिल जाये तो सोना है<br /> <br />निदा फाज़ली के शेर पर राम प्रसाद बिस्मिल के इस शेर की पूरी झलक है -<br /><br />सब वक़्त की बातें हैं सब खेल है किस्मत का <br />बिंध जाये तो मोती है रह जाये तो दाना है<br /> <br /> जिन शेरों या मिसरों से राम प्रसाद बिस्मिल को ख्याति मिलनी चाहिए थी वो अन्य शायर लूट कर ले गए। उनके दो- तीन अशआर सुनियेगा -<br /><br />आता है याद हमको गुज़रा हुआ ज़माना <br />वो झाड़ियाँ चमन की वो मेरा आशियाना <br />वो प्यारी - प्यारी सूरत वो मोहनी सी मूरत <br />आबाद जिसके दम से था मेरा आशियाना <br />आज़ादियाँ कहाँ वो अब मेरे घोंसले की <br />अपनी खुशी से आना अपनी खुशी से जाना <br /> शुभ कामनाओं के साथ ,<br /> प्राण शर्मादेवमणि पांडेय Devmani Pandeyhttps://www.blogger.com/profile/09583435334580761206noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-26925312902572849492012-05-23T08:19:36.625-07:002012-05-23T08:19:36.625-07:00मीर का शेर पहली बात तो ग़ालिब के शेर के मुकाबिल उँ...मीर का शेर पहली बात तो ग़ालिब के शेर के मुकाबिल उँचे दर्जे का है दूसरे दोनों शेर अलग-अलग स्थिति के हैं। <br />दूसरे दोनों शेर एक ही बात तो कहते हैं मगर अलग-अलग तरह से बॉंधे गये हैं। अभिव्यक्ति एक है लेकिन मार्ग अलग।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-87383697656769743662012-05-23T02:48:06.867-07:002012-05-23T02:48:06.867-07:00मुझे लगता है कि 'ख़ुदाए-सुख़न मीर' से मिर्ज़...मुझे लगता है कि 'ख़ुदाए-सुख़न मीर' से मिर्ज़ा ग़ालिब काफ़ी प्रभावित थे। उन पर मीर का यह असर साफ़-साफ़ दिखाई देता है। मिसाल के तौर पर दोनों के दो-दो शेर देखिए-<br /><br />तेज़ यूँ ही न थी शब आतिशे-शौक़<br />थी ख़बर गर्म उनके आने की<br />मीर तकी मीर<br /><br />थी ख़बर गर्म उनके आने की<br />आज ही घर में बोरिया न हुआ<br />मिर्ज़ा ग़ालिब<br /><br />होता है याँ जहां में हर रोज़ो-शब तमाशा<br />देखा जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा<br />मीर तकी मीर<br /><br />बाज़ी-चा-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे<br />होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे<br />मिर्ज़ा ग़ालिबदेवमणि पांडेय Devmani Pandeyhttps://www.blogger.com/profile/09583435334580761206noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-70069388812094743312012-05-23T01:39:25.679-07:002012-05-23T01:39:25.679-07:00प्राण साहब के उदाहरणों को देखें तो एक बात तो स्पष...प्राण साहब के उदाहरणों को देखें तो एक बात तो स्पष्ट है कि पूरा मिसरा ले लेना भी स्वीकार किया गया है बशर्त कि कहन में बदलाव हो। ग़ालिब साहब के शेर में स्पष्ट बेखुदी है और अदम साहब का शेर मैं अभी समझने का प्रयास ही कर रहा हूँ कि यह भी बेखुदी ही है या उसके आस-पास भटकता कोई और भाव। <br />मुझे ग़ालिब साहब का शेर कुछ यूँ याद था: हम वहॉं हैं जहॉं से खुद हमको आप अपनी खबर नहीं आती। <br />अदम साहब और ज़हीर देहलवी के शेर में भाव पक्ष एक ही है, मेरे मत में किसी और के पूर्व में कहे मिसरे को पूर्व शेर के भाव में ही बॉंधना तो यह कहता है कि पहले वाला शायर कुछ दमदार शेर नहीं कह सका मैं अब दमदार शेर दे रहा हूँ। <br /><br />अमजद नज्मी साहब और जिगर मुरादाबादी साहब के शेर एक ही भाव रखते हुए भी अलग-अलग मंज़र पर हैं इसलिये इनमें तो कोई समस्या नज़र नहीं आती। <br /><br />राम प्रसाद ` बिस्मिल ` के नाम से जो अशआर बताये गये हैं उनको लेकर मुझे शंका है, लगता है किसी मूवी में लिये गये शेर हैं ये जो मूल ग़ज़ल से हट के होंगे। मेरी शंका का कारण पहले शेर का भाव, दूसरे का रदीफ़ है। <br />अब एक प्रश्न: शिकवा, शिकायतें, न गिला कीजिये अभी<br />बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये में अगर मैं खुलकर स्वीकार करूँ कि दूसरी पंक्ति पूरी की पूरी किसी अन्य शायर के शेर से ली है जिसका नाम मुझे ज्ञात नहीं तो क्या यह शेर अपना वज़ूद खो देगा। मुझे तो नहीं लगता।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-36207800565791660742012-05-22T05:07:38.695-07:002012-05-22T05:07:38.695-07:00लंदन से प्राण शर्मा ने मेल किया-
प्रिय देवमणि जी ...लंदन से प्राण शर्मा ने मेल किया-<br /><br />प्रिय देवमणि जी ,<br />आपका लेख पसंद आया है . मैंने यह शेर पहले कहीं पढ़ा था -<br /> <br />मेरी कुटिया के मुक़ाबिल आठ मंजिल का मकान <br />तुम मेरे हिस्से की शायद धूप भी खा जाओगे <br /><br />मुझे शेर के रचयिता के नाम का पता नहीं था। दाद देनी पड़ेगी हिन्दी की प्रसिद्ध कहानीकार और कवयित्री सुधा अरोरा जी को,उन्हें तीन दशक पहले कहा गया गया शेर और शायर का नाम अब भी याद है। उर्दू में एक ख़याल के अनेक मिसरे हैं जिनको इस्तेमाल करने में उस्ताद शायरों ने भी गुरेज़ नहीं किया है . देखिए उनके कहे एक ख़याल के मिसरे और अशआर -<br /><br />हम वहाँ हैं जहाँ हमको भी <br />कुछ हमारी खबर नहीं आती <br /> - ग़ालिब <br />कुछ तुम्हारा पता नहीं चलता <br />कुछ हमारी खबर नहीं आती <br /> - अदम <br />कुछ गम- ए - इश्क भी कर देता है मजनून ` अदम `/ और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं <br /> - अदम <br />कुछ तो होते हैं मुहब्बत में जुनूं के आसार<br />और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं <br /> - ज़हीर देहलवी <br />मुहब्बत का दरिया , जवानी की लहरें <br />यहीं डूब जाने को जी चाहता है <br /> - अमजद नज्मी <br />हसीं तेरी आँखें , हसीं तेरे आंसूं <br />यहीं डूब जाने को जी चाहता है <br /> - जिगर मुरादाबादी <br />उमराव जान में शहरयार की ग़ज़ल का मतला है -<br /><br />दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये <br />बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये <br /><br />इस मतला ने शहरयार को रातों - रात मशहूरियों की बुलंदी पर पहुँचा दिया था . मतला के दोनो मिसरे क्रांतिकारी राम प्रसाद ` बिस्मिल `<br />की ग़ज़ल से उठाये गए थे . उनकी चार शेरों की ये ग़ज़ल पढ़ कर देखिए -<br /><br />दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये <br />खंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये <br /><br />मर जायेंगे मिट जायेंगे हम कौम के लिए <br /><br />मिटने न देंगे मुल्क , ये एलान कीजिये <br /><br />बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात <br />बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये <br /><br />`बिस्मिल`ये दिल हुआ है अभी कौम पर फ़िदा <br />अहल - ए - वतन का दर्द भी पहचान लीजिये <br /><br />आपके जानकारी भरे लेख की एक बार और तारीफ़ करता हूँ .<br /><br /> प्राण शर्मादेवमणि पांडेय Devmani Pandeyhttps://www.blogger.com/profile/09583435334580761206noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-51408096556252331532012-05-21T03:09:14.242-07:002012-05-21T03:09:14.242-07:00नीरज भाई की टिप्पणी में कुमार पाशी साहब के शेर पर...नीरज भाई की टिप्पणी में कुमार पाशी साहब के शेर पर कहता हूँ कि: <br />अहसास, लफ़्ज़, बह्र, नया कुछ न जब मिला<br />सोचा बहुत कहूँ, न कहूँ, फिर भी कह गया।<br />शायर के साथ यह समस्या अक्सर रहती होगी लेकिन कुछ तो होता ही है जो उसके कहे शेर को अलग पहचान देता है।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-20803832488708368682012-05-21T00:18:19.242-07:002012-05-21T00:18:19.242-07:00पहले सुधा जी द्वारा दिये गये उदाहरण की बात: जब कुट...पहले सुधा जी द्वारा दिये गये उदाहरण की बात: जब कुटिया के मुकाबिल आठ मंजि़ल का मकां खड़ा हो गया तो शायद कहॉं बचा; फिर भी प्रतीकात्मक दृष्टि से देखें तो दिनेश जी ने एक आशंका भर व्यक्त की थी अपने शेर में जबकि इस बीच चरित्र इतना गिर गया है कि वह आशंका जावेद साहब के शेर तक आते आते यर्थाथ में तब्दील हो गयी। यह उदाहरण बहुत ही रुचिकर है, दोनों काल-संदर्भ में तत्समय के चरित्र की बात कर रहे हैं और अपने-अपने काल संदर्भ में दो अलग शेर हैं। <br />युवराज जी की बात पर आऊँ तो मेरा मानना है कि नकल नहीं यहॉं सुदृढ़ता का महत्व है। किसी समय विशेष में कहा गया कोई शेर जब किसी शायर को कमज़ोर लगता है तो वह अपने तरह से उसे मज़बूत कर प्रस्तुत करने का प्रयास करता है, यह मज़बूती सुनने वालों को पसंद आती है तो शेर चल निकलता है वरना दफ़्न हो जाता है एक नकल के रूप में। बशीर बद्र साहब ने जब '...शाम हो जाये' वाला शेर कहा तो वह लोगों को पसंद आया और इतना आया कि उनके नाम का पर्याय बन गया, बस यही शायरी है। जो शेर चल निकला वो चल निकला नहीं तो दीवान के दीवान दफ़्न हैं जो अदबी दायरे से बाहर ही नहीं निकल पाते; आम श्रोता तक पहुँच ही नहीं पाते। फिर भी '...शाम हो जाये' जैसी स्थिति में शायर का कर्तव्य तो बनता है कि वह प्रस्तुत करते समय लोगों को बताये कि मिसरा कहॉं से उठाया है। मिसरा उठाना गुनाह तो नहीं हॉं यह छुपाना गुनाह है कि कहॉं से उठाया।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-3906694613631696972012-05-20T23:55:23.718-07:002012-05-20T23:55:23.718-07:00Yuvraj Shrimal{Sr Correspondent, DNA Newspaper,Jai...Yuvraj Shrimal{Sr Correspondent, DNA Newspaper,Jaipur}ka Email <br /><br />Pandey Ji, <br /><br />I read your article, Ghazal Yani Dusron Ki Zameen Par Apni Kheti, uploaded on Bhadas4media. Your analysis is really truth revealing and bringing forth a concept that nothing is original. But, i would like to say that i have read and listen the creations by these Shayars. All these creations might be using same words, but the their spirits are variant. They are masterpieces that sooth the minds. If they are copies up to some extent then what's wrong in this as 'copies are copies of the copies'.देवमणि पांडेय Devmani Pandeyhttps://www.blogger.com/profile/09583435334580761206noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-49893824781110240622012-05-20T23:51:38.352-07:002012-05-20T23:51:38.352-07:00वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा (मुम्बई) का ईमेल:
एक और...वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा (मुम्बई) का ईमेल:<br /><br />एक और मिसाल देखें , देवमणि --<br /><br />मेरी कुटिया के मुकाबिल आठ मंजि़ल का मकां,<br />तुम मेरे हिस्से की शायद धूप भी खा जाओगे ! <br /><br />कथायात्रा 1978 में एक गज़लकार दिनेशकुमार शुक्ल ने अपनी पूरी ग़ज़ल के बीच यह एक शेर लिखा था।<br /> <br />पच्चीस साल बाद जावेद अख्तर की किताब 'तरकश'में यह एक पृष्ठ पर था !<br /><br />ऊंची इमारतों से मकां मेरा घिर गया ,<br />कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गये !देवमणि पांडेय Devmani Pandeyhttps://www.blogger.com/profile/09583435334580761206noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-360673405238849752012-05-19T11:16:19.873-07:002012-05-19T11:16:19.873-07:00बेहद महत्वपूर्ण जानकारी। सचमुच पहली बार पता चला कि...बेहद महत्वपूर्ण जानकारी। सचमुच पहली बार पता चला कि ग़ज़ल में भी ज़मीन झगड़े की वजह बनती है। ऐसा भी तो हो सकता है कि जिसने बाद में लिखा, उसने संयोगवश कभी पहले वाले शायर को पढ़ा ही न हो क्योंकि हरेक रचनाकार की हर रचना हर किसी ने पढ़ ही रखी हो ये भी तो ज़रूरी नहीं।<br /><br />- नीलम अंशु ।नीलम शर्मा 'अंशु'https://www.blogger.com/profile/14900740334956197090noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-27380171234650705212012-05-19T08:29:48.345-07:002012-05-19T08:29:48.345-07:00वीनस के उदाहरण के संदर्भ में:
'न जाने किस गली...वीनस के उदाहरण के संदर्भ में: <br />'न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये'<br />दो खूबसूरत शेर सामने हैं लेकिन बात है नज़रिये की। समालोचक की दृष्टि से देखूँ तो सब ठीक ठाक है लेकिन कुछ देर को आलोचक होने का दुस्साहस करूँ तो बहुत से दिलों को चोट पहुँचेगी फिर भी एक बात देखने की है शाम वृद्धावस्था की स्थिति है मृत्यु-काल की नहीं और यहीं दोनों अशआर में मिसरों का परस्पर संबंध समाप्त हो जाता है। <br />पहले शेर में जो बात कही गयी है वह सर पर कफ़न बॉंधे घूमने के अधिक करीब है और इसमें शाम होना न होना महत्व नहीं रखता। <br />दूसरे शेर में जो उजाले की बात आई है वह अंधकार से तो संबंध रख सकती है लेकिन शाम के धुँधलके के लिये उपयुक्त नहीं कही जा सकती है। <br />अगर मेरे कथन से किसी की भावनायें आहत हों तो पूर्ण विनम्रता से मेरी क्षमा प्रार्थना पूर्व से ही प्रस्तुत मानें।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-88804409515662336932012-05-18T21:47:02.595-07:002012-05-18T21:47:02.595-07:00लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है। ग़ज़ल में भी ज़मीनों का झ...लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है। ग़ज़ल में भी ज़मीनों का झगड़ा है और य्र सही है कि न सिर्फ़ नये बल्कि सफ़ल गज़लकार भी पुराने शायरों के मिसरों को किसी भी तरह इस्तेमाल करते हैं। ग़ज़ल में एक दोष ये है कि बहुत शे’र कहे जा चुके हैं और मसाईल एक जैसे हैं और ग़ज़ल में तो repetition बहुत है। आप चराग और हवा पर अगर शे’र खोजेंगे तो हैरान रह जायेंगे कि हर शायर चरागों को जलाता बुझाता रहता है। कोई शाम होते ही बुझा देता है तो कोई सबह होते ही जला लेता है। ग़ज़ल में बहुत दोहराव है लेकिन ताज़गी भी बहुत है जिसका उदाहरण मुनव्वर साहब हैं। कितने नये और सफ़ल प्रयोग किये हैं। मेरे ख़याल से महत्वपूर्ण ये नहीं है कि आप क्या कहते हैं लेकिन ग़ज़ल में महत्वपूर्ण यह है कि आप कितनी नज़ाकत और कैसे अंदाज़ में कहते है , यही हुनर है , शायरी का जिसका उदाहरण-<br /><br />तुम मेरे पास होते हो गोया,<br />जब कोई दूसरा नहीं होता.....Simple , innocent and beautifull..सतपाल ख़यालhttps://www.blogger.com/profile/18211208184259327099noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-70980374278509958912012-05-18T09:21:39.722-07:002012-05-18T09:21:39.722-07:00देवमणि जी, अच्छी जानकारी दी है
इस पोस्ट के सम्बं...देवमणि जी, अच्छी जानकारी दी है <br /><br />इस पोस्ट के सम्बंधित एक २००९ की एक पोस्ट का लिंक दे रहा हूँ, देखिएगा ...<br /> <br />जनाब रामपाल अर्शी -<br /><br />कफ़न कांधे पे लेकर घूमता हूं इसलिये अर्शी,<br />न जाने किस गली में जिंदगी का शाम हो जाये ।<br /><br />http://subeerin.blogspot.in/2009/05/blog-post_23.htmlवीनस केसरीhttps://www.blogger.com/profile/08468768612776401428noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-26523096537589142852012-05-18T07:17:40.279-07:002012-05-18T07:17:40.279-07:00आपके द्वारा दी गई ये जानकारी बहुत अच्छी लगी…आपके द्वारा दी गई ये जानकारी बहुत अच्छी लगी…सुभाष नीरवhttps://www.blogger.com/profile/03126575478140833321noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-30046593568106483132012-05-18T04:48:37.628-07:002012-05-18T04:48:37.628-07:00गंभीर समस पैदा कर दी आपने तो। मुझे याद आ रहे हैं म...गंभीर समस पैदा कर दी आपने तो। मुझे याद आ रहे हैं मरहूम मोहसिन रतलामी जिन्होंने मुझे यह बात कुछ अलग तरह से कही थी। <br />हुआ यह कि 'दिल के अरमॉं ऑंसुओं में बह गये' के हर शेर पर मैंने उलटी बात कही, मसलन: शायद उनका आखिरी हो ये सितम हर सितम ये सोच कर हम सह गये <br />पर मैनें कहा सह लिया पहला सितम तुमने अगर तो सितम सारी उमर ढायेंगे। <br />मोहसिन साहब बोले कि ये तो आपने ज़मीन उठा ली। मैनें आसमॉं उठाते तो सुना था मगर मेरे लिये ये नयी बात थी। बहरहाल बात समझ में आई तो मैनें कहा हुजूर ज़मीन छोडि़ये, तेवर तो देखिये। <br />मुझे लगता है कि हमें पूर्ण मौलिकता और समग्र मौलिकता में भेद करने की जरूरत है। आपकी प्रस्तुति के नज़रिये से देखें तो पूर्ण मौलिकता मिलना शायद कठिन हो लेकिन अगर शेर में कुछ भी नया है तो उसे समग्र मूल्यांकन में मौलिक माना जाना चाहिये। पूर्ण मौलिकता तो शायद अन्य काव्य में भी नहीं मिलेगी। एक और स्थिति हो सकती है मात्र संयोग की। एक ही ज़मीन पर कई-कई शेर कहने वाले कई शायर मिल जायेंगे। मुझै इसमें कुछ अजूबा नहीं लगता। हॉं, शब्दश: उठाये हुए शेर अलग दिख जाते हैं। <br />तरही ग़ज़ल में तो एक पूरा मिसरा उठाना ही पड़ता है, मेरा मानना है कि ऐसे गिरह के शेर शायर ने अपनी ग़ज़ल से खुद-ब-खुद खारिज कर देने चाहिये। <br />आलोक श्रीवास्तव और मुनव्वर राना साहब के आशआर की स्थिति जरूर थोड़ा विचलित करती हैं। किसने पहले कहा ये तो मैं नहीं जानता लेकिन यहॉं जो सामयता है वह आपत्तिजनक हैा <br />मीर और ग़ालिब के उदाहरण अशआर में तो कोई अंतर की बहुत गुँजाइश है। <br />चल अकेला… पर मुझे नहीं लगता कि किसी ओर से आपत्ति उठाई गयी हो। <br />अभी आपने काव्य से काव्य का संदर्भ उठाया है ज़मीन की दृष्टि से। बहुत सा काव्य ऐसा मिल जायेगा जो किसी कहानी, उपन्यास या यहॉं तक कि यात्रा-वृतान्त से उठाया गया है। अगर तुलना में कहीं भेद की गुँजाईश है तो उसे महत्व दिया जाना चाहिये। यह भेद, शब्द, भाव, काल या अन्य किसी भी स्वरूप का हो सकता है।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-765514892586429286.post-91874236488873924702012-05-18T04:30:27.212-07:002012-05-18T04:30:27.212-07:00सदियों से वही इंसान हैं और वही उनकी खुशियाँ दुःख स...सदियों से वही इंसान हैं और वही उनकी खुशियाँ दुःख समस्याएं... कुछ भी तो नहीं बदला सिवा समय के...न इंसानी फितरत न सोच...तो फिर नया ख्याल आएगा कहाँ से...बड़े बड़े शायर`जो पहले कह गए उन्होंने कोई बात नयों के लिए छोड़ी ही नहीं...लेकिन मजे की बात है शायरी अब भी वो ही बात करती है जो पहले करती थी लेकिन उसके बदलते अंदाज़ ने उसे अब तक दिलचस्प बनाये रखा है...हर शायर उन्हीं घिसी पिटी बातों को अपने दिलचस्प अंदाज़े बयां से सुनने लायक बना देता है....यादगार बना देता है...लगता था ग़ालिब के बाद कोई क्या लिखेगा लेकिन साहब उनके बाद भी शायरी परवान चढ़ी और क्या खूब चढ़ी...ये सिलसिला कहीं थमने वाला नहीं...जैसे हर इंसान दो हाथ दो पैर वाला है लेकिन अपने आप में अनूठा है वैसे ही हर शेर चाहे वो किसी और के कहे जैसा क्यूँ न लगे अपनी महक अलग ही रखता है...ये बात ही शायरी को आज तक जिंदा रखे हुए है और जिंदा रखेगी...<br />कुमार पाशी साहब ने इसी बात को क्या खूब कहा है:-<br />जो शे'र भी कहा वो पुराना लगा मुझे<br />जिस लफ्ज़ को छुआ वही बरता हुआ लगा<br /><br />नीरजनीरज गोस्वामीhttps://www.blogger.com/profile/07783169049273015154noreply@blogger.com